गुरुवार, 11 अगस्त 2016

कन्नौज नगरी --



कन्नौज नगरी --

रास के रंगस्थल को प्रकाशित करने वाली चंद्रिका , वृषभानु मंदिर की दीपावली , गोलोक-चूडामणि श्री कृष्ण के कंठ की हारावली , श्री कृष्ण की पराशक्ति परम पूज्या श्री राधा जी --का ननिहाल है !
वृन्दाबन के पूज्य संत म्रदुल कृष्ण गोस्वामी जी ने कन्नौज में हुई अपनी दोनों कथाओं में इस बात को जोर शोर से बताया था -कल्याण के गर्ग संहिता विशेषांक -8 वां अध्याय में इसका विवरण है-राजा बहुलाश्व के अपने पूर्वज श्री कृष्ण के और श्री राधा जी के विषय में पूछने पर उनके कुल पुरोहित श्री गर्ग जी ने बताया-
पूर्व काल में राजा नृग के पुत्र श्री चन्द्र के यहाँ तीन मानसी (मन के संकल्प द्वारा ) कन्याये
-1-कलावती --2--रत्नमाला और -3-मेनका उत्पन्न हुई थी -
जिनमे रत्नमाला श्री सीता जी की माँ और मेनका श्री पार्वती जी की माँ हुई
कलावती ने अपने पति राजा सुचंद के साथ नैमिष में तपस्या कर श्री ब्रम्हा जी से परात्पर ब्रम्ह की आदिशक्ति के माता और पिता होने का वर प्राप्त किया -द्वापर के अंत में कान्यकुब्ज देश (कन्नौज ) के यश्वस्वी चक्रवर्ती राजा भलननदन के यज्ञकुँड से (कलावती ) प्रकट हुई जिनका इस जन्म में नाम *कीर्ति * हुआ-इस दिव्य कन्या कीर्ति को पूर्व जन्म का स्मरण था-सुचंद का पुनर्जन्म बरसाने (मथुरा )में गोपो में श्रेष्ठ सुरभानु के यहाँ हुआ इनका नाम इस जन्म में *श्री वृषभानु * हुआ --परम बुद्धिमान नंदराज जी ने इन दोनों का विवाह कराया-
परात्पर ब्रम्ह श्री कृष्ण की प्रेरणा से उनकी तेजोमय पराशक्ति श्री राधा जी भाद्र पद शुक्लपक्ष अष्टमी दिन सोमवार को दोपहर के समय श्री वृषभानु और कीर्ति के यहाँ उत्पन्न हुई-इस प्रकार श्री राधा जी की माँ कीर्ति का प्राकट्य स्थल श्री राधा जी के नाना राजा भलननदन की राजधानी कन्नौज श्री राधा जी का ननिहाल है --
मुग़ल काल में तमाम पुराने स्मारक मंदिर या तो नष्ट हो गए या इस्लामिक नाम में परिवर्तित हो गए इसलिए राजा भलननदन की यज्ञशाला कहा है निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता परन्तु कन्नौज शहर में मोहल्ला शिखाना में पुरातत्व विभाग द्वारा सँरक्षित - कभी गंगा जी के पावन तट पर स्थित - काफी उंचाई पर किला की तरह निर्मित विशाल इमारत है जिसे-- मखदूम जहानिया-- के नाम से जाना जाता है मख - माने (यज्ञ ) दूम माने यज्ञ शाला और जहानिआ माने सारे विश्व की -माने - सारे विश्व की सब से विशाल यज्ञशाला
-निश्चित नहीं कहा जा सकता परन्तु यह मखदूम जहानिया राधा जी की माँ कीर्ती का प्राकतय स्थल राजा भलननदन की विशाल यज्ञशाला हो सकता है इसपर विद्वानों को विचार करना चाहिए
