सोमवार, 22 सितंबर 2014

नवरात्र दो ऋतुओं का मिलन काल

            नवरात्र सामान्य तौर पर दो ऋतुओं का मिलन काल है। सर्दी और गर्मी की ऋतुएं जब मिलती हैं तो यह अवसर आता है। क्षितिज में जब सुबह और शाम दोनों मिलते हैं, सूर्य का उदय हो रहा हो या अस्त, उस संधि को संध्या का समय कहते हैं। सभी धर्मों के अनुयायी सुबह शाम ईश्वर का स्मरण करते हैं। भारतीय धर्म पंरपरा में दोनों संध्याओं के मिलन की तरह दोनों ऋतुएं मिलती हैं, तब भी साधना उपासना का क्रम और विधान अपनाया जाता है।


नवरात्र दो माने गए हैं। छह-छह महीने के अंतर से बदलने वाली दो ऋतुओं के समय सर्द गर्म मौसम का मिजाज बदलता है और सूक्ष्मजगत में आध्यात्मिक तंरगों का प्रवाह भी नई दिशा और ऊर्जा की गति बदलती है। वैसे वर्षा शरद, शिशिर, हेमंत, वसंत, ग्रीष्म यह छह ऋतुएं हैं, लेकिन दो ही ऋतुएं खास मानी गई हैं सर्दी एवं गर्मी। वर्षा तो दोनों ही ऋतुओं में होती है।

गर्मियों में सावन-भादो में बादल बरसते हैं तो सर्दियों में पौष और माघ में। सर्दी जब आने को होती है और गर्मी भाग रही होती है तो वह आश्विन के नवरात्र होते हैं। और सर्दी के जाने तथा गर्मी शुरु होने के दिनों में आती है। चैत्र की या वासंती नवरात्र कहलाती है, दो प्रधान ऋतुओं का मिलन काल इस तरह अतिमहत्वपूर्ण है व उसमें भी नौ दिनों की यह विशिष्ट अवधि और भी अधिक है।
नवरात्र स्थूल और सूक्ष्म जगत में चल रहे प्रवाहों का संधिकाल है। दिन व रात जब मिलते हैं तो वह भी संधिकाल कहलाता है। वैसे अब चार नवरात्र भी माने जाने लगे हैं, छह -छह महीनों की जगह तीन तीन महीने के अंतर से चार नवरात्र। आश्विन और चैत्र की दो प्रमुख नवरात्रियों के अलावा आषाढ़ और पौष में दो नवरात्र और।

इन्हें गुप्त नवरात्र कहते हैं। लेकिन प्रमुख और प्रचलित नवरात्र दो ही हैं। इन दिनो सूक्ष्म जगत में अनेक प्रकार की हलचलें होती है। शरीर से लेकर पूरे चेतन जगत में ज्वार भाटा जैसी हलचलें पैदा होती है। जीवनी शक्ति शरीर में जमी हुई विकृतियों को बहार निकालने का प्रयास करती है। अंतरिक्ष में व्याप्त सूक्ष्म शक्तियां साधक के शरीर, मन, अंतकरण का कायाकल्प करने का प्रयास करती है।

वैदिक साहित्य में नवरात्रों का विस्तृत वर्णन है। इनकी व्याख्या करते हुए कहा है इसका शाब्दिक अर्थ तो नौ राते ही है पर इनका गूढार्थ कुछ और है। नवरात्र का एक अर्थ तो यह किया गया है कि मानवी कायारूपी अयोध्या में नौ द्वार अर्थात् नौ इन्द्रियां है।

एक मुख, दो नेत्र, दो कान, नासिका के दोनों छिद्र और दो गुप्त गुप्तेंद्रिय जैसे नौ द्वारों के विषय में जागरूक रहता है, वह उनमें लिप्त नहीं होता और न ही उनका दुरूपयोग करके अपना तेज, ओज और वर्चस्व को बिगाड़ता है, वही योगी यति है। नवरात्र के इन नौ दिनों में साधक अपने-अपने ढंग से संयम, साधना और संकल्पित अनुष्ठान करते है।


