सोमवार, 28 अगस्त 2017

#कैसे_56_देशो_में_इस्लाम_फैला

#कैसे_56_देशो_में_इस्लाम_फैला - ईरान 634 -651
632 ईस्वी में मुहम्मद की म्रत्यु हो गयी थी । पूरे अरब प्रायदीप पर मुसलमानो का कब्जा हो गया था । मुहम्मद की भी महत्वकांशा थी, की वो ज़्यादा से ज़्यादा आगे बढ़ता चला जाये । उसकी इन दुष्ट इच्छा को उसके इस्लामी गुंडो ने पूर्ण किया ।

अरब की सीमा से लगता #ईरान था । जिसका #पुराना_नाम #पर्शिया था ।
आज जो ईरानी मुसलमान मुसलमान बनकर ईरान में इस्लामिक शाशन चला रहे है, ईरान में कभी इनके पूर्वजो के साथ क्या हुआ था, यह लोग खुद भी शायद नही जानते, कोई और बताए तो मानने को भी तैयार नही होंगे । ईरान ही वो गैर - अरब राज्य था,जो सर्वप्रथम इस्लामी जिहाद का शिकार हुआ ।
एक छोटा सा माफिया मुसलमानो ने शुरू किया, जो अब पूरे अरब में फैलता जा रहा था , इस नए नवेले धर्म का नाम भी लोगो ने नही सुना होगा, जिसे कबूल करने के लिए लोगो को भयंकर यातना दी जा रही थी । अगर इस गुंडो के गिरोह को शुरू में ही कुचल दिया जाता, तो विश्व के हालात आज यह ना होते । इस्लाम एक सीख ह लोगोै के लिए, की किसी भी अत्याचारी को आगे ना बढ़ने दिया जाए ।उसे सुधरने काएक मौका देकर ही उसे खत्म कर दिया जाए ।
ईरान ही वह प्रथम देश था, जो इन पागल , जंगली, हिंसक पशुओं का रास्ता रोके खड़ा था । फारसी साम्राज्य इन अरबी पशुओं को परास्त करने के लिए अयोग्य ही था ।
इस्लाम के आगमन से पूर्व युद्ध के एक नियम थे , सेनाएं आपस मे लड़ती थी । जनता पर धावा नही बोला जाता था, किसी विपक्षी के युद्ध जितने के बाद भी जनता पर अत्याचार नही होता था । इस इस्लाम के गुंडो ने तो युद्ध के सारे नियम ही बदल दिए । सेना से छुपकर घुसपैठ करते, ओर आम जनता पर हमला करते । उसे मुसलमान बनाते, साथ ही अपनी लुटेरी सेना में शामिल कर लेते ।
इस्लाम कब आक्रमणों में ज़्यादा से ज़्यादा इस बार पर जोर होता था , की किस तरह नागरिकों को सताया जाए । कोई शाशक हार जाता, तो उसकी पूरी जनता को इस्लामी प्रकोप झेलना पड़ता । यह लोग लोगो से उसका धर्म छीन, उसपर इस्लाम थोप देते थे । इन जिहादियों की तलवार से पीड़ित लोग केवल मुसलमान बनकर अपना जीवन बचा सकते थे । मुसलमान बनकर यह पीड़ित लोग भी खूंखार ओर जंगली पशु बन जाते ।
प्रथम युद्ध ( नामराक ओर कासकर का युद्ध - 634
अरब प्रायद्वीप को पूरा इस्लाम की धार चखाने कब बाद इन लुटेरे पशुओं के कारवां ने दूसरे देशों की सीमाओं पर पंजा मारना शुरू किया । मुहम्मद के काल मे भी प्रयास तो हुआ था, लेकिन फारसियो की मार ऐसी पड़ी, की दुबारा हिम्मत नही हुई । काश की फारसी लोग उसी समय इन्हें अरब तक रंगेद कर मारते ।
शुरू शुरू में फारस की सीमाओं पर इन्होंने फारसी लोगो को परेशान करना शुरू किया । यूफ्रेट्स नदी के किनारे इन लोगो ने भयंकर कोहराम मचाया । वे लोग इनके आक्रमण से परेशान होकर फारसी राजा "याजदयार्ड " को अपनी रक्षा के लिए पत्र लिखा करते थे। राजा ने एक साधारण सी टोली को उनकी रक्षा के लिए भेजा । हीरा नामक शहर पर मुसलमानो ने पूर्णतः अपना कब्जा कर लिया था ।
फ़ारसी सेनिको ने इस शहर को आजाद करवा लिया । यहां से यह अरबी लोग भागकर नर्मक ( वर्तमान कूफा ) चले गए । फारसी सेना नव इन लुटेरो का पीछा किया । इस क्षेत्र से अरब के लोग परिचित थे, लेकिन फारसी नही । मुस्लिम सेना पैदल ओर ऊंट पर सवार थी, जबकि फारसी सेना घोड़ो पर सवार थी । यह इलाका रेगिस्तान का था । जहां ऊंट काम आ गए, ओर घोड़े फंस गए । अरब सेनिको ने इस युद्ध मे तीरों से ईरानी सेनिको को छलनी कर दिया । सभी फारसी सेनिको को या तो मार डाला गया, या मुसलमान बना दिया गया । ताकि अगले निशाने कास्कर पर हमला करते समय यह लुटेरे सैनिक काम आएं ।
फारस का साम्रज्य बिना चिंता के सो रहा था । उसे लगा ही नही, की अरब के सैनिक कास्कर तक पहुंच सकते है । यह वहसी मुसलमान दरिंदे अपने व्यभिचार ओर धन की भूख मिटाने भारत तक आ सकते थे, तो कास्कर कौनसा दूर था ?
