गुरुवार, 9 जुलाई 2015

सावन मास और शिव आराधना ।

सावन मास और शिव आराधना ।
शिव से सहज स्नेह :-भगवान शिव में अनुपम सामंजस्य, अद्भुत समन्वय के दर्शन होने से हमें उनसे शिक्षा और स्नेह ग्रहण कर विश्व-कल्याण के महान कार्य में प्रवृत्त होना चाहिए- यही इस परम स्नेह का मानव जाति के प्रति दिव्य संदेश है। शिव अर्धनारीश्वर होकर भी काम विजेता हैं, गृहस्थ होते हुए भी परम विरक्त हैं, हलाहल पान करने के कारण नीलकण्ठ होकर भी विष से अलिप्त हैं, ऋद्धि-सिद्धियों के स्वामी होकर भी उनसे विलग हैं, उग्र होते हुए भी सौम्य हैं, अकिंचन होते हुए भी सर्वेश्वर हैं।

भयंकर विषधर नाग और सौम्य चन्द्रमा दोनों ही उनके आभूषण हैं, मस्तक में प्रलयकालीन अग्नि और सिर पर परम शीतल गंगाधारा उनके अनुपम श्रृंगार है। उनके यहां वृषभ और सिंह तथा मयूर एवं सर्प का सहज वैर भुलाकर साथ-साथ क्रीड़ा करना समस्त विरोधी भावों के विलक्षण समन्वय की शिक्षा देता है। इससे विश्व को सह-अस्तित्व अपनाने की अद्भुत शिक्षा और स्नेह मिलती है।
शिव से सहज स्नेह का तात्पर्य ही विरोधाभास को सहज स्वीकारते हुवे समन्वय द्रष्टिकोण से विश्व के प्रति स्नेह ही शिव स्नेह का सहज मार्ग
भगवान शिव स्नेह वत्सल कहलाते हैं। जिसका अर्थ है कि वह भक्त को बहुत स्नेह करने वाले हैं व्यावहारिक नजरिए से स्नेह विश्वास, ऊर्जा और इरादों में शक्ति देने वाला होता है माता-पिता या बड़ों का स्नेह जिस तरह हौंसला और आगे बढते रहने को प्रेरित करता है
इसी तरह भक्त की भक्ति से जब भगवान (शिव) का स्नेह बरसता है, तो तन, मन या धन के रूप में मिलने वाले स्नेह से सुख और आनंद की कमी नहीं रह जाती है शिव के भक्तों से स्नेह और कल्याण भाव ने ही गंगा के भीषण प्रवाह को जटाओं में समेटकर पावन व ज्ञान रूपी गंगा की धारा को जगत के लिये कल्याणकारी बना दिया
यही कारण है कि शिव उपासना में गंगाजल अर्पित करने का महत्व है शिव भक्ति आसान भी है और शीघ्र फल देने वाली भी।
भारतीयों के लिए शिव अपने ही समग्र अखण्ड रूप बनकर बसे हुए हैं, शिव स्नेह पाने के लिए मा की कृपा मा की स्नेह पाना होगा या वह अपनी हो दूसरों की हो मा होने वाली हो अपनी जन्म भूमि हो उन दूसरों के जन्म भूमि हो जो दुसरे दुसरे लगते नहीं वह माँ शक्ति का कोई भी रूप हो सीता हो राधा हो पारवती हो दुर्गा हो सरस्वती हो अपनी वाक् -परम्परा हो अपनी कला -परम्परा हो उसके स्नेह की पात्रता ही शिव सान्निध्य देती है
परमात्मा शिव की स्नेहयुक्त स्मृति में रहना ही वास्तविक योग है जैसा की चित्र में दिखलाया गया है कई मनुष्य योग को बहुत कठिन समझते है, वे कई प्रकार की हाथ क्रियाएं तप अथवा प्राणायाम करते रहते है लेकिन वास्तव में "योग" अति सहज है जैसे की एक बच्चे को अपने देहधारी पिता की सहज और स्वत: याद रहती है वैसे ही आत्मा को अपने पिता परमात्मा की याद स्वत: और सहज होनी चाहिए इस अभ्यास के लिए यह सोचना चाहिए कि- " मैं एक आत्मा हूँ, मैं ज्योति -बिंदु परमात्मा शिव की अविनाशी संतान हूँ जो परमपिता ब्रह्मलोक के वासी है, शिव स्नेह प्रकृति का स्नेह और उदारता अपने परमात्म-स्वभाव से आया है। जीव का भी पारमार्थिक स्वभाव स्नेह और उदारता है लेकिन स्वार्थपूर्ण कर्म करता है तो स्नेह और उदारता संकीर्णता और शुष्कता में बदल जाती है। आदमी जब भीतर से संकीर्ण और शुष्क होता है तो उसके कर्म बाँधने वाले होते हैं। भीतर से जब स्नेह और उदारता से भर जाता है तो उसके कर्म परमात्मा से मिलाने वाले होते हैं। स्नेह और उदारता से किये जाने वाले यज्ञ-कर्म हैं। संकीर्णता से किये जाने वाले कर्म बन्धनकारक कर्म हैं। शिव प्रति स्नेह का अर्थ स्वयं हो जाएं शिव-शिवमय होने का अर्थ स्वयं शिव होना है कोई भी व्यक्ति प्रत्येक के लिए कल्याणकारी हो सबका प्रिय हो वंचित समाज के प्रति स्नेह भाव रखता हो तो वह शिव हो सकता है। यदि जगत को कल्याणकारी बनाना है, तो प्रत्येक मानव को शिव बनने का प्रयास करना चाहिए। यही निदान है एक सुरक्षित विश्व का।शिव भाव वाले व्यक्ति समस्त विश्व के हित को अपना हित मानते हैं। कोई भी गैर नहीं, किसी से बैर नहीं के भाव उसे अखंड और अनंत प्रकृति चक्र से जोड देते हैं। तब वह एक मानव मात्र न होकर शिव का भाग हो जाता है। यह शिव स्नेह भाव का ही व्यावहारिक रूप है।
शिव स्नेह और जीवन का रस है प्रेम। हर प्राणी के प्रति स्नेह-भाव से पूर्ण हृदय होना ही शिव के प्रति ‘कावड़’ सर्मपण है। जैसे जल मिट्टी को आपस में संश्लेषित कर देता है वैसे ही प्राणियों को पास में लाता है स्नेह। स्नेह से सारा संसार अपना संबंधी नज़र आता है, अपने और पराये का भेद समाप्त हो जाता |





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