इस अवधि की प्रत्येक अहोरात्र बड़ी महत्वपूर्ण मानी जाती है और उन प्रत्येक क्षणों में साधक अपनी चेतना को शुद्ध करता हुआ आगे बढ़ने का प्रयास करता है।
शारदीय नवरात्र यानी शुक्लपक्ष प्रतिपदा से लेकर विजयादशमी तक जगह-जगह रामलीला और मां दुर्गा के पंडाल का आयोजन होता है, जिससे पूरा माहौल पवित्र और धार्मिक भावों से परिपूर्ण हो जाता है। हर जगह उमंग का संचार रहता है।

ऐसे पवित्र वातावरण में जब हम मां दुर्गा की भक्ति में लीन होते हैं, तो मन में अक्सर यह सवाल उठता है कि क्या हम जो पूजा कर रहे हैं, वह सही है या नहीं।

इसके संदर्भ में दुर्गा सप्‍तशती जिसका हम नवरात्रों में पाठ करते हैं, क्षमा प्रार्थना का प्रावधान है, जिसमें यह दिया गया है कि आपने चाहे जिस भी विधि से पूजा की हो, अगर आप पाठ के अंत में दुर्गा सप्‍तशती के क्षमा प्रार्थनाओं को पढ़ लेते हैं, तो फिर आपकी प्रार्थना को मां भगवती स्वीकार करती हैं और पूजा करने वाले को सुख-समृद्धि का वरदान देती हैं।

इसलिए जब भी मां भगवती की पूजा करें, तो न केवल सच्चे मन से करें बल्कि सही तरीके से करें।हर दिशा के अपने खास देवी-देवता होते हैं, इसलिए विभिन्न देवी-देवताओं के क्षेत्र के लिए जो दिशा निर्धारित हो, उनकी पूजा उसी दिशा में करनी चाहिए।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार माता का क्षेत्र दक्षिण दिशा है, इसलिए यह बेहद जरूरी है कि माता की पूजा करते समय हमारा मुख दक्षिण या पूर्व दिशा में ही रहे।

पूर्व दिशा की ओर मुख करके मां का ध्यान करने से हमारी प्रज्ञा जागृत होती है और दक्षिण दिशा की ओर मुख करके पूजा करने से मानसिक शांति मिलती है और हमारा सीधा जुड़ाव माता से होता है।
जब आप माता की पूजा की तैयारी कर रही हों, तो पूजा संबंधी सारा सामान पूजा कक्ष के दक्षिण-पूर्व दिशा में रखें। इस कमरे में हल्के पीला, हरा या फिर गुलाबी रंग को प्रमुखता दें। इससे पूजा कक्ष में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। कई बार पूजा करते हुए न चाहते हुए भी ध्यान भटकने लगता है।

इसके लिए आप घर के उत्तर-पूर्व वास्तु जोन में प्लास्टिक या लकड़ी का बना पिरामिड रख सकती हैं। इससे माता का ध्यान करने में आसानी होती है। पिरामिड रखते समय इस बात का ध्यान रखें कि पिरामिड नीचे से खोखला हो।

वास्तुशास्त्र के प्राचीन ग्रंथों में मंदिरों और घरों में किसी भी शुभ काम को करने से पूर्व हल्दी से या फिर सिंदूर से स्वातिस्क का प्रतीक चिन्ह बनाया जाता रहा है।

अगर इन प्रतीकों का सही दिशा में प्रयोग किया गया हो, तो ये हमारे जीवन में सकारात्मकता लेकर आते हैं, जो कि पारिवारिक खुशी, प्यार व सुख-समृृिद्ध के लिए जरूरी है।
नवरात्रों में मां दुर्गा के विभिन्न रूपों की पूजा की जाती है। इस समय हम सच्चे मन से मां की आराधना करते हैं, ताकि हमारे घर में प्रेम का साम्राज्य रहे और जीवन में सुख-समृद्घि का वास हो।