फारसी शाशक ने सोचा ही नही, की इस्लाम नाम की यह छिपकली अब उन्हें निगलने जा रही है :-

जब कास्कर में मुस्लिम सेना अपना डेरा डालकर बैठ गयी, तो फारस के राजा के पास अरबो ने अपना दूत भेजा -
" हमारे सम्राट पूछते है, की क्या आप इस शर्त पर शांति के लिए सहमत होंगे कि " टायगिरिस " तक हमारे बीच सीमा हो । टायगिरिस कि पूर्वी हिस्से की ओर जो भी है हमारा, ओर पश्चिमी हिस्से की ओर जो भी हैज़ तुम्हरा । यह " टायगिरिस " पूरा प्रदेश ही ईरानियों का था ।
अपनी प्रजा पर होते अत्याचार को देख राजा ने यह शर्त मंजूर कर ली । जब इससे सहमति बन गयी, तो कुछ ही दिनों बाद दूसरा दूत भेज दिया ।
अरब मुस्लिम कमांडर इन चीफ " साद-इब्न-बागा " नाम के एक गुंडे ने अपने दूत से राजा को कहलवाया , की हम मुसलमान जमीन के भूखे नही है। यदि फारसी सम्राट को अगर शांति चाहिए, तो इस्लाम कबूल करें, या जजिया का भुगतान करें । दोनो ही विकल्पों को राजा ने अस्वीकार कर दिया । अब तो तलवार से ही यह मुद्दा सुलझ सकता था ।
"अबु-उबेद लिखता है - सऊद पार कर कास्कर पर हमला करने का आदेश 1 मार्च को दिया गया । यह हमला नही बल्कि घुसपैठ थी । फारसी राजा ने तुरंत एक सेना का गठन किया, ओर मुस्लिम लुटेरो का सामना करने की ठानी । मुसलमानो ने सेना का सामना ना कर्ज़ आतंकवादी की तरह पूरे शहर को लूटकर तबाह कर दिया । फारसी सेना ने मुसलमानो को तो पीछे धकेल दिया, लेकिन पूरा कास्कर लगभग मुसलमान बन चुका था ।
अल-जिस्र का युद्ध ( 637 )
इस लड़ाई का नेतृत्व अली कर रहा था, जो मुहम्मद का दामाद भी था । इस हनले में अली नव नेतृत्व में कई महिलाओं का अपहरण हैज़ बच्चो को बलपूर्वक मुसलमान बनाया गया । महिलाओ का बलात्कर होना निश्चित ही था । बूढ़े जवान सभी जिंदा तभी रह सके, जाव उन्होंने इस्लाम को कबूल कर लिया । बाकी जो धर्मप्रिय लोग थे, तड़पा तड़पा कर मार डाले गए ।
राजधानी तक इन अरबी लुटेरो ने चढ़ाई कर दी थी । खुद राजा याजदयार्ड की 3 साल की बेटी को भी मुसलमान उठा कर ले गए । अली ने सारी लूट की संपत्ति और राजकुमारी को खलीफा उमर के सामने पेश किया, इतनी मात्रा में धन संपदा देख उमर अली पर बड़ा खुश हुआ, उसने वह 3 साल की बच्ची अली को सौंप दी, अली ने उसे अपनी उपपत्नी बना लिया ।
राजा को अपनी राजकुमारी बहुत प्रिय थी । उसके कलेजे का टुकड़ा उससे अलग हो गया था । उसने ठानी की किसी भी कीमत पर वह अपनी बेटी को उन दुष्ट पशुओं के चंगुल से वापस लेकर आएगा । लेकिन अरब में घुसकर अरबियों को हराना इतना आसान नही था । पूरी की पूरी सेना अरब में मारी गयी ।
इस दुस्साहस का परिणाम अब फारसियों को भोगना था । गदासियर का युद्ध हुआ, मुसलमानो ने रात्रि में हमला कर फारसी सेना के कमांडर को पकड़ लिया, पूरी सेना के सामने ही उसे निवस्त्र कर दिया गया, सिर पर तलवारों से वार किये, ओर पूरा शरीर तीरों से छलनी कर दिया ।
