बुधवार, 26 सितंबर 2018

*ब्राह्मणों ने समाज को तोड़ा नही अपितु जोडा.

सकारात्मक सोच


 मै ब्राम्हणों का बहुत सम्मान करता हूँ इसलिए इस पोस्ट को शेयर करने से अपने आप को रोक नहीं पाया।
*ब्राह्मणों ने समाज को तोड़ा नही अपितु जोडा है।*
🤷‍♂🤝ब्राम्हणों ने विवाह के समय समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े *दलित* को जोड़ते हुये अनिवार्य किया कि *दलित* स्त्री द्वारा बनाये गये चुल्हे पर ही सभी शुभाशुभ कार्य होगें। इस तरह सबसे पहले *दलित* को जोडा गया ।
🤷‍♂🤝 *धोबी* के द्वारा दिये गये जल से ही कन्या सुहागन रहेगी इस तरह धोबी को जोड़ा।
🤷‍♂🤝 *कुम्हार* द्वारा दिये गये मिट्टी के कलश पर ही देवताओ के पुजन होगें यह कहते हुये कुम्हार को जोडा।
🤷‍♂🤝 *मुसहर जाति* जो वृक्ष के पत्तों से पत्तल/दोनिया बनाते है यह कहते हुये जोड़ा कि इन्हीं के बनाए गये पत्तल/दोनीयों से देवताओं का पूजन सम्पन्न होंगे।

🤷‍♂🤝 *कहार* जो जल भरते थे यह कहते हुए जोड़ा कि इन्हीं के द्वारा दिये गये जल से देवताओं के पुजन होगें।
🤷‍♂🤝 *बिश्वकर्मा* जो लकड़ी के कार्य करते थे यह कहते हुये जोड़ा कि इनके द्वारा बनाये गये आसन/चौकी पर ही बैठकर वर-वधू देवताओं का पुजन करेंगे।
🤷‍♂🤝 फिर वह *हिन्दु* जो किन्हीं कारणों से *मुसलमान* बन गये थे उन्हें जोड़ते हुये कहा गया कि इनके द्वारा सिले हुये वस्त्रों (जामे-जोड़े) को ही पहनकर विवाह सम्पन्न होगें।
🤷‍♂🤝फिर उस *हिन्दु से मुस्लिम बनीं औरतों* को यह कहते हुये जोड़ा गया कि इनके द्वारा पहनाई गयी चूडियां ही बधू को सौभाग्यवती बनायेगी।
🤷‍♂🤝 *धारीकार* जो डाल और मौरी को दुल्हे के सर पर रख कर द्वारचार कराया जाता है,को यह कहते हुये जोड़ा गया कि इनके द्वारा बनाये गये उपहारों के बिना देवताओं का आशीर्वाद नहीं मिल सकता।
🤷‍♂🤝 *डोम* जो गंदगी साफ और मैला ढोने का काम किया करते थे उन्हें यह कहकर जोड़ा गया कि *मरणोंपरांत* इनके द्वारा ही प्रथम मुखाग्नि दिया जायेगा....
👉इस तरह समाज के सभी वर्ग जब आते थे तो घर कि महिलायें मंगल गीत का गायन करते हुये उनका स्वागत करती है।

और पुरस्कार सहित दक्षिणा देकर विदा करती थी...,
*ब्राह्मणों का दोष कहाँ है*?...हाँ *ब्राह्मणों* का दोष है कि इन्होंने अपने ऊपर लगाये गये निराधार आरोपों का कभी *खंडन* नहीं किया, जो *ब्राह्मणों* के अपमान का कारण बन गया। इस तरह जब समाज के हर वर्ग की उपस्थिति हो जाने के बाद ब्राह्मण *नाई* से पुछता था कि क्या सभी वर्गो कि उपस्थिति हो गयी है...?
🤙 *नाई* के हाँ कहने के बाद ही *ब्राह्मण* मंगल-पाठ प्रारम्भ किया करते हैं।
*ब्राह्मणों* द्वारा जोड़ने कि क्रिया को छोड़वाया कुछ *ब्राह्मण विरोधी* लोगों ने और दोष ब्राह्मणों पर लगा दिया।
🙏 *ब्राह्मणों* को यदि अपना खोया हुआ वह सम्मान प्राप्त करना है तो इन बेकार वक्ताओं के वक्तव्यों का कड़ा विरोध कर रोक लगानी होगी।......
देश में फैले हुये समाज विरोधी *साधुओं* और *ब्राह्मण विरोधी* ताकतों का विरोध करना होगा जो अपनी अज्ञानता को छिपाने के लिये *वेद और ब्राह्मण* कि निन्दा करतेे हुये पूर्ण भौतिकता का आनन्द ले रहे हैं।......
💪याद रखो *ब्राह्मण* वो पण्डे नहीं जो मंदिर को दुकान बनाते हैं, ये ज्ञान के भण्डार हैं जिनसे इस श्रृष्टि की रचना हुई।.....