//इतिहास और सुगंध की नगरी कन्नौज का पौराणिक रामायण काल से अपना विशिष्ट स्थान रहा है-
बाल्मिक रामायण बाल काण्ड 32 वे सर्ग से कन्नौज का विवरण मिलता मिलता है- श्री विश्वामित्र जी जनकपुरी के रास्ते में भगवान् राम को कथा सुनाते हुए बताते है कि पूर्व काल में ब्रम्हा जी के पुत्र महातेजस्वी कुश नाम के राजा हुए-उनके 4 पुत्रो में से कुशनाभ ने महोदय नाम के नगर का निर्माण किया
-महोदय -कन्नौज का सबसे पुराना नाम है- राजा कुशनाभ के घ्रताची अप्सरा से 100 कन्या हुई- यह बहुत सुन्दर थी - वायु देवता की अवहेलना के कारण वे कुपित हो गए जिससे सभी कन्याऐ कुब्जा हो गयी -दुसरे शब्दों में जंगल घूमते समय कोई विशैली वस्तु सेवन से वातरोग हो जाने से सभी कुब्जा हो गयी -तब कन्नौज का नाम कान्यकुब्ज पडा जिसका अप्रभंश कन्नौज है-
उसी समय चूली नाम के मुनि बहुत बडा अनुष्ठान कर रहे थे -उनके द्वारा गन्धर्व कुमारी सोमदा से मानसिक संकल्प से ब्रम्ह्दत्त नामक मानस पुत्र हुआ-महातेजस्वी ब्रम्ह्दत्त जो कन्नौज के पास काम्पिल्य (अब जिला फरुखाबाद ) के राजा हुए - से कन्नौज के राजा कुशनाभ ने अपनी सभी 100 पुत्रियो का विवाह कर दिया
- तेजस्वी ब्रम्ह्दत्त के स्पर्श करते ही सभी कन्याये रोगमुक्त हो गयी--कुशनाभ के पुत्र गाधी और गाधी के पुत्र महर्षि विश्वामित्र हुए --
कन्नौज नगर रामायण काल में - ( 2 )** उस समय संतान इच्छानुसार होती थी -कन्नौज के महाराजा कुशनाभ ने 100 कन्याओं की कामना की और काम्पिल्य के राजा ब्रम्ह्दत्त से सभी के विवाह के बाद पुत्र के लिए पुत्रेषटि यज्ञ किया
जिससे गाधि का जन्म हुआ*राजा गाधि के सत्यवती नामक पुत्री हुई जिसका विवाह श्री ऋचीक ॠषी से हुआ- सत्यवती ने अपने पति से अपने और अपनी माँ के लिए संतान प्राप्त हेतु आशीर्वाद की प्रार्थना की *ऋषी ॠचीक ने २ अभिमंत्रित फल दोनों अपनी पत्नी और सासू माँ के लिए दिए-
जैसे आज विज्ञान ने गुण (जींस ) तत्व की खोज कर ली है इसी तरह उस समय मनचाहे गुणो (जींस ) को आवेशित कर मन चाहे गुण और तेज वाली संतान पाना संभव था-सत्यवती वाले फल में ब्रम्ह तेज वाले गुण और उसकी माँ वाले फल में क्षत्री के तेज व् वीरता वाले जींस थे परन्तु कौतूहल व अज्ञानता वश दोनों महिलाओं ने फल आपस में बदल कर खा लिए *
जब ऋषी को पता चला तो वे अपनी पत्नी पर बहुत नाराज हुए और बताया कि अब उनका पुत्र भयंकर और महान वीरता के काम करने वाला क्षत्री जैसा होगा -सत्यवती के प्रार्थना करने पर ऋषी ने पुत्र के स्थान पर पौत्र का ऐसा होने की बात कही-सत्यवती के पुत्र ऋषी जमदग्नि और जमदग्नि के पुत्र महान वीरता के काम करने वाले भगवान् परशुराम हुए
