गुरुवार, 15 जनवरी 2015

मकर संक्रांति-2015

नववर्ष 2015 की मकर संक्रांति हाथी पर सवार होकर गर्दभ उपवाहन के साथ मुकुट का आभूषण पहनकर पशु जाति की मकर संक्रांति गोरोचन का लेप लगाकर लाल वस्त्र और बिल्वपत्र की माला पहनकर हाथ में धनुष धारण कर हाथ में लोहे का पात्र लिए दुग्धपान करती हुई प्रौढ़ावस्था में रहेगी।


 इस वर्ष सूर्य मकर राशि में 14 जनवरी को सूर्यास्त के बाद शाम 7 बजकर 27 मिनट पर प्रवेश करेगा। संक्रांति का पुण्यकाल 14 जनवरी की दोपहर 1 बजकर 3 मिनट पर प्रारंभ होगा, जो अगले दिन 15 जनवरी को 11 बजकर 27 मिनट तक रहेगा। संक्रांति के बाद स्नान, दान और पूजा का महत्व है।
 हिन्दू संस्कृति को त्योहारों, परंपराओं, मान्यताओं का देश माना जाता है। इन्हीं बातों के कारण हमारी सांस्कृतिक विरासत आज भी सर उठाए खड़ी है। अंग्रेजी नववर्ष के प्रारंभ होते ही देश में संक्रांति के महान पर्व का आगाज हो रहा है। दीपावली, होली के समान मकर संक्रांति ऐसा दिव्य पर्व है जिसे पूरे देश में अलग-अलग तरह और नाम से एकसाथ मनाया जाता है। इस बार मकर संक्रांति किस रूप में आपके और देश के लिए क्या क्या लेकर आ रही है,
क्यों मनाई जाती है मकर संक्रांति?
 भगवान भुवन भास्कर के धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करने को मकर संक्रांति कहते हैं। पूरे वर्ष में 12 संक्रांतियां होती हैं। जब मेष, वृषभ आदि राशि में भगवान सूर्य प्रवेश करते हैं तो उसे ही मेषादि संक्रांति कहा जाता है, लेकिन सबसे ज्यादा मकर संक्रांति का महत्व होता है। इसे उत्तरायन भी कहा जाता है, क्योंकि इस दिन से सूर्य आने वाले 6 माह के लिए उत्तरायन हो जाते हैं। शास्त्रों में उत्तरायन को देवताओं का दिन माना जाता है और कर्क संक्रांति के बाद के 6 माह को दक्षिणायन कहा जाता है, जो देवताओं की रात मानी जाती है। जबकि मान्यता है कि दक्षिणायन पितरों का दिन होता है और उत्तरायन पितरों की रात होती है। सूर्य के मकर राशि में आने के बाद दिन बड़े होने लगते हैं, नए प्रकाश का उदय होता है, प्रकाश उन्नति, जीवंत शक्ति, सकारात्मकता का प्रतीक होने से इसका महत्व बहुत ज्यादा होता है। यही बेला होती है, जब शिशिर ऋतु की विदाई और वसंत का आगमन होता है।मकर संक्रांति का पौराणिक महत्व-