4 दिन तक यह युद्ध चलता रहा, विशाल अरब सेना ईरान की राजधानी में घुस आए । राजा यार्ड को भी बंदी बना लिया । उन्हें बंदी बनाकर अरब के खलीफा के सामने पेश किया गया । जहां उनके पास इस्लाम कबूलने या मृत्यु चुनने कि शर्त रखी गयी । राजा ने मृत्यु । भरे दरबार मे उनका सिर काट दिया गया ।
जब पारस पर अरब के मुसलमानों का राज हो गया और पारसी जबरदस्ती मुसलमान बनाए जाने लगे, तब फारसी शरणार्थियों का पहला समूह मध्य एशिया के खुरासान (पूर्वी ईरान के अतिरिक्त आज यह प्रदेश कई राष्ट्रों में बंट गया है) में आकर रहे। वहां वे लगभग 100 वर्ष रहे। जब वहां भी इस्लामिक उपद्रव शुरू हुआ तब फारस की खाड़ी के मुहाने पर उरमुज टापू में उसमें से कई भाग आए और वहां 15 वर्ष रहे।
आगे वहां भी आक्रमणकारियों की नजर पड़ गई तो अंत में वे एक छोटे से जहाज में बैठ अपनी पवित्र अग्नि और धर्म पुस्तकों को ले अपनी अवस्था की गाथाओं को गाते हुए खम्भात की खाड़ी में भारत के दीव नामक टापू में आ उतरे, जो उस काल में पुर्तगाल के कब्जे में था। वहां भी उन्हें पुर्तगालियों ने चैन से नहीं रहने दिया, तब वे सन् 716 ई. के लगभग दमन के दक्षिण 25 मील पर राजा यादव राणा के राज्य क्षे‍त्र 'संजान' नामक स्थान पर आ बसे।
इन फारसी शरणार्थियों ने अपनी पहली बसाहट को ‘संजान’ नाम दिया, क्योंकि इसी नाम का एक नगर तुर्कमेनिस्तान में है, जहां से वे आए थे। कुछ वर्षों के अंतराल में दूसरा समूह (खुरसानी या कोहिस्तानी) आया, जो अपने साथ धार्मिक उपकरण (अलात) लाया। स्थल मार्ग से एक तीसरे समूह के आने की भी जानकारी है। इस तरह जिन फारसियों ने इस्लाम नहीं अपनाया या तो वे मारे गए या उन्होंने भारत में शरण ली।
गुजरात के दमण-दीव के पास के क्षे‍त्र के राजा जाड़ी राणा ने उनको शरण दी और उनके अग्नि मंदिर की स्थापना के लिए भूमि और कई प्रकार की सहायता भी दी। सन् 721 ई. में प्रथम फारसी अग्नि मंदिर बना। भारतीय पारसी अपने संवत् का प्रारंभ अपने अंतिम राजा यज्दज़र्द-1 के प्रभावकाल से लेते हैं।
10वीं सदी के अंत तक इन्होंने गुजरात के अन्य भागों में भी बसना प्रारंभ कर दिया। 15वीं सदी में भारत में भी ईरान की तरह इस्लामिक क्रांति के चलते 'संजान' पर मुसलमानों के द्वारा आक्रमण किए जाने के कारण वहां के फारसी जान बचाकर पवित्र अग्नि को साथ लेकर नवसारी चले गए। अंग्रेजों का शासन होने के बाद फारसी धर्म के लोगों को कुछ राहत मिली।
16वीं सदी में सूरत में जब अंग्रेजों ने फैक्टरियां खोली तो बड़ी संख्या में फारसी कारीगर और व्यापारियों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। अंग्रेज भी उनके माध्यम से व्यापार करते थे जिसके लिए उन्हें दलाल नियुक्त कर दिया जाता था। कालांतर में ‘बॉम्बे’ अंग्रेजों के हाथ लग गया और उसके विकास के लिए कारीगरों आदि की आवश्यकता थी। विकास के साथ ही फारसियों ने बंबई की ओर रुख किया।
इस तरह फारसी धर्म के लोग दीव और दमण के बाद गुजरात के सूरत में व्यापार करने लगे और फिर वे बंबई में बस गए।
वर्तमान में भारत में फारसियों की जनसंख्या लगभग 1 लाख है जिसका 70% मुंबई में रहते हैं।
#गर्व_से_कहो....#हम_हिन्दू_हैं !!
