मंगलवार, 22 जुलाई 2014

शिवषडाक्षरस्तोत्रम्

!! शिवषडाक्षरस्तोत्रम् !!
Shiva Sadakshara Stotram

श्रीगणेशाय नम: ॥

ॐ कारं बिंदुसंयुक्तं नित्यं ध्यायंति योगिन: । कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नम: ॥ १ ॥
Salutations and salutations to letter “om”,Which is meditated as a letter Om with a dot,
Daily by great sages,
And leads them to fulfillment of desires,
And attainment of salvation.

नमंतिऋषयो दवा नमंत्यप्सरसां गणा: । नरा नमंतिदेवेशं नकाराय नमो नम: ॥ २ ॥
Salutations and salutations to letter “na”,Which is saluted by great sages,
Which is saluted by groups of divine maidens,
And which is saluted by men and the king of devas.

महादेवं महात्मानं महाध्यानपरायणम् । महापापहरं देव मकाराय नमो नम: ॥ ३ ॥
Salutations and salutations to letter “ma”,Which is saluted as greatest god,
Which is saluted by great souls,
Which is greatly meditated and read,
And which is the stealer of all sins.

शिवंशांतं जगन्नाथं लोकारककनुग्रहम् । शिवमेकपदं नित्यं शिकाराय नमो नम: ॥ ४ ॥
Salutations and salutations to letter “Shi”,Which is Lord Shiva,
Who is the abode of peace,
Who is the lord of the universe,
Who is the one who blesses the world,
And which is the one word that is eternal.

वाहनं वृषभो यस्य वासुकि: कंठभूषणम् । वामे शक्तिधरं देवं वकाराय नमो नम: ॥ ५ ॥
Salutations and salutations to letter “va”,Which the God who holds in his left Goddess Shakthi,
And who rides on a bull,
And wears on his neck the snake Vasuki.

यत्र यत्र स्थितो देव: सर्वव्यापी महेश्वर : । यो गुरु सर्वदेवानां यकाराय नमो नम: ॥ ६ ॥
Salutations and salutations to letter “ya”,Which is the teacher of all the devas,
Who exists wherever gods exist,
And who is the great God spread everywhere

षडक्षरमिदं स्तोत्रं य: पठेच्छिवसंनिधौ । शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते ॥ ७ ॥

If one reads this prayer of six letters,In front of God shiva,
He would reach the world of Shiva,
And be always happy with him.

