सोमवार, 28 अगस्त 2017

संत या साधु बनने की प्रक्रिया

सनातन धर्म में सन्यास लेने अर्थात संत या साधु बनने की प्रक्रिया
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^ वैदिक हिन्दू सनातन धर्म में सन्यास लेने की एक शास्त्र सम्मत प्रक्रिया है और मर्यादा रेखा भी सुनिश्चित है |
वानप्रस्थ समाप्ति के पश्चात (७५ वर्ष की आयु के बाद ) सन्यास लेना श्रेयकर माना जाता है और इसे पन्द्रहवां संस्कार भी कहते हैं |
यदि किसी व्यक्ति की वानप्रस्थ में प्रवेश से पूर्व ही सांसारिक बन्धनों से विरक्ति हो जाती है तो वह व्यक्ति किसी सन्यासी द्वारा दीक्षा लेकर सन्यास आश्रम में प्रवेश पाने का अधिकारी होता है |

सन्यासी जीवन बेहद कठिन है, जिसमें कठिन तप से गुजरना पड़ता है। सभी इंद्रियों सहित काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार और तृष्णा को समाप्त कर चित्त को इष्ट की आराधना में एकाग्र करना होता है।
सेवा भाव, इष्ट के प्रति समर्पण, मोक्ष की कामना और शून्यता की ओर लगातार अग्रसर होना सन्यासी की दिनचर्या है।
सन्यास आश्रम में प्रवेश लेने के लिए किसी अखाड़े में जाकर अपनी इच्छा व्यक्त करनी होती है |
इसके पश्चात अखाडा व्यक्ति के सांसारिक विरक्ति होने और ब्रह्मचर्य भाव की परीक्षा लेता है |
इस परीक्षा में उतीर्ण होने के पश्चात ही सन्यास की दीक्षा दी जाती है | परीक्षा इतनी कड़ी होती है कि कई बार वर्षों का समय लग जाता है |
एक बार व्यक्ति अखाडा की परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया तब उसे पंच गुरु दीक्षा दी जाती है | जिसमे उसे लंगोटी, चोटी, भभूत, रुद्राक्ष एवं भगवा अलग - अलग गुरुओं द्वारा प्रदान किया जाता है |
इसके पश्चात विर्जा हवन दीक्षा दी जाती है जिसमें व्यक्ति जनेऊ पहन, हाथ में दण्ड - कमंडल लेकर नदी के तट पर जाता है। वहां पर उसे परिवार के सदस्यों सहित खुद का पिण्डदान करना होता है।
स्वयं का पिण्डदान करने के बाद ही उस महापुरुष का सन्यास जीवन में प्रवेश होता है और तब वह सन्यासी कहलाता है। इसके पश्चात उस व्यक्ति के लौकिक जगत के सभी बंधन समाप्त माने जाते हैं |
यह सन्यास का पहला चरण है, इसके पश्चात अपनी - अपनी इच्छा, सामर्थ्य, गुरु कृपा एवं भगवत कृपा के अनुरूप सन्यासी विभिन्न कठिन चरणों को पार करते हैं |
जिसने यह प्रक्रिया पूरी की हो वही सन्यासी कहलाने का अधिकारी है |
ऐसे किसी सन्यासी ने आज तक कोई पंथ नहीं चलाया है |
ऐसे सन्यासी न तो वेद निंदा करते हैं न ही किसी को चमत्कार का प्रलोभन देते हैं, न ही सड़कों पर कभी अराजकता फैलाते हैं | इनके पास एक से बढ़कर एक सिद्धियाँ मिल जाएंगीं पर ये लोग उसका उपयोग अपने चेले बढ़ाने और डेरा बनाने में नहीं करते |
अब प्रश्न यह है कि ओशो से लेकर आशाराम ....और राम - रहीम तक किस अखाड़े में दीक्षित हैं | कौन है इनका गुरु ..किसने इन्हें मर्यादा का ज्ञान दिया |
इन्होने विरक्ति और ब्रह्मचर्य की कौन सी परीक्षा पास की है | उत्तर सब जानते हैं ...
तब इन्हें किस अधिकार से सन्यासी , बाबा या साधू महराज कहा जाता है ?
स्पष्ट है कि ऐ लोग सन्यासी के पाँव की धूलि भी नहीं हैं |
फिर दोष तो उनका है जो इन आडम्बर झंडाधारियों को बाबा, साधू और सन्यासी की उपमा देते हैं |
दोष उस मानसिकता का है जो कर्म के सिद्धांत को न मानकर किसी ढोंगी में चमत्कार खोजती फिरती है |
यह समाज में विद्यमान तमाम ढोंगी चालबाजों के लिए सुनहरा अवसर होता है | इन लोगों को चमत्कार चटनी के दोनो से लेकर राधे अम्माँ की गोद तक में मिलने लगता है |
इन्हें सम्भोग में समाधि के दर्शन होने लगते हैं | इनको बंगाली बाबा से पुत्ररत्न मिलने लगता है और इन्हें राम - रहीम की चिलम में ईश्वर के साक्षात दर्शन होते हैं |
ऐसे चमत्कार लोलुप लोग पाला बदलने में भी समय नहीं लगाते ..
मुर्दों की कब्र यानी कि दरगाहों पर माथा रगड़ते भी यही मिलेंगे हैं | टेरेसा के एजेंडे को ऐसे ही लोगों की मानसिकता खाद पानी देती है |
चमत्कार के झांसे में ऐसे ही लोगों के घर की इज्जत नीलाम होती है |
आर्यपुत्र इस चमत्कार लोलुप मानसिकता को त्याग गीता वर्णित कर्म के सिद्धांत का अनुपालन करो, यह संसार चमत्कारों की चमक से नहीं भुजदंडों के कौशल से चलता है !!
आपका अपना ही !

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