 भगवान सूर्य की पूजा-अर्चना की जानकारी हमें वैदिक काल से मिलती है। फिर भी पुराणों व शास्त्रों में कई ऐसे उदाहरण मिलते हैं जिससे मकर संक्रांति के महत्व को आसानी से समझा जा सकता है-
 भागवत पुराण, देवी पुराण के मुताबिक मकर संक्रांति ही वह महान पर्व होता है, जब भगवान सूर्य स्वयं अपने पुत्र शनि के घर उनसे मिलने जाते हैं। मान्यता है कि पिता और पुत्र में आपसी शत्रुता है और जैसे दिन का कारक SURY को मानते हैं वैसे ही रात का कारक शनि को माना जाता है इसलिए मकर संक्रांति को शनि की राशि मकर में सूर्य के आने को दैवीय समय माना जाता है।
 2. मकर संक्रांति का महत्व इस बात से पता चलता है कि इच्छामृत्यु प्राप्त भीष्म पितामह ने अपने प्राणों को त्यागने के लिए उत्तरायन का इंतजार किया था। बाणों की शय्या पर सोए भीष्म ने उत्तरायन आने पर माघ अष्टमी पर अपने प्राण त्यागे थे। उत्तरायन में प्राण त्यागने के महत्व पर गीता में कहा गया-
 अग्निज्योर्तिरह: शुक्लम्, षष्मासा उत्तरायनम्।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति, ब्रह्म ब्रह्मविदोजना:।।
 अर्थात जब सूर्य उत्तरायन होता है, दिन के समय ब्रह्म को जानने वाले योगी अपने प्राणों का त्याग करते हैं तो ब्रह्म को प्राप्त करते हैं।
 3. ब्रह्मांडपुराण में बताया गया है कि मकर संक्रांति को पुत्र की इच्छा रखने वाली स्त्री को दान करने का अनंत फल मिलता है। ब्रह्मांडपुराण के अनुसार यशोदा ने इस दिन ताम्बूल का दान किया था इसलिए इन्हें कृष्ण के समान सुपुत्र प्राप्त हुआ।
 4. मकर संक्रांति पर गंगासागर का विशेष महत्व होता है। कहते हैं भागीरथ ने कठिन तपस्या करके गंगा को प्रसन्न किया और गंगा की जटा से निकलने के बाद अपने पीछे-पीछे चलने का आग्रह किया। मकर संक्रांति पर ही भागीरथ गंगा को लेकर कपिल मुनि के आश्रम पहुचे थे, जहां राजा सगर के 60 हजार पुत्रों को तारना था।
 आज भी सबसे ज्यादा महत्व गंगासागर में स्नान करने का होता है। कहते हैं- 'सारे तीरथ बार-बार, गंगासागर एक बार।' इस दिन गंगा स्नान का विशेष महत्व होता है। इलाहाबाद में 1 माह का माघ मेला इसी दिन प्रारंभ होता है।
इस वर्ष मकर संक्रांति के समय स्वाति नक्षत्र और तुला राशि रहेगी जबकि लग्न कर्क रहेगा। इस साल की संक्रांति के फलस्वरूप लाल रंग के वस्त्र, लाल वस्तुएं, अष्टगंध, दूध-दही, चांदी, चावल, लोहा, स्टील, इस्पात, पेट्रोलियम, सूखे मेवे, मसाले, रस, खाद्यान्न के भावों में तेजी आएगी। कर्क लग्न में गुरु उच्च के और सप्तम में बुध, शुक्र होने से वाणिज्य-व्यापार, आयात-निर्यात, विदेशी व्यापार पर वृद्धि और लाभ होगा
 मकर संक्रांति का जानिए 12 राशियों पर प्रभाव
मेष : धनलाभ, सम्मान, कार्यस्थल में कष्ट।
वृषभ : पराक्रम में वृद्धि, धार्मिक यात्रा, तनाव।
मिथुन : धनलाभ, रुका पैसा मिलेगा, शारीरिक पीड़ा।
कर्क : दांपत्य कष्ट, चिड़चिड़ापन, सिरदर्द।
सिंह : शत्रु विजय, स्वास्थ्य चिंता, अचानक धन खर्च।
कन्या : संतान कष्ट, लाभ, समृद्धि।
तुला : वाहन कष्ट, आर्थिक लाभ, कार्यस्थल में परेशानी।
वृश्चिक : भाई-बंधुओं में विवाद, चिंता, धार्मिक यात्रा।
धनु : धन, कुटुम्ब सुख, मानसिक तनाव।
मकर : तनाव, चिड़चिड़ापन, लाभ, दांपत्य कष्ट।
कुंभ : चिंता, शारीरिक पीड़ा, पदोन्नति।

मीन : लाभ के योग, संतान कष्ट, पेट में पीड़ा।

रविवार, 4 जनवरी 2015

श्री नारायण कवच

श्री नारायण कवच

न्यास
न्यासः- सर्वप्रथम श्रीगणेश जी तथा भगवान नारायण को नमस्कार करके नीचे लिखे प्रकार से न्यास करें।
अंगन्यासः
ॐ ॐ नमः पादयोः ( दाहिने हाँथ की तर्जनी व अंगुष्ठ इन दोनों को मिलाकर दोनों पैरों का स्पर्श करें) ।
ॐ नं नमः जानुनोः ( दाहिने हाँथ की तर्जनी व अंगुष्ठ इन दोनों को मिलाकर दोनों घुटनों का स्पर्श करें )।
ॐ मों नमः ऊर्वोः (दाहिने हाथ की तर्जनी अंगुष्ठ इन दोनों को मिलाकर दोनों पैरों की जाँघ का स्पर्श करें)।
ॐ नां नमः उदरे ( दाहिने हाथ की तर्जनी तथा अंगुठा इन दोनों को मिलाकर पेट का स्पर्श करें )
ॐ रां नमः हृदि ( मध्यमा-अनामिका-तर्जनी से हृदय का स्पर्श करें )
ॐ यं नमः उरसि ( मध्यमा- अनामिका-तर्जनी से छाती का स्पर्श करें )
ॐ णां नमः मुखे ( तर्जनी अँगुठे के संयोग से मुख का स्पर्श करें)
ॐ यं नमः शिरसि ( तर्जनी -मध्यमा के संयोग से सिर का स्पर्श करें )