-उधर सत्यवती के पिता महराजा गाधि के पुत्र विश्वामित्र हुए जो कन्नौज के यशश्वी राजा बने *सत्यवती ने अपने आप को तपोबल से कौशकी नामक नदी रूप में परवर्तित कर जनकल्याण में लींन कर लिया *कन्नौज के राजा विश्वामित्र कैसे महान तेजस्वी ब्रम्हरशी और भगवान् राम के गुरु बने **



**कन्नौज नगर

अहल्या जो अपने पति ऋषि गौतम के श्राप से जडवत होकर तपस्यारत थी उसका चरणरज स्पर्श से उद्धार कर आनंद सिन्धु श्री राम ब्रम्ह्र्शी विश्ववामित्र के साथ जनकपुर पहुंच कर बाहर बाग मे रुके -तब मिथिलापति श्री जनक जी ने अपने राज पुरोहित शतानंद जो ऋषि गौतम और अहल्या के पुत्र थे के साथ आकर उनका स्वागत किया
*श्री सतानंद जी ने श्री राम को बताया कि कन्नौज के चक्रवर्ती राजा के रूप में विश्वामित्र एक बार एक अक्षौहिणी सेना के साथ घूमते हुए ब्रम्हर्शी वशिष्ठ जी के विशाल आश्रम पर पहुंचे तब श्री वशिष्ठ जी ने अपनी कामधेनु गौ की सहायता से मिनटों में विशाल सामिग्री एकत्र सभी का खूब आदर सत्कार किया-ऐसा आश्चर्य देखकर राजा विश्वामित्र ने वशिष्ठ जी से कामधेनु गौ को मागा *वशिष्ठ जी के मना करने पर जबरन छीनने का आदेश दिया -तब कामधेनु गौ ने वशिष्ठ जी के आदेश पर योगबल से अपनी हुंकार द्वारा सूर्य के समान तेजस्वी विशाल सेना उत्पन्न की जिसने विश्वामित्र के 100 पुत्रो सहित सारी सेना नष्ट कर दी -
तब विश्वामित्र ने अपने एक बचे हुए पुत्र को कन्नौज का राज्य देकर वन में जाकार भगवान् शंकर की अति कठिन तपस्या की और वरदान में सभी प्रकार के दिव्यास्त्र ब्रम्हास्त्र -देवताओं दानवो महर्शीओ गन्धर्वो यक्षो राक्षसो के पास जो भी अस्त्र थे वे सभी प्राप्त किये -आज कलयुग में कल यानी मशीन आधारित शष्त्र होते है उस समय मन्त्र आधारित होते थे जिनसे सिद्ध करना होता था जो सभी विश्वामित्र जी ने सिद्ध किये
फिर वशिष्ठ जी पर बदला लेने के लिए आक्रमण कर दिया *ब्रम्हर्शी वशिष्ठ जी ने कालदंड के समान अपने ब्रम्ह्दंड का आवाहन किया और उसे लेकर खडे हो गये -विश्वामित्र जी ने सभी अस्त्रों का प्रहार किया परन्तु ब्रम्ह्दंड के सामने उनके सभी अस्त्र प्रभावहीन हो गये -ब्रम्हासत्र के भी प्रभावहीन होने पर विश्वामित्र जी ने विचार किया छत्री बल से ब्रम्ह्बल ही उत्तम है इसलिए वे मन और इन्द्रियो को निर्मल कर महान तप द्वारा ब्राम्ह्रत्व को प्राप्त कर ब्रम्हार्शी बनने के उद्देश्य से तपस्या करने वन में चले गएकन्नौज नगरी -रामायण काल में- ( 4 )
कन्नौज के महाराजा गाधि के सम्बन्ध में महाभारत (गीता प्रेस भाग 2 पन्ना 1528 )अनुशाशन पर्व भीष्म युधिष्ठिर संवाद में विवरण है कि राजा गाधि ने यज्ञानुष्ठान से अनुपम सुन्दरी कन्या सत्यवती को प्राप्त किया --उस समय तपस्या करने वाले संत जब किन्ही मंत्रो को खोज कर उन पर सिद्धि पा लेते थे तो -- आज के शब्दों में रिसर्च करने वाले जिन्हें P hd कहते है --वे तब ऋषी -कहलाते थे और तब ही वे किसी राजा या जैसी मर्जी हो वहा विवाह के लिए कन्या मांगने जाते थे -
