शनिवार, 27 अगस्त 2016

भगवान श्री, आपने कहा है कि कृष्ण न मित्र बनाते, न शत्रु बनाते।



"भगवान श्री, आपने कहा है कि कृष्ण न मित्र बनाते, न शत्रु बनाते।
 लेकिन अपने बालसखा सुदामा से उनका इतना प्रेम है कि सिंहासन छोड़कर उसके लिए भागे आते हैं। और तीन मुट्ठी चावल पाकर उसे त्रिलोक का वैभव दे डालते हैं। कृपया, कृष्ण-सुदामा के इस विशेष मैत्री-संबंध पर प्रकाश डालें।'
विशिष्ट मैत्री-संबंध नहीं है, बस मैत्री-संबंध है। यहां भी हमारी ही तकलीफ है। हमें लगता है कि तीन मुट्ठी चावल के लिए तीनों लोक का साम्राज्य दे डालना, जरा ज्यादा है। लेकिन सुदामा के लिए तीन मुट्ठी चावल देना जितना कठिन था, कृष्ण के लिए तीन लोकों का साम्राज्य देना उतना कठिन नहीं है। उसका हमें खयाल नहीं है। सुदामा के लिए तीन मुट्ठी चावल भी बहुत बड़ी बात थी, बहुत मुश्किल था। इसमें अगर दान दिया है तो सुदामा ने ही दिया है। इसमें दान कृष्ण का नहीं है। लेकिन आमतौर से हमें यही दिखाई पड़ता रहा है कि दान दिया है कृष्ण ने। सुदामा क्या लाया था! तीन मुट्ठी चावल ही लाया था! फटे कपड़े में बांधकर!
लेकिन हमें पता नहीं कि सुदामा कितनी दीनता में जी रहा था। उसके लिए एक दाना भी जुटाना और लाना बड़ा कठिन था। और कृष्ण के लिए तीन लोक का साम्राज्य देना भी कठिन नहीं था। इसलिए कोई कृष्ण ने सुदामा पर उपकार कर दिया हो, इस भूल में कोई न रहे। कृष्ण ने सिर्फ "रिसपांस', उत्तर दिया है और उत्तर बहुत बड़ा नहीं है। बड़े-से-बड़ा जो हो सकता था, उतना है। इसलिए तीन लोक के साम्राज्य की बात कही। बड़ी-से-बड़ी जो कल्पना है कवि की, वह यह है कि तीन लोक हैं और तीनों लोक का साम्राज्य है। लेकिन एक गरीब हृदय के पास, जिसके पास कुछ भी नहीं है, तीन चावल के दाने भी नहीं हैं, वह तीन मुट्ठी चावल ले आया है, उसे हम कब समझ पाएंगे? नहीं, कृष्ण देकर भी तृप्त नहीं हुए हैं। क्योंकि जो सुदामा ने दिया है वह बहुत असाधारण है। और जो कृष्ण ने दिया है, उनकी हैसियत के आदमी के लिए बहुत साधारण है। इसलिए ऐसा मैं नहीं मानता हूं कि कोई सुदामा के साथ विशेष मैत्री दिखाई गई है। सुदामा आदमी ऐसा है कि सुदामा ने ही विशेष मैत्री दिखाई है। कृष्ण ने सिर्फ उत्तर दिया है।

और जैसा मैंने कहा कि वे मित्र और शत्रु किसी के भी नहीं हैं। लेकिन सुदामा जैसा मित्र, सुदामा की तरफ से मैत्री का इतना भाव लेकर आए, तो कृष्ण तो वैसा ही "रिसपांस' करते हैं जैसे घाटियों में हम आवाज दें तो घाटियां सात बार आवाज को दोहराकर लौटाती हैं। घाटियां हमारी आवाज की प्रतीक्षा नहीं कर रही हैं, न घाटियां हमारी आवाज के उत्तर देने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध हैं, न उसका कोई "कमिटमेंट' है, लेकिन जब हम घाटियों में आवाज देते हैं तो घाटियां उसको सातगुना करके वापस लौटा देती हैं। वह घाटियों का स्वभाव है। वह प्रतिध्वनि, वह "इकोइंग' घाटी का स्वभाव है। कृष्ण ने जो उत्तर दिया है वह कृष्ण का स्वभाव है। और सुदामा जैसा व्यक्ति जब सामने आ गया हो और इतनी प्रेम की आवाज दी हो, तो कृष्ण उसे अगर हजारगुना करके भी लौटा दें तो भी कुछ नहीं है। वह कृष्ण का स्वभाव है। यह कोई भी कृष्ण के द्वार पर गया होता, सुदामा का हृदय लेकर...।
 