करन्यासः
ॐ ॐ नमः दक्षिणतर्जन्याम् ( दाहिने अँगुठे से दाहिने तर्जनी के सिरे का स्पर्श करें )
ॐ नं नमः दक्षिणमध्यमायाम् ( दाहिने अँगुठे से दाहिने हाथ की मध्यमा अँगुली का ऊपर वाला पोर स्पर्श करें )
ॐ मों नमः दक्षिणानामिकायाम् ( दहिने अँगुठे से दाहिने हाथ की अनामिका का ऊपरवाला पोर स्पर्श करें )
ॐ भं नमः दक्षिणकनिष्ठिकायाम् (दाहिने अँगुठे से हाथ की कनिष्ठिका का ऊपर वाला पोर स्पर्श करें )
ॐ गं नमः वामकनिष्ठिकायाम् ( बाँये अँगुठे से बाँये हाथ की कनिष्ठिका का ऊपर वाला पोर स्पर्श करें)
ॐ वं नमः —-वामानिकायाम् ( बाँये अँगुठे से बाँये हाँथ की अनामिका का ऊपरवाला पोर स्पर्श करें )
ॐ तें नमः —-वाममध्यमायाम् ( बाँये अँगुठे से बाये हाथ की मध्यमा का ऊपरवाला पोर स्पर्श करें )
ॐ वां नमः वामतर्जन्याम् ( बाँये अँगुठे से बाँये हाथ की तर्जनी का ऊपरवाला पोर स्पर्श करें )
ॐ सुं नमः —-दक्षिणाङ्गुष्ठोर्ध्वपर्वणि ( दाहिने हाथ की चारों अँगुलियों से दाहिने हाथ के अँगुठे का ऊपरवाला पोर छुए )
ॐ दें नमः —–दक्षिणाङ्गुष्ठाधः पर्वणि ( दाहिने हाथ की चारों अँगुलियों से दाहिने हाथ के अँगुठे का नीचे वाला पोर छुए )
ॐ वां नमः —–वामाङ्गुष्ठोर्ध्वपर्वणि ( बाँये हाथ की चारों अँगुलियों से बाँये अँगुठे के ऊपरवाला पोर छुए )
ॐ यं नमः ——वामाङ्गुष्ठाधः पर्वणि ( बाँये हाथ की चारों अँगुलियों से बाँये हाथ के अँगुठे का नीचे वाला पोर छुए )

विष्णुषडक्षरन्यासः
ॐ ॐ नमः ————हृदये ( तर्जनी मध्यमा एवं अनामिका से हृदय का स्पर्श करें )
ॐ विं नमः ————- मूर्धनि ( तर्जनी मध्यमा के संयोग सिर का स्पर्श करें )
ॐ षं नमः —————भ्रुर्वोर्मध्ये ( तर्जनी-मध्यमा से दोनों भौंहों का स्पर्श करें)
ॐ णं नमः —————शिखायाम् ( अँगुठे से शिखा का स्पर्श करें )
ॐ वें नमः —————नेत्रयोः ( तर्जनी -मध्यमा से दोनों नेत्रों का स्पर्श करें )
ॐ नं नमः ————— सर्वसंधिषु ( तर्जनी मध्यमा और अनामिका से शरीर के सभी जोड़ों जैसे कंधा, घुटना, कोहनी आदि का स्पर्श करें )
ॐ मः अस्त्राय फट् प्राच्याम् (पूर्व की ओर चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् आग्नेय्याम् ( अग्निकोण में चुटकी बजायें )
ॐ मः अस्त्राय फट् दक्षिणस्याम् ( दक्षिण की ओर चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् नैऋत्ये (नैऋत्य कोण में चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् प्रतीच्याम् ( पश्चिम की ओर चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् वायव्ये ( वायुकोण में चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् उदीच्याम् ( उत्तर की ओर चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् ऐशान्याम् (ईशानकोण में चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् ऊर्ध्वायाम् ( ऊपर की ओर चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् अधरायाम् (नीचे की ओर चुटकी बजाएँ )

।। श्री हरिः ।।



अथ श्रीनारायणकवच
राजोवाच
यया गुप्तः सहस्त्राक्षः सवाहान् रिपुसैनिकान्।
क्रीडन्निव विनिर्जित्य त्रिलोक्या बुभुजे श्रियम्।।१।।
भगवंस्तन्ममाख्याहि वर्म नारायणात्मकम्।
यथाssततायिनः शत्रून् येन गुप्तोsजयन्मृधे।।२।।