तब चयवन मुनि के पुत्र ऋषी ॠचीक ने राजा गाधि के पास जाकर सत्यवती की मांग की -राजा गाधि ने ऋचीक की योग्यता की परीक्षा लेने के लिए शुल्क रूप में 1000 घोडे जो चंद्रमा के समान कांतिवान -वायु के समान वेगवान -तथा जिनके एक कान श्याम रंग के हो की मांग की-ॠचीक ने सिद्धियो के बल से जल के स्वामी वरूंण से प्रार्थना की और वरुण की कृपा से कन्नौज के पास गंगातट पर चिंतन करते ही ऐसे 1000 घोडे गंगा जी से निकल आये -इस घाट का नाम अश्व्तीर्थ हुआ -
मेरी समझ में आजकल गंगा पुल के पास स्वामी नारदानंद सरस्वती व् स्वामी भजनानंद सरस्वती व् स्वामी शुक्देवानंद सरस्वती की तपस्या स्थली - बैकुंठ आश्रम ही उस समय का अश्व तीर्थ है
-ऋषी ॠचीक ने घोडे देकर गाधि पुत्री सत्यवती को पत्नी रूप में प्राप्त किया -फिर सत्यवती के अनुरोध पर दो चरू 1-अपनी पत्नी लिए ब्रम्ह तेज के जींस से युक्त वाला और -2- क्षत्रिय तेज से युक्त जींस वाला अपनी सासू माँ के लिए तैयार किये परन्तु दोनों ने ये आपस में बदल लिए
-सत्यवती के अनुरोध पर पुत्र के स्थान पर पौत्र (जमदग्नि के पुत्र ) भगवान् परशुराम क्षत्रिय तेज संपन्न हुए जबकि राजा गाधि के पुत्र विश्वामित्र ने ब्रम्ह्त्व जींस के कारण राज त्यागकर अति कठिन तप कर अति दुर्लभ ब्रम्हर्शी पद प्राप्त किया -विश्वामित्र कैसे ब्रम्हर्शी बने
--कन्नौज नगरी -रामायण काल में-- श्री विश्वामित्र द्वारा तपस्या से प्राप्त देवास्त्रो द्वारा श्री वशिष्ठ जी पर आक्रमण= और तब संसार के व्याकुल होने पर वशिष्ठ जी ने ब्रम्ह्दंड का आवाहन किया - जिससे वशिष्ठ जी सूर्य के समान तेज से प्रकाशित हो गए और उनपर ब्रम्हास्त्र समेत सभी अस्त्र विफल हो गए तब श्री विश्वामित्र ने ब्रम्ह्बल को सर्वोपरि माना और ब्राम्ह्तव को प्राप्त करने के लिए अपनी रानी सहित दक्षिण दिशा में जाकर मन और इन्द्रियो को वश में कर अत्यंत उत्कृष्ट और भयंकर तपस्या करने लगे-
काफी समय बाद -अयॊध्या में इच्छवाकु कुल मे श्री राम के पूर्वज सत्यवादी और जितेन्द्रिय श्री त्रिशंकु राजा हुए -राजा त्रिशंकु ने ऐसा यज्ञ करने को सोचा जिससे इसी मानव शरीर सहित देवताओं की परमगति स्वर्ग में जा सके -त्रिशंकु ने अपने गुरु श्री वशिष्ठ जी से ऐसा यज्ञ कराने को कहा परतु वशिष्ठ जी ने सशरीर स्वर्ग जाना असंभव बताकर मना कर दिया -
तब त्रिशंकु गुरु पुत्रो के पास गए मगर गुरु पुत्रो ने न केवल यज्ञ कराने से इनकार किया बल्कि अपने पिता की बात की अवहेलना से नाराज होकर त्रिशकू को चांडाल हो जाने का श्राप दे दिया -इससे राजा का रंग नीला हो गया और वे कुरूप हो गए -
