शनिवार, 12 जुलाई 2014

यज्ञोपवीत संस्कार

,,,,,,,,,,,,,,यज्ञोपवीत (जनेऊ) एक संस्कार है। इसके बाद ही 'द्विज' बालक को यज्ञ तथा स्वाध्याय करने का अधिकार प्राप्त होता है।
यज्ञोपवीत धारण करने के मूल में एक वैज्ञानिक पृष्ठभूमि भी है। शरीर के पृष्ठभाग में पीठ पर पाई जाने वाली एक प्राकृतिक रेखा है जो विद्युत प्रवाह की तरह कार्य करती है। यह रेखा दाएं कंधे से लेकर कटि प्रदेश तक स्थित होती है। यह नैसर्गिक रेखा अति सूक्ष्म नस है। इसका स्वरूप लाजवंती वनस्पति की तरह होता है।
यदि यह नस संकुचित अवस्था में हो तो मनुष्य काम-क्रोध आदि विकारों से दूर रहता है। अगर आप के कंधे पर यज्ञोपवीत( जनेऊ) है तो प्राकृतिक नस में निहित विकार कम हो जाते हैं।
इसीलिए सभी धर्मों में किसी न किसी कारणवश यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। सारनाथ की अति प्राचीन बुद्ध प्रतिमा का सूक्ष्म निरीक्षण करने से उसकी छाती पर यज्ञोपवीत की सूक्ष्म रेखा दिखाई देती है। यज्ञोपवीत केवल धर्माज्ञा ही नहीं बल्कि आरोग्य का पोषक भी है, अतएव इसे सदैव धारण करना चाहिए।
उपनयन संस्कार
उपनयन संस्कार जिसमें जनेऊ पहना जाता है यह विद्यारंभ के समय पहना जाता है। मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते हैं। सूत से बने धागे से उपनयन संस्कार किया जाता है। यह पवित्र धागा जिसे यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति बाएं कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनाया जाता है।
यज्ञ द्वारा संस्कार किया गया उपवीत, यज्ञसूत्र या जनेऊ यज्ञोपवीत एक विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से बनाया जाता है। इसमें सात ग्रन्थियां( गांठ) लगायी जाती हैं ।
ब्राह्मणाें के यज्ञोपवीत में ब्रह्मग्रंथि होती है। तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है। अपवित्र होने पर यज्ञोपवीत बदल लिया जाता है। बिना यज्ञोपवीत धारण ‍किये अन्न जल ग्रहण नहीं किया जाता। यज्ञोपवीत धारण करने का मन्त्र है।
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात।

आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।




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