साफ-सुथरा घर न केवल हमारे मन को सुकून देता है, वरन् मां की आराधना करते समय हमारा ध्यान उनकी ओर केंद्रित करता है।

कहा भी गया है कि साफ-सुथरे व्यवस्थित घर में ही देवी-देवताओं का वास होता है और जहां देवी-देवता वास करें, यकीनन वहां सुख-समृद्घि और खुशियों का वास होता है।
नवरात्री एक हिंदू पर्व है। नवरात्री संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ होता है नौ रातें । यह पर्व साल में दो बार आता है। एक शारदीय नवरात्री, दूसरा है चैत्रीय नवरात्री। नवरात्री के नौ रातो में तीन हिंदू देवियों - पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती के नौ स्वरुपों की पूजा होती है जिन्हे नवदुर्गा कहते हैं ।
चैत्र आषाढ़, आश्रि्वन और माघ के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक के नौ दिन नवरात्र कहलाते है। इनमें चैत्र के नवरात्र वासंतिक नवरात्र और आश्रि्वन के नवरात्र शारदीय नवरात्र कहलाते है। इनमें आद्याशक्ति जगत जननी सिंह वाहिनी मां दुर्गा की पूजा होती है।
नौ देवियां है- शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी व सिद्धिदात्री।
वासंतिक नवरात्र में नौ गौरी दर्शन-पूजन के क्रम में चौथे दिन कुष्मांडा देवी (दुर्गाजी) के दर्शन की मान्यता है। काशी विश्वनाथ मंदिर के आचार्य पद्मश्री प्रो. देवी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार वासंतिक नवरात्र के चौथे दिन पराम्बा जगदम्बिका श्रृंगार गौरी के रूप में भक्तों के कल्याणार्थ अवतरित हुईं। इस दिन भगवती श्रृंगार गौरी के दर्शन से राजपद में व्याप्त बाधाओं का निराकरण होता है और मनोकामना पूर्ण होती है।
भगवती दुर्गा के चतुर्थ स्वरूप का नाम कुष्मांडा है। अपनी मंद मुस्कान से ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कुष्मांडा देवी कहा गया है। जब सृष्टि का अस्तित्व नहीं था, चारों ओर अंधकार ही अंधकार व्याप्त था, तब इन्हीं देवी ने अपने हास्य से ब्रह्मांड की रचना की थी। अत: यही सृष्टि की आदि स्वरूपा आदि शक्ति हैं। इनकी आठ भुजाएं हैं। अत: ये अष्टभुजा देवी के नाम से भी विख्यात हैं। इनके सात हाथों में क्रमश: कमंडल, धनुष, वाण, कमल पुष्प, अमृत कलश, चक्र व गदा है। आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को लेने वाली जपमाला है। भगवती कूष्माण्डा का ध्यान, स्त्रोत, कवच का पाठ करने से अनाहत चक्र जाग्रत हो जाता है, जिससे समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं आयु, यश, बल और आरोग्य की वृद्धि होती है।

शक्ति की उपासना का पर्व शारदीय नवरात्र प्रतिपदा से नवमी तक निश्चित नौ तिथि, नौ नक्षत्र, नौ शक्तियों की नवधा भक्ति के साथ सनातन काल से मनाया जा रहा है। सर्वप्रथम श्रीरामचंद्रजी ने इस शारदीय नवरात्री पूजा का प्रारंभ समुद्र तट पर किया था और उसके बाद दसवें दिन लंका विजय के लिए प्रस्थान किया और विजय प्राप्त की। तब से असत्य, अधर्म पर सत्य, धर्म की जीत का पर्व दशहरा मनाया जाने लगा। आदिशक्ति के हर रूप की नवरात्र के नौ दिनों में क्रमश: अलग-अलग पूजा की जाती है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें