रविवार, 6 नवंबर 2016

कुंडलीनी योग :: चक्र -नाड़ियाँ और विधियाँ



::::::::प्राणायाम ::::::::::::::::
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प्राणायाम मन के शोधन की क्रिया है |जब मन शुद्ध हो जाता है तब वह अध्यात्म की ओर्र उन्मुख होकर परब्रह्म में स्थिर होने लगता है |साधना की प्रथम क्रिया प्राणायाम है |बाहर की वायु भीतर शारीर में प्रवेश करे तो उसे श्वास कहते हैं |जबकि भीतर की वायु बाहर निकले तो उसे प्रश्वास कहा जाता है | इन दोनों ही वायुओं को रोकने अथवा नियंत्रित करने अथवा इच्छानुसार चलाने का नाम ही प्राणायाम है | नासिका छिद्रों से आने जाने वाले श्वासों पर ध्यान एकाग्र करने से मन स्थिर होता है |श्वास -प्रश्वास की गति का निरोध ही प्राणायाम है |प्राणवायु के निग्रह से इन्द्रियों के समस्त दोष नष्ट हो जाते हैं तथा चित्त शुद्ध हो जाता है |श्वांस प्रश्वास और उनकी गति पर नियंत्रण प्राणायाम से होता है |इसके तीन भेद हैं ,रेचक ,पूरक व् कुम्भक |नासिका के बाएं भाग में इड़ा ,दायें में पिंगला और दोनों के मध्य में सुषुम्ना माना जाता है |प्रणव [ ॐ ] का बारह बार जपकर अन्तस्थ वायु को पिंगला से छोड़ने को रेचक कहते हैं |सोलह बार प्रणव जप करके वाह्य वायु को इड़ा से भरने को पूरक कहते हैं तथा बारह बार तारक मन्त्र को जप करके मध्य में वायु को स्थिर करना कुम्भक कहलाता है |भीतरी श्वास को बाहर निकालकर बाहर ही रोके रखने को कुम्भक प्राणायाम कहते हैं |बाहर की श्वास को भीतर खींचकर ही रोके रखना आभ्यंतर कुम्भक प्राणायाम कहलाता है |लेकिन बाहर या भीतर कहीं भी सुखपूर्वक श्वास को रोक लेना स्ताम्भावृत्ति प्राणायाम कहलाता है |
प्राणायाम के कई भेद होते हैं जैसे नाड़ीशोधन, प्राण संचार, अनुलोम विलोम, उज्जायी, भ्रामरी, अनुलोम विलोम सूर्यवेधन, शक्तिचालिनी मुद्रा, कपालभाति, भस्रिका, शीतली, शीतकारी प्राणायाम। उच्चस्तरीय योग साधना में प्राणायाम साधना का अपना महत्त्व है। प्राणायाम दिखने में ही सामान्य लगता है, पर यदि उच्चस्तरीय विधान के आधार पर साधा जाए तो शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक प्रगति के लिए उससे महत्त्वपूर्ण लाभ उठाया जा सकता है।
प्राणायाम दो तरह के होते है।
१. गहन श्वास- प्रश्वास, व्यायाम परक (डीप ब्रीदिंग एक्सरसाईज)तथा
२. आध्यात्मिक ध्यान परक। पहले प्रकार के प्राणायामों में कुम्भक १.२.१ या १.४.२ की मात्रा में क्रमशः बढ़ाया जाता है।
दूसरे प्रकार के प्राणायामों १.१/२.१.१/२ का ही क्रम रहता है। कपालभाति और
भस्त्रिका प्राणायाम तो व्यायाम परक ही होते हैं, शेष अन्य प्राणायामों को दोनों प्रकार से प्रयोग में लाया जा सकता है। दोनों प्रकार के प्राणायामों के बीच इतना समय अवश्य दें कि शरीर और श्वास- प्रश्वास की गति सहज स्थिति में आ जाये। इसमें ध्यान का विशेष प्रयोग होता है। .....




कुंडलीनी योग :: चक्र -नाड़ियाँ और विधियाँ

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कुंडलिनी शक्ति समस्त ब्रह्मांड में परिव्याप्त सार्वभौमिक शक्ति है जो प्रसुप्तावस्था में प्रत्येक जीव में विद्यमान रहती है। इसको प्रतीक रूप से साढ़े तीन कुंडल लगाए सर्प जो मूलाधार चक्र में सो रहा है के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता है। तीन कुंडल प्रकृति के तीन गुणों के परिचायक हैं। ये हैं सत्व (परिशुद्धता), रजस (क्रियाशीतता और वासना) तथा तमस (जड़ता और अंधकार)। अर्द्ध कुंडल इन गुणों के प्रभाव (विकृति) का परिचायक है। कुंडलिनी योग के अभ्यास से सुप्त कुंडलिनी को जाग्रत कर इसे सुषम्ना में स्थित चक्रों का भेंदन कराते हुए सहस्रार तक ले जाया जाता है।
नाड़ी : नाड़ी सूक्ष्म शरीर की वाहिकाएँ हैं जिनसे होकर प्राणों का प्रवाह होता है। इन्हें खुली आँखों से नहीं देखा जा सकता। परंतु ये अंत:प्राज्ञिक दृष्टि से देखी जा सकती हैं। कुल मिलाकर बहत्तर हजार नाड़ियाँ हैं जिनमें इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना सबसे महत्वपूर्ण हैं। इड़ा और पिंगला नाड़ी मेरुदंड के दोनों ओर स्थित sympathetic और para sympathetic system के तद्नुरूप हैं। इड़ा का प्रवाह बाई नासिका से होता है तथा इसकी प्रकृति शीतल है। पिंगला दाहिनी नासिका से प्रवाहित होती है तथा इसकी प्रकृति गरम है। इड़ा में तमस की प्रबलता होती है, जबकि पिंगला में रजस प्रभावशाली होता है। इड़ा का अधिष्ठाता देवता चंद्रमा और पिंगला का सूर्य है।
यदि आप ध्यान से अपनी श्वांस का अवलोकन करेंगे तो पाएँगे कि कभी बाई नासिका से श्वांस चलता है तो कभी दाहिनी नासिका से और कभी-कभी दोनों नासिकाओं से श्वांस का प्रावाह चलता रहता है। इंड़ा नाड़ी जब क्रियाशील रहती है तो श्‍वांस बाई नासिका से प्रवाहित होता है। उस समय व्यक्ति को साधारण कार्य करना चाहिए। शांत चित्त से जो सहज कार्य किए किए जा सकते हैं उन्हीं में उस समय व्यक्ति को लगना चाहिए।
दाहिनीं नासिका से जब श्वांस चलती है तो उस समय पिंगला नाड़ी क्रियाशील रहती है। उस समय व्यक्ति को कठिन कार्य- जैसे व्यायाम, खाना, स्नान और परिश्रम वाले कार्य करना चाहिए। इसी समय सोना भी चाहिए। क्योंकि पिंगला की क्रियाशीलता में भोजन शीघ्र पचता है और गहरी नींद आती है। स्वरयोग इड़ा और पिंगला के विषय में विस्तृत जानकारी देते हुए स्वरों को परिवर्तित करने, रोग दूर करने, सिद्धि प्राप्त करने और भविष्यवाणी करने जैसी शक्तियाँ प्राप्त करने के विषय में गहन मार्गदर्शन होता है। दोनों नासिका से साँस चलने का अर्थ है कि उस समय सुषुम्ना क्रियाशील है। ध्यान, प्रार्थना, जप, चिंतन और उत्कृष्ट कार्य करने के लिए यही समय सर्वश्रेष्ठ होता है।
सुषुम्ना नाड़ी : सभी नाड़ियों में श्रेष्ठ सुषुम्ना नाड़ी है। मूलाधार (Basal plexus) से आरंभ होकर यह सिर के सर्वोच्च स्थान पर अवस्थित सहस्रार तक आती है। सभी चक्र सुषुम्ना में ही विद्यमान हैं। इड़ा को गंगा, पिंगला को यमुना और सुषुम्ना को सरस्वती कहा गया है। इन तीन ना‍ड़ियों का पहला मिलन केंद्र मूलाधार कहलाता है। इसलिए मूलाधार को मुक्तत्रिवेणी (जहाँ से तीनों अलग-अलग होती हैं) और आज्ञाचक्र को युक्त त्रिवेणी (जहाँ तीनों आपस में मिल जाती हैं) कहते हैं।
चक्र : मेरुरज्जु (spinal card) में प्राणों के प्रवाह के लिए सूक्ष्म नाड़ी है जिसे सुषुम्ना कहा गया है। इसमें अनेक केंद्र हैं। जिसे चक्र अथवा पदम कहा जाता है। कई ना‍ड़ियों के एक स्थान पर मिलने से इन चक्रों अथवा केंद्रों का निर्माण होता है। गुह्य रूप से इसे कमल के रूप में चित्रित किया गया है जिसमें अनेक दल हैं। ये दल एक नाड़ी विशेष के परिचायक हैं तथा इनका अपना एक विशिष्ट स्पंदन होता है जिसे एक विशेष बीजाक्षर के द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है। इस प्रकार प्रत्येक चक्र में दलों की एक निश्चित संख्‍या, विशिष्ट रंग, इष्ट देवता, तन्मात्रा (सूक्ष्मतत्व) और स्पंदन का प्रतिनिधित्व करने वाला एक बीजाक्षर हुआ करता है। कुंडलिनी जब चक्रों का भेदन करती है तो उस में शक्ति का संचार हो उठता है, मानों कमल पुष्प प्रस्फुटित हो गया और उस चक्र की गुप्त शक्तियाँ प्रकट हो जाती हैं।
(नोट :- मूलत: सात चक्र होते हैं:- मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा और सहस्रार)
कुंडलिनी योग का अभ्यास : सेवा और भक्ति के द्वारा साधक को सर्वप्रथम अपनी चित्तशुद्धि करनी चाहिए। आसन, प्राणायाम, बंध, मुद्रा और हठयोग की क्रियाओं के अभ्यास से नाड़ी शुद्धि करना भी आवश्यक है। साधक को श्रद्धा, भक्ति, गुरुसेवा, विनम्रता, शुद्धता, अनासक्ति, करुणा, प्रेरणा, विवेक, मानसिक ‍शांति, आत्मसंयम, निर्भरता, धैर्य और संलग्नता जैसे सद्गुणों का विकास करना चाहिए। उसे एक के बाद दूसरे चक्र पर ध्यान करना आवश्यक है। जैसा कि पूर्व पृष्ठों में बताया गया है उसे एक सप्ताह तक मूलाधारचक्र और फिर एक सप्ताह तक क्रमश: स्वाधिष्ठान इत्यादि चक्रों पर ध्यान करना चाहिए।
विभिन्न विधियाँ : कुंडलिनी जागरण की विभिन्न विधियाँ हैं। राजयोग में ध्यान-धारणा के द्वारा कुंडलिनी जाग्रत होती है, जब कि भक्त से, ज्ञानी, चिंतन, मनन और ज्ञान से तथा कर्मयोगी मानवता की नि:स्वार्थ सेवा से कुंडलिनी जागरण करता है।
कुंडलिनी अध्यात्मिक प्रगति मापने का बैरोमीटर है। साधना का चाहे कोई मार्ग क्यों न हो, कुंडलिनी अवश्य जाग्रत होती है। साधना में प्रगति के साध कुंडलिनी सुषम्ना नाड़ी में अवश्य चढ़ती है। कुंडलिनी का सुषुम्ना में ऊपर चढ़ने का अर्थ है चेतना में अधिकाधिक विस्तार। प्रत्येक केंद्र प्रयोगी को प्रकृति के किसी न किसी पक्ष पर नियंत्रण प्रदान करता है। उसे शक्ति और आनंद की प्राप्ति होती है। कुंडलिनी जागरण के लिए कुंडलिनी प्राणायाम, अत्यन्त प्रभावशाली सिद्ध होते हैं। कुंडलिनी जब मूलाधार का भेदन करती है तो व्यक्ति अपने निम्नस्वरूप से ऊपर उठ जाता है। अनाहत चक्र के भेदन से योगी वासनाओं (सूक्ष्म कामना) से मुक्त हो जाता है और जब कुंडलिनी आज्ञाचक्र का भेदन कर लेती है तो योगी को आत्मज्ञान हो जाता है। उसे परमानंद अनुभव होता है।................................................................