रविवार, 13 जुलाई 2014

शिव स्तोत्रम्




हाउस ऑफ़ गॉड -पूजाघर




पूजा स्थल अगर वास्तु सम्मत हो तो अधिक शुभ फल देता है और जीवन के दोष समाप्त होते हैं। अधिकांश लोग पूजाघर के निर्माण में वास्तु नियमों की उपेक्षा करते हैं लेकिन कुछ बहुत छोटे उपायों के जरिए यह किया जा सकता है। ऐसे ही कुछ महत्वपूर्ण सुझाव।
1. पूजाघर में कलश, गुंबद इत्यादि नहीं बनाना चाहिए।
2. पूजाघर में किसी प्राचीन मंदिर से लाई गई प्रतिमा या स्थिर प्रतिमा को स्थापित नहीं करना चाहिए।
3. पूजाघर में यदि हवन की व्यवस्था है तो वह हमेशा आग्नेय कोण में ही की जाना चाहिए।
4. पूजास्थल में कभी भी धन या बहुमूल्य वस्तुएं नहीं रखनी चाहिए।
5. पूजन घर की दीवारों का रंग बहुत गहरा न होकर सफेद, हल्का पीला या हल्का नीला होना चाहिए।
6. पूजाघर का फर्श सफेद अथवा हल्का पीले रंग का होना चाहिए।
7. पूजाघर में ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन्द्र, सूर्य एवं कार्तिकेय का मुख पूर्व या पश्चिम दिशा की ओर होना चाहिए।
8. पूजाघर में गणेश, कुबेर, दुर्गा का मुख दक्षिण दिशा की ओर होना चाहिए।
9. पूजाघर में हनुमानजी का मुख नैर्ऋत्य कोण में होना चाहिए।
10. पूजाघर में प्रतिमाएं कभी भी प्रवेशद्वार के सम्मुख नहीं होना चाहिए।
11. पूजाघर के निकट एवं भवन के ईशान कोण में झाड़ू या कूडेदान आदि नहीं रखना चाहिए। संभव हो तो पूजा घर को साफ करने का झाड़ू-पोंछा भी अलग ही रखें। जिस कपड़े से भवन के अन्य हिस्से का पोंछा लगाया जाता हो उसे पूजाघर में उपयोग में न लाएं।
12. पूजाघर को सदैव स्वच्छ और साफ सुथरा रखें। पूजा के बाद और पूजा से पहले उसे नियमित रूप से साफ करें। पूजन सामग्री के बाद बचने वाला शेष तुरंत हटा लेना चाहिए।
13.पूजाघर कभी भी शयनकक्ष में नहीं बनवाना चाहिए। यदि परिस्थितिवश ऐसा करना ही पड़े तो वह शयनकक्ष विवाहितों के लिए नहीं होना चाहिए। अगर विवाहितों को भी उसी कक्ष में सोना पड़ता हो तो पूजास्थल को पट या पर्दे से ढंकना चाहिए अर्थात देवशयन करा देवें। लेकिन यह व्यवस्था तभी ठीक है जबकि स्थान का अभाव हो। यदि जगह की कमी नहीं है तो पूजाघर को शयनकक्ष में नहीं बनवाना चाहिए।
-,वास्तुशास्त्र और फेंगशुई के बारे में जो लोग जानते हैं उन्हें पता है कि इनके टिप्स आपकी ज़िंदगी को कितना खुशनुमा बना सकते हैं।
इसलिए आप भी इन टिप्स को आजमाकर अपने परिवार, व्यापार और दिनचर्या को और भी बेहतर बना सकते हैं।
1.तीन हरे पौधे मिट्टी के बर्तनों में घर के अंदर पूर्व दिशा में रखें। ध्यान रहे कि फेंगशुई में बोनसाई और कैक्टस को हानिकारक माना जाता है क्योंकि बोनसाई प्रगति में बाधक एवं कैक्टस हानिकारक होता है।
2.वास्तु के अनुसार घर के पूर्वोत्तर कोण में तालाब या फव्वारा या जलस्रोत शुभ होता है। फेंगशुई के अनुसार इसके पानी का प्रवाह घर की ओर होना चाहिए न कि बाहर की ओर।
3.घर के सदस्यों की दीर्घायु के लिए स्फटिक का बना हुआ एक कछुआ घर में पूर्व दिशा में रखें।
4.घर को नकारात्मक ऊर्जा से मुक्त रखने के लिए पूर्व दिशा में मिट्टी के एक छोटे से पात्र में नमक भर कर रखें
और हर चौबीस घंटे के बाद नमक बदल दें।
5. अपने ऑफिस में पूर्व दिशा में लकड़ी से बनी ड्रैगन की एक मूर्ति रखें। इससे ऊर्जा एवं उत्साह प्राप्त होंगे।
क्या आपको नौकरी और रोजगार में समस्या आ रही है? क्या आपको मनमाफिक नौकरी नहीं मिल रही है? तो हैरान होने की जरूरत नहीं, आप बस इन आसान उपायों को आजमा कर नौकरी मिलने में आ रही समस्याओं को दूर सकते हैं।
ऐसे में बस ध्यान रखें कि इन उपायाें काे आजमाना माह की शुक्ल पक्ष तिथि में शुरु करते हैं तो ज्यादा लाभ मिलता है।
1. भगवान विष्णु की आराधना करनी चाहिए। इससे जॉब से संबंधित कई समस्याएं दूर हो जाती हैं।
2. गुरुवार को किसी मंदिर में पीली वस्तुएं किसी ब्राह्मण को दान करने से भी आपको नौकरी जल्द मिलने की संभावना रहती है।
3. पीले चंदन का तिलक मस्तक पर धारण करना चाहिए।
4. हर सुबह नंगे पैर घास पर चलें। ताकि तनाव नहीं रहेगा और आप सकारात्मक ढंग से सोच पाएंगे।
5 . दाहिने हाथ की कलाई में एक पीला रेशमी धागा बांधें। ऐसा करने से भगवान विष्णु की कृपा आप पर हमेशा बनी रहती है।
6. जिस कुंए का जल प्रयोग में लिया जाता हो। उस कुएं में सोमवार गुरुवार, एकादशी पूर्णिमा के दिन दूध का अर्घ देते हैं तो बहुत जल्द लाभ मिलता है।
7. अगर आपकाे नौकरी मिलने में परेशानी आ रही है तो किसी गरीब को काला कंबल, मीठा-नमकीन किसी गरीब को दान करें।
6. रुद्राक्ष की 108 मनकों की माला को यदि आप गले में धारण करते हैं तो ध्यान रखें इस माला में हर मनके के बाद चांदी के टुकड़े पिरोए गए हों। वो आपको बहुत अच्छा लाभ दे सकता है।

7. चांदी के 4 ग्राम के एक चौकोर टुकड़े को अपने साथ रखें तो जो अपने कार्य क्षेत्र से असंतुष्टि होती है वह दूर हो जाती है। आपको आपके कार्य क्षेत्र में मनमाफिक स्थान मिलता है।

!! द्वादश ज्योतिर्लिंग स्तोत्र !!


                                                        !! द्वादश ज्योतिर्लिंग स्तोत्र !!
सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्। :उज्जयिन्यां महाकालमोङ्कारममलेश्वरम्॥1
परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशङ्करम्।:सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने॥2
वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे।:हिमालये तु केदारं घृष्णेशं च शिवालये॥3
एतानि ज्योतिर्लिङ्गानि सायं प्रात: पठेन्नर:।:सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति॥4

!! श्री शिवमहिम्न स्तोत्र !!



 आइये श्रावण माह में परम कृपालु परमपिता शिव जी से अपने जाने- अनजाने अपराधों के लिए क्षमा प्रार्थना करें |

!! श्री शिवमहिम्न स्तोत्र !!
महिम्नः पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी
स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः ।
अथाऽवाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावधि गृणन्‌
ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः॥ १॥
अतीतः पंथानं तव च महिमा वाङ्मनसयोः
अतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि।
स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः
पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः॥ २॥
वाचः परमममृतं निर्मितवतः
तव ब्रह्मन्‌ किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम्‌।
मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः
पुनामीत्यर्थेऽस्मिन्‌ पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता॥ ३॥
तवैश्वर्यं यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत्‌
त्रयीवस्तु व्यस्तं तिस्रुषु गुणभिन्नासु तनुषु।
अभव्यानामस्मिन्‌ वरद रमणीयामरमणीं
विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः॥ ४॥
किमीहः किंकायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं
किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च।
अतर्क्यैश्वर्ये त्वय्यनवसर दुःस्थो हतधियः
कुतर्कोऽयं कांश्चित्‌ मुखरयति मोहाय जगतः॥ ५॥
अजन्मानो लोकाः किमवयववन्तोऽपि जगतां
अधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति।
अनीशो वा कुर्याद्‌ भुवनजनने कः परिकरो
यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे॥ ६॥
त्रयी साङ्ख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति
प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च।
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिल नानापथजुषां
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव॥ ७॥
महोक्षः खट्वाङ्गं परशुरजिनं भस्म फणिनः
कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम्‌।
सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु भवद्भूप्रणिहितां
न हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति॥ ८॥
ध्रुवं कश्चित्‌ सर्वं सकलमपरस्त्वध्रुवमिदं
परो ध्रौव्याऽध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये।
समस्तेऽप्येतस्मिन्‌ पुरमथन तैर्विस्मित इव
स्तुवन्‌ जिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता॥ ९॥
तवैश्वर्यं यत्नाद्‌ यदुपरि विरिञ्चिर्हरिरधः
परिच्छेतुं यातावनलमनलस्कन्धवपुषः।
ततो भक्तिश्रद्धा-भरगुरु-गृणद्भ्यां गिरिश यत्‌
स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति॥ १०॥
अयत्नादासाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं
दशास्यो यद्बाहूनभृत रणकण्डू-परवशान्‌।
शिरःपद्मश्रेणी-रचितचरणाम्भोरुह-बलेः
स्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम्‌॥ ११॥
अमुष्य त्वत्सेवा-समधिगतसारं भुजवनं
बलात्‌ कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः।
अलभ्या पातालेऽप्यलसचलितांगुष्ठशिरसि
प्रतिष्ठा त्वय्यासीद्‌ ध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः॥ १२॥
यदृद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सतीं
अधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयत्रिभुवनः।
न तच्चित्रं तस्मिन्‌ वरिवसितरि त्वच्चरणयोः
न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः॥ १३॥
अकाण्ड-ब्रह्माण्ड-क्षयचकित-देवासुरकृपा
विधेयस्याऽऽसीद्‌ यस्त्रिनयन विषं संहृतवतः।
स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो
विकारोऽपि श्लाघ्यो भुवन-भय- भङ्ग- व्यसनिनः॥ १४॥
असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे
निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः।
स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत्‌
स्मरः स्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु पथ्यः परिभवः॥ १५॥
मही पादाघाताद्‌ व्रजति सहसा संशयपदं
पदं विष्णोर्भ्राम्यद्‌ भुज-परिघ-रुग्ण-ग्रह- गणम्‌।
मुहुर्द्यौर्दौस्थ्यं यात्यनिभृत-जटा-ताडित-तटा
जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता॥ १६॥
वियद्व्यापी तारा-गण-गुणित-फेनोद्गम-रुचिः
प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते।
जगद्द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमिति
अनेनैवोन्नेयं धृतमहिम दिव्यं तव वपुः॥ १७॥
रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो
रथाङ्गे चन्द्रार्कौ रथ-चरण-पाणिः शर इति।
दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बर-विधिः
विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः॥ १८॥
हरिस्ते साहस्रं कमल बलिमाधाय पदयोः
यदेकोने तस्मिन्‌ निजमुदहरन्नेत्रकमलम्‌।
गतो भक्त्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषः
त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागर्ति जगताम्‌॥ १९॥
क्रतौ सुप्ते जाग्रत्‌ त्वमसि फलयोगे क्रतुमतां
क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते।
अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदान-प्रतिभुवं
श्रुतौ श्रद्धां बध्वा दृढपरिकरः कर्मसु जनः॥ २०॥
क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्तनुभृतां
ऋषीणामार्त्विज्यं शरणद सदस्याः सुर-गणाः।
क्रतुभ्रंशस्त्वत्तः क्रतुफल-विधान-व्यसनिनः
ध्रुवं कर्तुः श्रद्धा-विधुरमभिचाराय हि मखाः॥ २१॥
प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं
गतं रोहिद्‌ भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा।
धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममुं
त्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः॥ २२॥
स्वलावण्याशंसा धृतधनुषमह्नाय तृणवत्‌
पुरः प्लुष्टं दृष्ट्वा पुरमथन पुष्पायुधमपि।
यदि स्त्रैणं देवी यमनिरत-देहार्ध-घटनात्‌
अवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतयः॥ २३॥
श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचाः सहचराः
चिता-भस्मालेपः स्रगपि नृकरोटी-परिकरः।
अमङ्गल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं
तथापि स्मर्तॄणां वरद परमं मङ्गलमसि॥ २४॥
मनः प्रत्यक्चित्ते सविधमविधायात्त-मरुतः
प्रहृष्यद्रोमाणः प्रमद-सलिलोत्सङ्गति-दृशः।
यदालोक्याह्लादं ह्रद इव निमज्यामृतमये
दधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत्‌ किल भवान्‌॥ २५॥
त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवहः
त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च।
परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रति गिरं
न विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत्‌ त्वं न भवसि॥ २६॥
त्रयीं तिस्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरान्‌
अकाराद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत्‌ तीर्णविकृति।
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः
समस्तं व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम्‌॥ २७॥
भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सहमहान्‌
तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम्‌।
अमुष्मिन्‌ प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि
प्रियायास्मैधाम्ने प्रणिहित-नमस्योऽस्मि भवते॥ २८॥
नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमः
नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः।
नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमः
नमः सर्वस्मै ते तदिदमतिसर्वाय च नमः॥ २९॥
बहुल-रजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नमः
प्रबल-तमसे तत्‌ संहारे हराय नमो नमः।
जन-सुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ मृडाय नमो नमः
प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नमः॥ ३०॥
कृश-परिणति-चेतः क्लेशवश्यं क्व चेदं
क्व च तव गुण-सीमोल्लङ्घिनी शश्वदृद्धिः।
इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद्‌
वरद चरणयोस्ते वाक्य-पुष्पोपहारम्‌॥ ३१॥
असित-गिरि-समं स्यात्‌ कज्जलं सिन्धु-पात्रे
सुर-तरुवर-शाखा लेखनी पत्रमुर्वी।
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति॥ ३२॥
असुर-सुर-मुनीन्द्रैरर्चितस्येन्दु-मौलेः
ग्रथित-गुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य।
सकल-गण-वरिष्ठः पुष्पदन्ताभिधानः
रुचिरमलघुवृत्तैः स्तोत्रमेतच्चकार॥ ३३॥
अहरहरनवद्यं धूर्जटेः स्तोत्रमेतत्‌ पठति
परमभक्त्या शुद्ध-चित्तः पुमान्‌ यः।
स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्र
प्रचुरतर-धनायुः पुत्रवान्‌ कीर्तिमांश्च॥ ३४॥
महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः।
अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम्‌॥ ३५॥
दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिकाः क्रियाः।
महिम्नस्तव पाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्‌॥ ३६॥
कुसुमदशन-नामा सर्व-गन्धर्व-राजः
शशिधरवर-मौलेर्देवदेवस्य दासः।
स खलु निज-महिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात्‌
स्तवनमिदमकार्षीद्‌ दिव्य-दिव्यं महिम्नः॥ ३७॥
सुरगुरुमभिपूज्य स्वर्ग-मोक्षैक-हेतुं
पठति यदि मनुष्यः प्राञ्जलिर्नान्य-चेताः।
व्रजति शिव-समीपं किन्नरैः स्तूयमानः
स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम्‌॥ ३८॥
आसमाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गन्धर्व-भाषितम्‌।
अनौपम्यं मनोहारि सर्वमीश्वरवर्णनम्‌॥ ३९॥
इत्येषा वाङ्मयी पूजा श्रीमच्छङ्कर-पादयोः।
अर्पिता तेन देवेशः प्रीयतां मे सदाशिवः॥ ४०॥
तव तत्त्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वर।
यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः॥ ४१॥
एककालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेन्नरः।
सर्वपाप-विनिर्मुक्तः शिव लोके महीयते॥ ४२॥
श्री पुष्पदन्त-मुख-पङ्कज-निर्गतेन
स्तोत्रेण किल्बिष-हरेण हर-प्रियेण।
कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेन
सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः॥ ४३॥
॥ इति श्री पुष्पदन्त विरचितं शिवमहिम्नःस्तोत्रं समाप्तम्‌॥

शनिवार, 12 जुलाई 2014

*गौ सेवा एवं गौ रक्षा हमारा धर्म *


अनादिकाल से मानवजाति गोमाता की सेवा कर अपने  जीवन को सुखी, सम्रद्ध, निरोग, ऐश्वर्यवान एवं सौभाग्यशाली बनाती चली आ रही है. गोमाता की सेवा के माहात्म्य से शास्त्र भरे पड़े है. आईये शास्त्रों द्वार वर्णित गौ सेवा के कल्याणकारी कुछ फलों को जाने  -
    नोट :यहाँ हमारा गौ से तात्पर्य विशुद्ध भारतीय गौ वंश से है न कि संकरित विदेशी गौ वंश से |

गौ को घास खिलाना कितना पुण्यदायी 
    तीर्थ स्थानों में जाकर स्नान दान से जो पुन्य प्राप्त होता है, ब्राह्मणों को भोजन कराने से जिस पुन्य  की प्राप्ति होती है, सम्पूर्ण व्रत-उपवास, तपस्या, महादान तथा हरी की आराधना करने पर जो पुन्य  प्राप्त होता है, सम्पूर्ण प्रथ्वी की परिक्रमा, सम्पूर्ण वेदों के पढने तथा समस्त यज्ञो के करने से मनुष्य जिस पुन्य को पाता है, वही पुन्य  बुद्धिमान पुरुष गौओ को खिलाकर पा लेता है.


गौ सेवा से वरदान की प्राप्ति
    जो पुरुष गौओ की सेवा और सब प्रकार से उनका अनुगमन करता है, उस पर संतुष्ट होकर गौए उसे अत्यंत दुर्लभ वर प्रदान करती है.


गौ सेवा से मनोकामनाओ की पूर्ती
    गौ की सेवा याने गाय को चारा डालना, पानी पिलाना, गाय की पीठ सहलाना, रोगी गाय का ईलाज करवाना आदि करनेवाले मनुष्य पुत्र, धन, विद्या, सुख आदि जिस-जिस वस्तु की ईच्छा करता है, वे सब उसे प्राप्त हो जाती है, उसके लिए कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं होती.


    भगवान् शिव कहते है-हे पार्वती! सम्पूर्ण गौए जगत में श्रेष्ठ है. वे लोगो को जीविका देने  के कार्य  में प्रवृत  हुई है. वे मेरे  अधीन  है और चन्द्रमा के अमृतमय द्रव से प्रकट हुई है. वे  सौम्य, पुन्मयी, कामनाओं की पूर्ती करने वाली तथा प्राणदायिनी है. इसलिए पुन्य प्राप्ति की इच्छा  वालो  को सदैव गायो की पूजा, सेवा (घास आदि खिलाना , पानी पिलाना, रोगी गाय का ईलाज कराना आदि-आदि) करनी चाहिए.


भूमि दोष समाप्त होते है
    गौओ का समुदाय जहा बैठकर  निर्भयतापूर्वक साँस लेता है, उस स्थान की शोभा को बाधा देता है और वह के सारे पापो को खीच लेता है.


सबसे बड़ा तीर्थ गौ सेवा
    देवराज इंद्र कहते है- गौओ में सभी तीर्थ निवास करते है. जो मनुष्य गाय की पीठ छोटा है और उसकी पूछ को नमस्कार करता है वह मानो तीर्थो में तीन दिनों तक उपवास पूर्वक रहकर स्नान कर देता है.


असार संसार छेह सार पदार्थ
   भवान विष्णु, एकादशी व्रत, गंगानदी, तुलसी, ब्रह्मण और गौए - ये ६ इस दुर्गम असार संसार से मुक्ति दिलाने वाले है.


मंगल होगा
    जिसके घर बछड़े सहित एक भी गाय होती है, उसके समस्त पाप्नाष्ट हो जाते है और उसका मंगल होता है. जिसके घर में एक भी गौ दूध देने वाले न हो उसका मंगल कैसे हो सकता है और उसके अमंगल का नाश कैसे हो सकता है.


ऐसा न करे
    गौओ, ब्राह्मणों तथा रोगियों को जब  कुछ दिया  जाता  है उस समय  जो न देने की सलाह  देते है. वे मरकर प्रेत बनते है.


गोपूजा - विष्णुपूजा
    भगवान् विष्णु देवराज इन्द्र से कहते है के हे देवराज! जो मनुष्य अश्वत्थ वृक्ष, गोरोचन और गौ की सदा पूजा सेवा करता है, उसके द्वारा देवताओं, असुरो और मनुष्यों सहित सम्पूर्ण जगत की भी पूजा हो जाते है. उस रूप में उसके द्वारा की हुई पूजा को मई यथार्थ रूप से अपनी पूजा मानकर ग्रहण करता हूँ.