बड़े मजे की बात है कि गरीब हमेशा मांगने जाता है, सुदामा देने गया था। और जब गरीब देने जाता है तो उसकी अमीरी का कोई मुकाबला नहीं। इससे उलटी बात अमीर के साथ घटती है, अमीर हमेशा देने जाता है। लेकिन जब अमीर मांगने जाता है, जैसे बुद्ध की तरह भिक्षा का पात्र लेकर सड़क पर खड़ा हुआ, तब मामला बिलकुल बदल जाता है। अगर बुद्ध की तरह भिक्षा का पात्र लेकर सड़क पर खड़ा हुआ, तब मामला बिलकुल बदल जाता है। अगर बुद्ध और सुदामा को साथ सोचेंगे तो खयाल में आ सकेगा।
 इधर सुदामा गरीब है और देने गया है, और बुद्ध के पास सब कुछ है और भीख मांगने चले गए हैं। जब अमीर भीख मांगने जाता है तब अलौकिक घटना घटती है और जब गरीब दान देने जाता है, तब अलौकिक घटना घटती है। ऐसे अमीर तो दान देते रहते हैं और गरीब मांगते रहते हैं, यह बहुत सामान्य घटना है। इसमें कोई विशेष बात नहीं है। सुदामा उसी विशिष्ट हालत में है जिस हालत में बुद्ध का सड़क पर भीख मांगना है। बुद्ध को क्या कमी है कि भीख मांगने जाएं? सुदामा के पास क्या है जो देने को उत्सुक हो गया है? पागल ही है। बुद्ध भी पागल, वह भी पागल। और देने भी किसको गया है! कृष्ण को देने गया है, जिनके पास सब कुछ है। लेकिन प्रेम यह नहीं देखता कि आपके पास कितना है। आपके पास कितना ही हो तो भी प्रेम देता है। प्रेम यह मान ही नहीं सकता कि आपके पास पर्याप्त है। इसे थोड़ा समझना चाहिए।
 
प्रेम कभी यह मान ही नहीं सकता कि आपके पास पर्याप्त है। प्रेम तो देता ही चला जाता है। ऐसी कोई घड़ी नहीं आती कि जब वह कहे कि बस, अब काफी दे चुके, बहुत तुम्हारे पास है, अब देने की कोई जरूरत न रही। "इट इज़ नेवर इनफ'। कभी पर्याप्त होता ही नहीं। प्रेम देता ही चला जाता है, उलीचता ही चला जाता है और सदा कम ही रहता है। अगर हम एक मां से पूछें कि तूने अपने बेटे के लिए इतना-इतना किया, तो अगर वह नर्स होगी तो बताएगी कि हां, इतना-इतना किया। और अगर वह मां होगी तो वह कहेगी, कहां किया! मुझे बहुत कुछ करना था, वह मैं कर नहीं पाई। मां हमेशा लेखा-जोखा रखेगी उसका, जो वह नहीं कर पाई। और अगर मां लेखा-जोखा रखती हो कि कितना उसने किया, तो वह मां होने के भ्रम में है, उसने सिर्फ नर्स का काम किया है, इससे ज्यादा कोई उसका काम नहीं है? प्रेम सदा लेखा-जोखा रखता है कि क्या मैं कर नहीं पाया। कृष्ण के पास क्या कमी है? फिर भी सुदामा देने को आतुर है। घर से चलते वक्त उसकी पत्नी ने तो कहा है कि कुछ मांग लेना। लेकिन वह देने को चला आया है।


दूसरी भी बात है, बड़े संकोच से भरा है, अपनी पोटली को बहुत छिपा लिया है। प्रेम देता भी है और संकोच भी अनुभव करता है, क्योंकि प्रेम को सदा लगता है कि देने योग्य है क्या? प्रेम देता भी है और छिपाता भी है। अंधेरे में देना चाहता है, अज्ञात देना चाहता है, बिना नाम के देना चाहता है, पता न चले। तो वह अपनी पोटली को छिपाए हुए है कि दूं कैसे! देने योग्य है भी क्या! ऐसा नहीं है कि चावल है, इसलिए; अगर हीरे भी लेकर सुदामा गया होता तो भी ऐसा ही छिपाता। वह सवाल चावल का नहीं है, उसके लिए तो हीरे से भी ज्यादा कीमती चावल हैं। बड़ा सवाल यह है कि प्रेम कभी घोषणा करके नहीं देता। क्योंकि जब घोषणा ही हो गई तो प्रेम कहां रहा! वहां तो अहंकार शुरू हो गया। प्रेम चुपचाप दे देता है और भाग जाता है। पता भी न चल पाए कि कौन दे गया। और वह बड़ा डरा हुआ है और छिपाए हुए है। वह घड़ी बड़ी अदभुत रही होगी। लेकिन बड़े मजे की बात है, और कृष्ण उससे आते ही से पूछने लगते हैं कि लाए क्या हो? देने को क्या लाए हो? क्योंकि कृष्ण यह मान ही नहीं सकते कि प्रेम बिना देने के खयाल से, और आ गया हो। प्रेम जब भी आता है तो देने ही आता है। सुदामा है कि छिपाए जा रहा है। और कृष्ण हैं कि खोजे जा रहे हैं कि लाए क्या हो? अब ऐसे कृष्ण को क्या कमी है, कि सुदामा क्या लाएगा जिससे उनकी कोई बढ़ती हो जाए! लेकिन वे जानते हैं कि प्रेम जब भी आता है तो देने ही आता है, लेने नहीं आता। सुदामा जरूर कुछ लाया ही होगा। उसने जरूर छिपा रखा होगा, क्योंकि वे जानते हैं कि प्रेम सदा छिपाता है। और फिर उन्होंने उसकी पोटली खोज-बीन कर छीन ही ली। और फिर उस भरे दरबार, जहां कि खाली चावल कभी भी न आए होंगे, वे उन चावलों को खाने लगे।
इसमें कोई विशेष घटना नहीं है। प्रेम के लिए बड़ी सामान्य घटना है। लेकिन चूंकि प्रेम ही हमें सामान्य नहीं रह गया, इसलिए विशेष मालूम पड़ता है।

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