तब त्रिशंकु श्री विश्वामित्र जी की शरण में पहुंचे-श्री विश्वामित्र जी राजा की हालत देखकर द्रवित हो गए और उनका मनचाहा यज्ञ कराने के लिए सारे विश्व से तमाम सिद्ध महात्माओं को आने को निमंत्रित किया-ऋषि विश्वामित्र के तेज और क्रोध से डरकर अनेकानेक सिद्ध महात्मा विद्वान् आये परन्तु यज्ञ संपन्न होने पर कुछ देवता भाग लेने नहीं आये
तब क्रोधित होकर विश्वामित्र ने त्रिशंकु को तपोबल से सशरीर स्वर्ग मे भेजा और सबके देखते ही देखते त्रिशंकु अंतरिक्ष में जाकर स्वर्ग जा पहुंचे -तब इंद्र ने त्रिशंकु को स्वर्ग में प्रवेश देने से इनकार कर उसे वापस जाने को कहा और त्रिशंकु त्राहि त्राहि बचाओ पुकारते हुए नीचे गिरने लगे -तब महान तेजस्वी विश्वामित्र ने क्रोधित होकर त्रिशंकु को वही अंतरिक्ष में रुकने का आदेश दिया और अंतरिक्ष में नए सप्त ऋशियो और नवीन नक्षत्रो का निर्माण कर डाला
और फिर नए स्वर्गलोक का निर्माण करने का विचार किया और नूतन देवताओं की श्रष्टि प्रारम्भ कर दी तब इंद्र सहित सभी देवता व्याकुल होकर श्री विश्वामित्र की शरण में आये और उनके बनाये लोको को अंतरिक्ष में हमेशा प्रकाशित होते हुए बने रहने और राजा त्रिशंकु को भी उन्ही में एक गृह के रूप में प्रकाशवान बने रहने का आश्वाशन दिया-
ऋषि विश्वामित्र द्वारा निर्मित सभी गृह आज भी अंतरिक्ष में मौजूद है (बाल्मीक रामायण बाल काण्ड 60 वा सर्ग) कनौज नगरी-रामायण काल में --
 ऋषि ऋचीक ने जिस अश्व तीर्थ घाट पर वरुण देव की कृपा से 1000 विशेष प्रकार के घोडे गंगा जी से प्राप्त किये थे - कन्नौज पुल के पास वह सिद्ध जगह पुल के पास महादेवी घाट पर मंदिर या पूर्व में बैकुंठ आश्रम होना चाहिए जहा कई संतो ने तपस्या कर सिद्धी प्राप्त की -करीब 100 वर्ष पूर्व पास में स्थित मियागंज गाव के तीन युवको ने यहा अति कठिन तपस्या कर सिद्धि पायी और विश्व प्रसिद्ध हुए -पंडित बाबुराम प्रसिद्ध नैमिष व्यास पीठाधीश्वर पूज्य स्वामी नारदाननद सरस्वती हुए जिन्होंने करीब 250 ऋषि आश्रमों कई विद्यालय औषधालय की स्थापना की और बहुत से आश्रमों पर वार्षिक महायज्ञ आदि की परम्परा डाली जिनमे बहुत कार्यक्रम (कन्नौज में अब 2कार्यक्रम) अब भी चल रहे है -उनके तपस्या में साथी मियागंज के ही पूज्य स्वामी शुक्देवानंद सरस्वती और पूज्य स्वामी भजनानंद सरस्वती ने एकरसानद आश्रम मैनपुरी -मुमुक्ष आश्रम शाहजहापुर-परमार्थ निकेतन ऋषिकेश व अन्य तमाम आश्रमों की स्थापना की-जो आज विश्व प्रसिद्ध है-मैनपुरी आश्रम व उनसे सम्बन्धित आश्रमो को पूज्य स्वामी शारदानंद सरस्वती --मुमुक्ष आश्रम को भारत के पूर्व गृह राज्य मंत्री स्वामी चिन्मयानन्द सरस्वती और परमार्थ निकेतन आदि को पूज्य मुनि चिदानन्द सरस्वती जी संचालित कर रहे है -हमारी समझ में यही सिद्ध स्थान अश्व तीर्थ होना चाहिए-