राजा परिक्षित ने पूछा - भगवन् ! देवराज इंद्र ने जिससे सुरक्षित होकर शत्रुओं की चतुरंगिणी सेना को खेल-खेल में - अनायास ही जीतकर त्रिलोकी की राजलक्ष्मी का उपभोग किया, आप उस नारायण कवच को सुनाइये और यह भी बतलाईये कि उन्होंने उससे सुरक्षित होकर रणभूमि में किस प्रकार आक्रमणकारी शत्रुओं पर विजय प्राप्त की ।। १-२ ।।

श्रीशुक उवाच

वृतः पुरोहितस्त्वाष्ट्रो महेन्द्रायानुपृच्छते।
नारायणाख्यं वर्माह तदिहैकमनाः श्रुणु ।।३।।
विश्वरुप उवाच
धौताड़् घ्रिपाणिराचम्य सपवित्र उदङ् मुखः ।
कृतस्वांगकरन्यासो मन्त्राभ्यां वाग्यतः शुचिः ।।४ ।।
नारायणमयं वर्म संह्येद् भय आगते ।
पादयोर्जानुनोरुर्वोरुदरे हृद्यथोरसि ।।५।।
मुखे शिरस्यानुपूर्व्यादोकांरादीनि विन्यसेत् ।
ॐ नमो नारायणायेति विपर्ययमथापि वा ।।६।।

श्रीशुकदेवजी ने कहाः परीक्षित् ! जब देवताओं ने विश्वरूप को पुरोहित बना लिया, तब देवराज इन्द्र के प्रश्न करने पर विश्वरूप ने नारायण कवच का उपदेश दिया तुम एकाग्रचित्त से उसका श्रवण करो ।।३
उपदेश किया। तुम एकाग्रचित्त से उसका श्रवण करो ।।३।।
विश्वरुप ने कहा - देवराज इन्द्र ! भय का अवसर उपस्थित होने पर नारायणकवच धारण करके अपने शरीर की रक्षा कर लेनी चाहिए । उसकी विधि यह है कि पहले हाथ - पैर धोकर आचमन करें, फ़िर हाथ में कुशकी पवित्री धारण करके उत्तर मुहँ बैठ जाय. इसके बाद कवचधारणपर्यन्त और कुछ न बोलने का निश्चय करके पवित्रता से ' ॐ नमो नारायणाय ' और ' ॐ नमो भगवते वासुदेवाय '-इन मन्त्रों के द्वारा हृदयादि अंगन्यास तथा अंगुष्ठादि करन्यास करें । पहले 'ॐ नमो नारायणाय ' इस अष्टाक्षर मन्त्र के ॐ आदि आठ अक्षरों का क्रमशः पैरो, घुटनों, जांघो, पेट हृदय, वक्षःस्थल, मुख और सिर में न्यास करें । अथवा पूर्वोक्त मन्त्र के यकार से लेकर ॐ कारपर्यन्त आठ अक्षरों का सिर से आरम्भ करके उन्हीं आठ अंगो में विपरीत क्रमसे न्यास करें। ।।४ -६ ।।

करन्यासं ततः कुर्याद् द्वादशाक्षरविद्यया।
प्रणवादियकारान्तमङ्गुल्यङ्गुष्ठपर्वसु।।७।।
तदनन्तर ॐ नमो भगवते वासुदेवायइस द्वादशाक्षर -मन्त्र के ॐ आदि बारह अक्षरों का दायीं तर्जनी से बाँयीं तर्जनी तक दोनों हाँथ की आठ अँगुलियों और दोनों अँगुठों की दो-दो गाठों में न्यास करे।।७।।

न्यसेद् धृदय ओंकारं विकारमनु मूर्धनि।
षकारं तु भ्रुवोर्मध्ये णकारं शिखया दिशेत्।।८।।

वेकारं नेत्रयोर्युञ्ज्यान्नकारं सर्वसन्धिषु।
मकारमस्त्रमुद्दिश्य मन्त्रमूर्तिर्भवेद् बुधः।।९।।
सविसर्गं फडन्तं तत् सर्वदिक्षु विनिर्दिशेत्।
ॐ विष्णवे नम इति ।।१०।।

फिर ॐ विष्णवे नमःइस मन्त्र के पहले के पहले अक्षर का हृदय में, ‘विका ब्रह्मरन्ध्र , में का भौहों के बीच में, ‘का चोटी में, ‘वेका दोनों नेत्रों और का शरीर की सब गाँठों में न्यास करे तदनन्तर ॐ मः अस्त्राय फट्कहकर दिग्बन्ध करे इस प्रकर न्यास करने से इस विधि को जानने वाला पुरूष मन्त्रमय हो जाता है ।।८-१०।।