गोधूली महान पापो की नाशक है.
    गायो के खुरो से उठी हुई धूलि, धान्यो की धूलि तथा पुट के शरीर में लगी धूलि अत्यंत पवित्र एवं महापापो का नाश करने वाले है.


चारो सामान है
    नित्य भागवत का पाठ करना, भगवान् का चिंतन, तुलसी को सीचना और गौ की सेवा करना ये चारो सामान है


गो सेवा के चमत्कार
    गौओ के दर्शन, पूजन, नमस्कार, परिक्रमा, गाय को सहलाने, गोग्रास देने तथा जल पिलाने आदि सेवा के द्वारा मनुष्य दुर्लभ सिधिया प्राप्त होती है. 
    गो सेवा से मनुष्य की मनोकामनाए जल्द ही पूरी हो जाती है.
    गाय के शरीर में सभी देवी-देवता, ऋषि मुनि, गंगा आदि सभी नदिया तथा तीर्थ निवास करते है. इसीलिये गोसेवा से सभी की सेवा का फल मिल जाता है.
    गे को प्रणाम करने से - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारो की प्राप्ति होती है. अतः सुख की इच्छा रखने वाले बुद्धिमान पुरुष को गायो को निरंतर प्रणाम करना चाहिए.
    ऋषियों ने सर्वश्रेष्ठ और सर्वप्रथम किया जाने वाला धर्म गोसेवा को ही बताया है.
    प्रातःकाल सर्वप्रथम गाय का दर्शन करने से जेवण उन्नत होता है.
    यात्रा पर जाने से पहले गाय का दर्शन करके जाने से यात्रा मंगलमय होती है.
    जिस स्थान पर गाये रहती है, उससे काफी दूरतक का वातावरण शुद्ध एवं पवित्र हो है, अतः गोपालन करना चाहिए.
    भगवान् विष्णु भी गोसेवा से सर्वाधिक प्रसन्न होते है, गोसेवा करनेवाले कोअनायास ही गोलोक की प्राप्ति हो जाती है.
    प्रातःकाल स्नान के पश्चात अर्व्प्रथम गाय का स्पर्श करने से पाप नष्ट होते है.


गोदुग्ध - धरती का अमृत
    गाय का दूश धरती का अमृत है. विश्व में गोद्म्ग्ध के सामान पौष्टिक आहार दूसरा कोई नहीं है. गाय के दूध को पूर्ण आहार माना गया है. यह रोगनिवारक भी है. गाय के दूध का कोई विकल्प नहीं है. यह एक दिव्य पदार्थ है.
    वैसे भी गाय के दूध का सेवन करना गोमाता की महान सेवा करना ही है. क्योकि इससे गोपालन को बढ़ावा मिलता है और अप्रत्यक्ष रूप से गाय की रक्षा ही होती है. गाय के दूध का सेवन कर गोमाता की रक्षा में योगदान तो सभी दे ही सकते है.


पंचगव्य
    गाय के दूध, दही, घी, गोबर रस, गो-मूत्र का एक निश्चित अनुपात में मिश्रण पंचगव्य कहलाता है. पंचगव्य का सेवन करने से मनुष्य के समस्त पाप उसी प्रकार भस्म हो जाते है, जैसे जलती आग से लकड़ी भस्म हो जाते है.
    मानव शरीर ऐसा कोई रोग नहीं है, जिसका पंचगव्य से उपचार  नहीं हो   सकता. पंचगव्य से पापजनित  रोग भी नष्ट हो जाते है.


    यदि उपर्युक्त सूत्रों पर विचार किया जाये  तो थोड़े समय में देश में गोक्रन्ती  हो सकती है और यदि गो-दुग्ध सेवन के प्रचार को अधिक महत्त्व दिया जाय तो गोवध तो अपने आप ही धीरे-धीरे बंद हो जायगा|