इस पोस्ट का मेरे *ब्राह्मण* होने से नही मनुवादी बिचारधारा क्या है बताना है।

शुक्रवार, 14 सितंबर 2018

॥ एकाक्षरगणपतिकवचम् ॥*


॥ एकाक्षरगणपतिकवचम् ॥*
🌹 *श्रीगणेशाय नमः* 🌹
नमस्तस्मै गणेशाय सर्वविघ्नविनाशिने ।
कार्यारम्भेषु सर्वेषु पूजितो यः सुरैरपि ॥ १॥ *पार्वत्युवाच*
भगवन् देवदेवेश लोकानुग्रहकारकः ।
इदानी श्रोतृमिच्छामि कवचं यत्प्रकाशितम् ॥ २॥
एकाक्षरस्य मन्त्रस्य त्वया प्रीतेन चेतसा ।
वदैतद्विधिवद्देव यदि ते वल्लभास्म्यहम् ॥ ३॥
*ईश्वर उवाच*
श्रृणु देवि प्रवक्ष्यामि नाख्येयमपि ते ध्रुवम् ।
एकाक्षरस्य मन्त्रस्य कवचं सर्वकामदम् ॥ ४॥
यस्य स्मरणमात्रेण न विघ्नाः प्रभवन्ति हि ।
त्रिकालमेककालं वा ये पठन्ति सदा नराः ॥ ५॥
तेषां क्वापि भयं नास्ति सङ्ग्रामे सङ्कटे गिरौ ।
भूतवेतालरक्षोभिर्ग्रहैश्चापि न बाध्यते ॥ ६॥
इदं कवचमज्ञात्वा यो जपेद् गणनायकम् ।
न च सिद्धिमाप्नोति मूढो वर्षशतैरपि ॥ ७॥
अघोरो मे यथा मन्त्रो मन्त्राणामुत्तमोत्तमः ।
तथेदं कवचं देवि दुर्लभं भुवि मानवैः ॥ ८॥
गोपनीयं प्रयत्नेन नाज्येयं यस्य कस्यचित् ।
तव प्रीत्या महेशानि कवचं कथ्यतेऽद्भुतम् ॥ ९॥
एकाक्षरस्य मन्त्रस्य गणकश्चर्षिरीरितः ।
त्रिष्टुप् छन्दस्तु विघ्नेशो देवता परिकीर्तिता ॥ १०॥
गँ बीजं शक्तिरोङ्कारः सर्वकामार्थसिद्धये ।
सर्वविघ्नविनाशाय विनियोगस्तु कीर्तितः ॥ ११॥
*ध्यानम्*
रक्ताम्भोजस्वरूपं लसदरुणसरोजाधिरूढं त्रिनेत्रं
पाशं चैवाङ्कुशं वा वरदमभयदं बाहुभिर्धारयन्तम् ।
शक्त्या युक्तं गजास्यं पृथुतरजठरं नागयज्ञोपवीतं
देवं चन्द्रार्धचूडं सकलभयहरं विघ्नराजं नमामि ॥ १२॥
*कवचम्*
गणेशो मे शिरः पातु भालं पातु गजाननः ।
नेत्रे गणपतिः पातु गजकर्णः श्रुती मम ॥ १३॥
कपोलौ गणनाथस्तु घ्राणं गन्धर्वपूजितः ।
मुखं मे सुमुखः पातु चिबुकं गिरिजासुतः ॥ १४॥
जिह्वां पातु गणक्रीडो दन्तान् रक्षतु दुर्मुखः ।
वाचं विनायकः पातु कष्टं पातु महोत्कटः ॥ १५॥
स्कन्धौ पातु गजस्कन्धो बाहू मे विघ्ननाशनः ।
हस्तौ रक्षतु हेरम्बो वक्षः पातु महाबलः ॥ १६॥
हृदयं मे गणपतिरुदरं मे महोदरः ।
नाभि गम्भीरहृदयः पृष्ठं पातु सुरप्रियः ॥ १७॥
कटिं मे विकटः पातु गुह्यं मे गुहपूजितः ।
ऊरु मे पातु कौमारं जानुनी च गणाधिपः ॥ १८॥
जङ्घे गजप्रदः पातु गुल्फौ मे धूर्जटिप्रियः ।
चरणौ दुर्जयः पातुर्साङ्गं गणनायकः ॥ १९॥
आमोदो मेऽग्रतः पातु प्रमोदः पातु पृष्ठतः ।
दक्षिणे पातु सिद्धिशो वामे विघ्नधरार्चितः ॥ २०॥
प्राच्यां रक्षतु मां नित्यं चिन्तामणिविनायकः ।
आग्नेयां वक्रतुण्डो मे दक्षिणस्यामुमासुतः ॥ २१॥
नैऋत्यां सर्वविघ्नेशः पातु नित्यं गणेश्वरः ।
प्रतीच्यां सिद्धिदः पातु वायव्यां गजकर्णकः ॥ २२॥
कौबेर्यां सर्वसिद्धिशः ईशान्यामीशनन्दनः ।
ऊर्ध्वं विनायकः पातु अधो मूषकवाहनः ॥ २३॥
दिवा गोक्षीरधवलः पातु नित्यं गजाननः ।
रात्रौ पातु गणक्रीडः सन्ध्योः सुरवन्दितः ॥ २४॥
पाशाङ्कुशाभयकरः सर्वतः पातु मां सदा ।
ग्रहभूतपिशाचेभ्यः पातु नित्यं गजाननः ॥ २५॥
सत्वं रजस्तमो वाचं बुद्धिं ज्ञानं स्मृतिं दयाम् ।
धर्मचतुर्विधं लक्ष्मीं लज्जां कीर्तिं कुलं वपुः ॥ २६॥
धनं धान्यं गृहं दारान् पौत्रान् सखींस्तथा ।
एकदन्तोऽवतु श्रीमान् सर्वतः शङ्करात्मजः ॥ २७॥
सिद्धिदं कीर्तिदं देवि प्रपठेन्नियतः शुचिः ।
एककालं द्विकालं वापि भक्तिमान् ॥ २८॥
न तस्य दुर्लभं किञ्चित् त्रिषु लोकेषु विद्यते ।
सर्वपापविनिर्मुक्तो जायते भुवि मानवः ॥ २९॥
यं यं कामयते नित्यं सुदुर्लभमनोरथम् ।
तं तं प्राप्नोति सकलं षण्मासान्नात्र संशयः ॥ ३०॥
मोहनस्तम्भनाकर्षमारणोच्चाटनं वशम् ।
स्मरणादेव जायन्ते नात्र कार्या विचारणा ॥ ३१॥
सर्वविघ्नहरं देवं ग्रहपीडानिवारणम् ।
सर्वशत्रुक्षयकरं सर्वापत्तिनिवारणम् ॥ ३२॥
धृत्वेदं कवचं देवि यो जपेन्मन्त्रमुत्तमम् ।
न वाच्यते स विघ्नौघैः कदाचिदपि कुत्रचित् ॥ ३३॥
भूर्जे लिखित्वा विधिवद्धारयेद्यो नरः शुचिः ।
एकबाहो शिरः कण्ठे पूजयित्वा गणाधिपम् ॥ ३४॥
एकाक्षरस्य मन्त्रस्य कवचं देवि दुर्लभम् ।
यो धारयेन्महेशानि न विघ्नैरभिभूयते ॥ ३५॥
गणेशहृदयं नाम कवचं सर्वसिद्धिदम् ।
पठेद्वा पाठयेद्वापि तस्य सिद्धिः करे स्थिता ॥ ३६॥
न प्रकाश्यं महेशानि कवचं यत्र कुत्रचित् ।
दातव्यं भक्तियुक्ताय गुरुदेवपराय च ॥ ३७॥


 ॥ इति श्रीरुद्रयामले एकाक्षरगणपतिकवचं सम्पूर्णम् ॥