आत्मानं परमं ध्यायेद् ध्येयं षट्शक्तिभिर्युतम्।
विद्यातेजस्तपोमूर्तिमिमं मन्त्रमुदाहरेत् ।।११।।

इसके बाद समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य से परिपूर्ण इष्टदेव भगवान् का ध्यान करे और अपने को भी तद् रूप ही चिन्तन करे तत्पश्चात् विद्या, तेज, और तपः स्वरूप इस कवच का पाठ करे ।।११।।

ॐ हरिर्विदध्यान्मम सर्वरक्षां न्यस्ताड़् घ्रिपद्मः पतगेन्द्रपृष्ठे।
दरारिचर्मासिगदेषुचापपाशान् दधानोsष्टगुणोsष्टबाहुः ।।१२।।

भगवान् श्रीहरि गरूड़जी के पीठ पर अपने चरणकमल रखे हुए हैं, अणिमा आदि आठों सिद्धियाँ उनकी सेवा कर रही हैं आठ हाँथों में शंख, चक्र, ढाल, तलवार, गदा, बाण, धनुष, और पाश (फंदा) धारण किए हुए हैं वे ही ओंकार स्वरूप प्रभु सब प्रकार से सब ओर से मेरी रक्षा करें।।१२।।

जलेषु मां रक्षतु मत्स्यमूर्तिर्यादोगणेभ्यो वरूणस्य पाशात्।
स्थलेषु मायावटुवामनोsव्यात् त्रिविक्रमः खेऽवतु विश्वरूपः ।।१३।।

मत्स्यमूर्ति भगवान् जल के भीतर जलजंतुओं से और वरूण के पाश से मेरी रक्षा करें माया से ब्रह्मचारी रूप धारण करने वाले वामन भगवान् स्थल पर और विश्वरूप श्री त्रिविक्रमभगवान् आकाश में मेरी रक्षा करें

दुर्गेष्वटव्याजिमुखादिषु प्रभुः पायान्नृसिंहोऽसुरयुथपारिः।
विमुञ्चतो यस्य महाट्टहासं दिशो विनेदुर्न्यपतंश्च गर्भाः ।।१४।।

जिनके घोर अट्टहास करने पर सब दिशाएँ गूँज उठी थीं और गर्भवती दैत्यपत्नियों के गर्भ गिर गये थे, वे दैत्ययुथपतियों के शत्रु भगवान् नृसिंह किले, जंगल, रणभूमि आदि विकट स्थानों में मेरी रक्षा करें ।।१४।।

रक्षत्वसौ माध्वनि यज्ञकल्पः स्वदंष्ट्रयोन्नीतधरो वराहः।
रामोऽद्रिकूटेष्वथ विप्रवासे सलक्ष्मणोsव्याद् भरताग्रजोsस्मान् ।।१५।।

अपनी दाढ़ों पर पृथ्वी को उठा लेने वाले यज्ञमूर्ति वराह भगवान् मार्ग में, परशुराम जी पर्वतों के शिखरों और लक्ष्मणजी के सहित भरत के बड़े भाई भगावन् रामचंद्र प्रवास के समय मेरी रक्षा करें ।।१५।।

मामुग्रधर्मादखिलात् प्रमादान्नारायणः पातु नरश्च हासात्।
दत्तस्त्वयोगादथ योगनाथः पायाद् गुणेशः कपिलः कर्मबन्धात् ।।१६।।

भगवान् नारायण मारण मोहन आदि भयंकर अभिचारों और सब प्रकार के प्रमादों से मेरी रक्षा करें ऋषिश्रेष्ठ नर गर्व से, योगेश्वर भगवान् दत्तात्रेय योग के विघ्नों से और त्रिगुणाधिपति भगवान् कपिल कर्मबन्धन से मेरी रक्षा करें ।।१६।।

सनत्कुमारोऽवतु कामदेवाद्धयशीर्षा मां पथि देवहेलनात्।
देवर्षिवर्यः पुरूषार्चनान्तरात् कूर्मो हरिर्मां निरयादशेषात् ।।१७।।

परमर्षि सनत्कुमार कामदेव से, हयग्रीव भगवान् मार्ग में चलते समय देवमूर्तियों को नमस्कार आदि न करने के अपराध से, देवर्षि नारद सेवापराधों से और भगवान् कच्छप सब प्रकार के नरकों से मेरी रक्षा करें ।।१७।।

धन्वन्तरिर्भगवान् पात्वपथ्याद् द्वन्द्वाद् भयादृषभो निर्जितात्मा।
यज्ञश्च लोकादवताज्जनान्ताद् बलो गणात् क्रोधवशादहीन्द्रः ।।१८।।

भगवान् धन्वन्तरि कुपथ्य से, जितेन्द्र भगवान् ऋषभदेव सुख-दुःख आदि भयदायक द्वन्द्वों से, यज्ञ भगवान् लोकापवाद से, बलरामजी मनुष्यकृत कष्टों से और श्रीशेषजी क्रोधवशनामक सर्पों के गणों से मेरी रक्षा करें ।।१८।।

द्वैपायनो भगवानप्रबोधाद् बुद्धस्तु पाखण्डगणात् प्रमादात्।
कल्किः कलेः कालमलात् प्रपातु धर्मावनायोरूकृतावतारः ।।१९।।

भगवान् श्रीकृष्णद्वेपायन व्यासजी अज्ञान से तथा बुद्धदेव पाखण्डियों से और प्रमाद से मेरी रक्षा करें धर्म-रक्षा करने वाले महान अवतार धारण करने वाले भगवान् कल्कि पाप-बहुल कलिकाल के दोषों से मेरी रक्षा करें ।।१९।।

मां केशवो गदया प्रातरव्याद् गोविन्द आसंगवमात्तवेणुः ।
नारायण प्राह्ण उदात्तशक्तिर्मध्यन्दिने विष्णुररीन्द्रपाणिः ।।२०।।

प्रातःकाल भगवान् केशव अपनी गदा लेकर, कुछ दिन चढ़ जाने पर भगवान् गोविन्द अपनी बांसुरी लेकर, दोपहर के पहले भगवान् नारायण अपनी तीक्ष्ण शक्ति लेकर और दोपहर को भगवान् विष्णु चक्रराज सुदर्शन लेकर मेरी रक्षा करें ।।२०।।

देवोsपराह्णे मधुहोग्रधन्वा सायं त्रिधामावतु माधवो माम्।
दोषे हृषीकेश उतार्धरात्रे निशीथ एकोsवतु पद्मनाभः ।।२१।।

तीसरे पहर में भगवान् मधुसूदन अपना प्रचण्ड धनुष लेकर मेरी रक्षा करें सांयकाल में ब्रह्मा आदि त्रिमूर्तिधारी माधव, सूर्यास्त के बाद हृषिकेश, अर्धरात्रि के पूर्व तथा अर्ध रात्रि के समय अकेले भगवान् पद्मनाभ मेरी रक्षा करें ।।२१।।

श्रीवत्सधामापररात्र ईशः प्रत्यूष ईशोऽसिधरो जनार्दनः।
दामोदरोऽव्यादनुसन्ध्यं प्रभाते विश्वेश्वरो भगवान् कालमूर्तिः ।।२२।।

रात्रि के पिछले प्रहर में श्रीवत्सलाञ्छन श्रीहरि, उषाकाल में खड्गधारी भगवान् जनार्दन, सूर्योदय से पूर्व श्रीदामोदर और सम्पूर्ण सन्ध्याओं में कालमूर्ति भगवान् विश्वेश्वर मेरी रक्षा करें ।।२२।।

चक्रं युगान्तानलतिग्मनेमि भ्रमत् समन्ताद् भगवत्प्रयुक्तम्।
दन्दग्धि दन्दग्ध्यरिसैन्यमासु कक्षं यथा वातसखो हुताशः ।।२३।।

सुदर्शन ! आपका आकार चक्र ( रथ के पहिये ) की तरह है आपके किनारे का भाग प्रलयकालीन अग्नि के समान अत्यन्त तीव्र है। आप भगवान् की प्रेरणा से सब ओर घूमते रहते हैं जैसे आग वायु की सहायता से सूखे घास-फूस को जला डालती है, वैसे ही आप हमारी शत्रुसेना को शीघ्र से शीघ्र जला दीजिये, जला दीजिये ।।२३।।

गदेऽशनिस्पर्शनविस्फुलिङ्गे निष्पिण्ढि निष्पिण्ढ्यजितप्रियासि।
कूष्माण्डवैनायकयक्षरक्षोभूतग्रहांश्चूर्णय चूर्णयारीन् ।।२४।।

कौमुद की गदा ! आपसे छूटने वाली चिनगारियों का स्पर्श वज्र के समान असह्य है आप भगवान् अजित की प्रिया हैं और मैं उनका सेवक हूँ इसलिए आप कूष्माण्ड, विनायक, यक्ष, राक्षस, भूत और प्रेतादि ग्रहों को अभी कुचल डालिये, कुचल डालिये तथा मेरे शत्रुओं को चूर चूर कर दिजिये ।।२४।।

त्वं यातुधानप्रमथप्रेतमातृपिशाचविप्रग्रहघोरदृष्टीन्।
दरेन्द्र विद्रावय कृष्णपूरितो भीमस्वनोऽरेर्हृदयानि कम्पयन् ।।२५।।