साभार :- **कट्टर हिन्दू**
#कैसे_56_देशो_में_इस्लाम_फैला - ईरान 634 -651
632 ईस्वी में मुहम्मद की म्रत्यु हो गयी थी । पूरे अरब प्रायदीप पर मुसलमानो का कब्जा हो गया था । मुहम्मद की भी महत्वकांशा थी, की वो ज़्यादा से ज़्यादा आगे बढ़ता चला जाये । उसकी इन दुष्ट इच्छा को उसके इस्लामी गुंडो ने पूर्ण किया ।
अरब की सीमा से लगता #ईरान था । जिसका #पुराना_नाम #पर्शिया था ।
आज जो ईरानी मुसलमान मुसलमान बनकर ईरान में इस्लामिक शाशन चला रहे है, ईरान में कभी इनके पूर्वजो के साथ क्या हुआ था, यह लोग खुद भी शायद नही जानते, कोई और बताए तो मानने को भी तैयार नही होंगे । ईरान ही वो गैर - अरब राज्य था,जो सर्वप्रथम इस्लामी जिहाद का शिकार हुआ ।
एक छोटा सा माफिया मुसलमानो ने शुरू किया, जो अब पूरे अरब में फैलता जा रहा था , इस नए नवेले धर्म का नाम भी लोगो ने नही सुना होगा, जिसे कबूल करने के लिए लोगो को भयंकर यातना दी जा रही थी । अगर इस गुंडो के गिरोह को शुरू में ही कुचल दिया जाता, तो विश्व के हालात आज यह ना होते । इस्लाम एक सीख ह लोगोै के लिए, की किसी भी अत्याचारी को आगे ना बढ़ने दिया जाए ।उसे सुधरने काएक मौका देकर ही उसे खत्म कर दिया जाए ।
ईरान ही वह प्रथम देश था, जो इन पागल , जंगली, हिंसक पशुओं का रास्ता रोके खड़ा था । फारसी साम्राज्य इन अरबी पशुओं को परास्त करने के लिए अयोग्य ही था ।
इस्लाम के आगमन से पूर्व युद्ध के एक नियम थे , सेनाएं आपस मे लड़ती थी । जनता पर धावा नही बोला जाता था, किसी विपक्षी के युद्ध जितने के बाद भी जनता पर अत्याचार नही होता था । इस इस्लाम के गुंडो ने तो युद्ध के सारे नियम ही बदल दिए । सेना से छुपकर घुसपैठ करते, ओर आम जनता पर हमला करते । उसे मुसलमान बनाते, साथ ही अपनी लुटेरी सेना में शामिल कर लेते ।
इस्लाम कब आक्रमणों में ज़्यादा से ज़्यादा इस बार पर जोर होता था , की किस तरह नागरिकों को सताया जाए । कोई शाशक हार जाता, तो उसकी पूरी जनता को इस्लामी प्रकोप झेलना पड़ता । यह लोग लोगो से उसका धर्म छीन, उसपर इस्लाम थोप देते थे । इन जिहादियों की तलवार से पीड़ित लोग केवल मुसलमान बनकर अपना जीवन बचा सकते थे । मुसलमान बनकर यह पीड़ित लोग भी खूंखार ओर जंगली पशु बन जाते ।
प्रथम युद्ध ( नामराक ओर कासकर का युद्ध - 634
अरब प्रायद्वीप को पूरा इस्लाम की धार चखाने कब बाद इन लुटेरे पशुओं के कारवां ने दूसरे देशों की सीमाओं पर पंजा मारना शुरू किया । मुहम्मद के काल मे भी प्रयास तो हुआ था, लेकिन फारसियो की मार ऐसी पड़ी, की दुबारा हिम्मत नही हुई । काश की फारसी लोग उसी समय इन्हें अरब तक रंगेद कर मारते ।
शुरू शुरू में फारस की सीमाओं पर इन्होंने फारसी लोगो को परेशान करना शुरू किया । यूफ्रेट्स नदी के किनारे इन लोगो ने भयंकर कोहराम मचाया । वे लोग इनके आक्रमण से परेशान होकर फारसी राजा "याजदयार्ड " को अपनी रक्षा के लिए पत्र लिखा करते थे। राजा ने एक साधारण सी टोली को उनकी रक्षा के लिए भेजा । हीरा नामक शहर पर मुसलमानो ने पूर्णतः अपना कब्जा कर लिया था ।