- वर्णित त्रिशंकु के लिए ग्रहों की रचना के बाद ऋषि विश्वामित्र ने पुष्कर तीर्थ में जाकर दुर्जय तपस्या की - राजा अम्बरीश के अश्वमेध यज्ञ से यज्ञ पशु के बलि की गलत परम्परा को ख़त्म कराया -फिर ब्रम्हा जी ने आकर विश्वामित्र को ॠषी का नाम प्रदान किया -
देवताओं ने षडयत्र कर अप्सरा मेनका को तपस्या में विघ्न डालने भेजा और विश्वामित्र जी उसपर मोहित हो गए -10वर्षो तक मेनका के साथ रहकर ऋषि को अपनी भूल का अहसास हुआ तब मेनका को बिदा कर पुन: कौशकी नदी के तट पर जाकर तपस्या की तब ब्रम्हा जी ने आकर महर्षि की उपाधि दी परन्तु विश्वामित्र जी ने ब्रम्हा जी से ब्रम्हर्शी का पद चाहा तब ब्रम्हा जी ने कहा की अभी वे जितेन्द्रिय नहीं हुए है -जितेन्द्रिय होने का प्रयत्न करे-तब विश्वामित्र जी ने पुन: घोर तपस्या शुरू की-
कन्नौज नगरी - रामायण काल में
श्री विश्वामित्र जी ब्रम्हर्शी बने और कन्नौज के पास संकिशा नगरी श्री भरत और शत्रुहन की ससुराल हुई ---
श्री विश्वामित्र जी ने राजषि पद से संतुष्ट न होकर पुन:काम क्रोध पर पूरा नियंत्रण कर ऐसी विकट तपस्या की कि वे सूर्य के समान कांतिमय हो गए तब ब्रम्हा जी ने आकर ब्राम्ह्रण तव और दीर्घ आयु प्रदान की
तब विश्वामित्र जी ने कहा कि जब उनके पुराने शत्रु श्री वशिष्ठ जी आकर उन्हें ब्रम्हर्शी कहेंगे तभी संतुष्ट होंगे -फिर श्री वशिष्ठ जी ने आकर उन्हें ब्रम्हर्शी कह कर उनका अभिनन्दन किया -तब वे संतुष्ट हुए -ब्रम्हर्शी तभी बना जा सकता है- जब काम क्रोध लोभ मोह और वैमनस्य से पूर्णतया रहित हुआ जा सके निज प्रभुमय देखहि जगत -केहि सन करहि विरोध -
-धनुष यज्ञ में धनुष टूटने के बाद श्री जनक जी नेअपने छोटे भाई संकाश्या (संकिशा )के राजा कुशध्वज को मिथिला बुलाया-
कन्नौज के पास फरुखाबाद जिला में स्थित संकिशा नगरी के पराक्रमी राजा सुधन्वा ने इसके पहले मिथला पर आक्रामण कर उसे चारो और से घेर कर जनक जी से उनकी पुत्री सीता जी की मांग की थी परन्तु युद्ध में सुधन्वा मारा गया फिर जनक जी ने संकिशा के राज्य पर अपने भाई कुशध्वज का अभिषेक कर राजा बना दिया-(बाल्मिक रामायण गीता प्रेस- 71 वा सर्ग )
और विवाह के समय राजा दशरथ जी की सहमति से जनक जी की पुत्री सीता का श्री राम से -उर्मिला का श्री लक्षमण से-कुशध्वज की दोनों पुत्रियो -मांडवी का श्री भरत जी से -और श्रुतिकीर्ति का श्री शत्रुघन जी से विवाह संपन्न हुआ --इस प्रकार कन्नौज के पास स्थित संकिशा श्री भरत और शत्रुहन के स्वसुर की नगरी यानी उनकी ससुराल भी हुई—

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