शङ्खश्रेष्ठ ! आप भगवान् श्रीकृष्ण के फूँकने से भयंकर शब्द करके मेरे शत्रुओं का दिल दहला दीजिये एवं यातुधान, प्रमथ, प्रेत, मातृका, पिशाच तथा ब्रह्मराक्षस आदि भयावने प्राणियों को यहाँ से तुरन्त भगा दीजिये ।।२५।।

त्वं तिग्मधारासिवरारिसैन्यमीशप्रयुक्तो मम छिन्धि छिन्धि।
चक्षूंषि चर्मञ्छतचन्द्र छादय द्विषामघोनां हर पापचक्षुषाम् ।।२६।।

भगवान् की श्रेष्ठ तलवार ! आपकी धार बहुत तीक्ष्ण है आप भगवान् की प्रेरणा से मेरे शत्रुओं को छिन्न-भिन्न कर दिजिये। भगवान् की प्यारी ढाल ! आपमें सैकड़ों चन्द्राकार मण्डल हैं आप पापदृष्टि पापात्मा शत्रुओं की आँखे बन्द कर दिजिये और उन्हें सदा के लिये अन्धा बना दीजिये ।।२६।।

यन्नो भयं ग्रहेभ्योऽभूत् केतुभ्यो नृभ्य एव च।
सरीसृपेभ्यो दंष्ट्रिभ्यो भूतेभ्योंऽहोभ्य एव वा ।।२७।।

सर्वाण्येतानि भगवन्नामरूपास्त्रकीर्तनात्।
प्रयान्तु संक्षयं सद्यो ये नः श्रेयः प्रतीपकाः ।।२८।।

सूर्य आदि ग्रह, धूमकेतु (पुच्छल तारे ) आदि केतु, दुष्ट मनुष्य, सर्पादि रेंगने वाले जन्तु, दाढ़ोंवाले हिंसक पशु, भूत-प्रेत आदि तथा पापी प्राणियों से हमें जो-जो भय हो और जो हमारे मङ्गल के विरोधी हों वे सभी भगावान् के नाम, रूप तथा आयुधों का कीर्तन करने से तत्काल नष्ट हो जायें ।।२७-२८।।

गरूड़ो भगवान् स्तोत्रस्तोभश्छन्दोमयः प्रभुः।
रक्षत्वशेषकृच्छ्रेभ्यो विष्वक्सेनः स्वनामभिः ।।२९।।

बृहद्, रथन्तर आदि सामवेदीय स्तोत्रों से जिनकी स्तुति की जाती है, वे वेदमूर्ति भगवान् गरूड़ और विष्वक्सेनजी अपने नामोच्चारण के प्रभाव से हमें सब प्रकार की विपत्तियों से बचायें।।२९।।

सर्वापद्भ्यो हरेर्नामरूपयानायुधानि नः।
बुद्धीन्द्रियमनः प्राणान् पान्तु पार्षदभूषणाः ।।३०।।

श्रीहरि के नाम, रूप, वाहन, आयुध और श्रेष्ठ पार्षद हमारी बुद्धि , इन्द्रिय , मन और प्राणों को सब प्रकार की आपत्तियों से बचायें ।।३०।।

यथा हि भगवानेव वस्तुतः सदसच्च यत्।
सत्येनानेन नः सर्वे यान्तु नाशमुपद्रवाः ।।३१।।

जितना भी कार्य अथवा कारण रूप जगत है, वह वास्तव में भगवान् ही है इस सत्य के प्रभाव से हमारे सारे उपद्रव नष्ट हो जायें ।।३१।।

यथैकात्म्यानुभावानां विकल्परहितः स्वयम्।
भूषणायुद्धलिङ्गाख्या धत्ते शक्तीः स्वमायया ।।३२।।

तेनैव सत्यमानेन सर्वज्ञो भगवान् हरिः।
पातु सर्वैः स्वरूपैर्नः सदा सर्वत्र सर्वगः ।।३३।।

जो लोग ब्रह्म और आत्मा की एकता का अनुभव कर चुके हैं, उनकी दृष्टि में भगवान् का स्वरूप समस्त विकल्पों से रहित है-भेदों से रहित हैं फिर भी वे अपनी माया शक्ति के द्वारा भूषण, आयुध और रूप नामक शक्तियों को धारण करते हैं यह बात निश्चित रूप से सत्य है इस कारण सर्वज्ञ, सर्वव्यापक भगवान् श्रीहरि सदा -सर्वत्र सब स्वरूपों से हमारी रक्षा करें ।।३२-३३।।
विदिक्षु दिक्षूर्ध्वमधः समन्तादन्तर्बहिर्भगवान् नारसिंहः।
प्रहापयँल्लोकभयं स्वनेन स्वतेजसा ग्रस्तसमस्ततेजाः ।।३४।।
जो अपने भयंकर अट्टहास से सब लोगों के भय को भगा देते हैं और अपने तेज से सबका तेज ग्रस लेते हैं, वे भगवान् नृसिंह दिशा -विदिशा में, नीचे -ऊपर, बाहर-भीतर सब ओर से हमारी रक्षा करें ।।३४

मघवन्निदमाख्यातं वर्म नारयणात्मकम्।
विजेष्यस्यञ्जसा येन दंशितोऽसुरयूथपान् ।।३५।।

देवराज इन्द्र ! मैने तुम्हें यह नारायण कवच सुना दिया है इस कवच से तुम अपने को सुरक्षित कर लो बस, फिर तुम अनायास ही सब दैत्य यूथपतियों को जीत कर लोगे ।।३५।।

एतद् धारयमाणस्तु यं यं पश्यति चक्षुषा।
पदा वा संस्पृशेत् सद्यः साध्वसात् स विमुच्यते ।।३६।।

इस नारायण कवच को धारण करने वाला पुरूष जिसको भी अपने नेत्रों से देख लेता है अथवा पैर से छू देता है, तत्काल समस्त भयों से से मुक्त हो जाता है ।।३६।।

न कुतश्चित भयं तस्य विद्यां धारयतो भवेत्।
राजदस्युग्रहादिभ्यो व्याघ्रादिभ्यश्च कर्हिचित् ।।३७।।

जो इस वैष्णवी विद्या को धारण कर लेता है, उसे राजा, डाकू, प्रेत, पिशाच आदि और बाघ आदि हिंसक जीवों से कभी किसी प्रकार का भय नहीं होता ।।३७।।

इमां विद्यां पुरा कश्चित् कौशिको धारयन् द्विजः।
योगधारणया स्वाङ्गं जहौ स मरूधन्वनि ।।३८।।

देवराज! प्राचीनकाल की बात है, एक कौशिक गोत्री ब्राह्मण ने इस विद्या को धारण करके योगधारणा से अपना शरीर मरूभूमि में त्याग दिया ।।३८।।

तस्योपरि विमानेन गन्धर्वपतिरेकदा।
ययौ चित्ररथः स्त्रीभिर्वृतो यत्र द्विजक्षयः ।।३९।।

जहाँ उस ब्राह्मण का शरीर पड़ा था, उसके उपर से एक दिन गन्धर्वराज चित्ररथ अपनी स्त्रियों के साथ विमान पर बैठ कर निकले ।।३९।।

गगनान्न्यपतत् सद्यः सविमानो ह्यवाक् शिराः।
स वालखिल्यवचनादस्थीन्यादाय विस्मितः।
प्रास्य प्राचीसरस्वत्यां स्नात्वा धाम स्वमन्वगात् ।।४०।।

वहाँ आते ही वे नीचे की ओर सिर किये विमान सहित आकाश से पृथ्वी पर गिर पड़े इस घटना से उनके आश्चर्य की सीमा न रही जब उन्हें बालखिल्य मुनियों ने बतलाया कि यह नारायण कवच धारण करने का प्रभाव है, तब उन्होंने उस ब्राह्मण देव की हड्डियों को ले जाकर पूर्ववाहिनी सरस्वती नदी में प्रवाहित कर दिया और फिर स्नान करके वे अपने लोक को चले गये ।।४०।।

।।श्रीशुक उवाच।।
य इदं शृणुयात् काले यो धारयति चादृतः।
तं नमस्यन्ति भूतानि मुच्यते सर्वतो भयात् ।।४१।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं परिक्षित् जो पुरूष इस नारायण कवच को समय पर सुनता है और जो आदर पूर्वक इसे धारण करता है, उसके सामने सभी प्राणी आदर से झुक जाते हैं और वह सब प्रकार के भयों से मुक्त हो जाता है ।।४१।।

एतां विद्यामधिगतो विश्वरूपाच्छतक्रतुः।
त्रैलोक्यलक्ष्मीं बुभुजे विनिर्जित्य मृधेऽसुरान् ।।४२।।

परीक्षित् ! शतक्रतु इन्द्र ने आचार्य विश्वरूपजी से यह वैष्णवी विद्या प्राप्त करके रणभूमि में असुरों को जीत लिया और वे त्रैलोक्यलक्ष्मी का उपभोग करने लगे ।।४२।।
।।इति श्रीनारायणकवचं सम्पूर्णम्।।
(
श्रीमद्भागवत स्कन्ध 6 , अ। 8 )