फ़ारसी सेनिको ने इस शहर को आजाद करवा लिया । यहां से यह अरबी लोग भागकर नर्मक ( वर्तमान कूफा ) चले गए । फारसी सेना नव इन लुटेरो का पीछा किया । इस क्षेत्र से अरब के लोग परिचित थे, लेकिन फारसी नही । मुस्लिम सेना पैदल ओर ऊंट पर सवार थी, जबकि फारसी सेना घोड़ो पर सवार थी । यह इलाका रेगिस्तान का था । जहां ऊंट काम आ गए, ओर घोड़े फंस गए । अरब सेनिको ने इस युद्ध मे तीरों से ईरानी सेनिको को छलनी कर दिया । सभी फारसी सेनिको को या तो मार डाला गया, या मुसलमान बना दिया गया । ताकि अगले निशाने कास्कर पर हमला करते समय यह लुटेरे सैनिक काम आएं ।
फारस का साम्रज्य बिना चिंता के सो रहा था । उसे लगा ही नही, की अरब के सैनिक कास्कर तक पहुंच सकते है । यह वहसी मुसलमान दरिंदे अपने व्यभिचार ओर धन की भूख मिटाने भारत तक आ सकते थे, तो कास्कर कौनसा दूर था ?
फारसी शाशक ने सोचा ही नही, की इस्लाम नाम की यह छिपकली अब उन्हें निगलने जा रही है :-
जब कास्कर में मुस्लिम सेना अपना डेरा डालकर बैठ गयी, तो फारस के राजा के पास अरबो ने अपना दूत भेजा -
" हमारे सम्राट पूछते है, की क्या आप इस शर्त पर शांति के लिए सहमत होंगे कि " टायगिरिस " तक हमारे बीच सीमा हो । टायगिरिस कि पूर्वी हिस्से की ओर जो भी है हमारा, ओर पश्चिमी हिस्से की ओर जो भी हैज़ तुम्हरा । यह " टायगिरिस " पूरा प्रदेश ही ईरानियों का था ।
अपनी प्रजा पर होते अत्याचार को देख राजा ने यह शर्त मंजूर कर ली । जब इससे सहमति बन गयी, तो कुछ ही दिनों बाद दूसरा दूत भेज दिया ।
अरब मुस्लिम कमांडर इन चीफ " साद-इब्न-बागा " नाम के एक गुंडे ने अपने दूत से राजा को कहलवाया , की हम मुसलमान जमीन के भूखे नही है। यदि फारसी सम्राट को अगर शांति चाहिए, तो इस्लाम कबूल करें, या जजिया का भुगतान करें । दोनो ही विकल्पों को राजा ने अस्वीकार कर दिया । अब तो तलवार से ही यह मुद्दा सुलझ सकता था ।
"अबु-उबेद लिखता है - सऊद पार कर कास्कर पर हमला करने का आदेश 1 मार्च को दिया गया । यह हमला नही बल्कि घुसपैठ थी । फारसी राजा ने तुरंत एक सेना का गठन किया, ओर मुस्लिम लुटेरो का सामना करने की ठानी । मुसलमानो ने सेना का सामना ना कर्ज़ आतंकवादी की तरह पूरे शहर को लूटकर तबाह कर दिया । फारसी सेना ने मुसलमानो को तो पीछे धकेल दिया, लेकिन पूरा कास्कर लगभग मुसलमान बन चुका था ।
अल-जिस्र का युद्ध ( 637 )
इस लड़ाई का नेतृत्व अली कर रहा था, जो मुहम्मद का दामाद भी था । इस हनले में अली नव नेतृत्व में कई महिलाओं का अपहरण हैज़ बच्चो को बलपूर्वक मुसलमान बनाया गया । महिलाओ का बलात्कर होना निश्चित ही था । बूढ़े जवान सभी जिंदा तभी रह सके, जाव उन्होंने इस्लाम को कबूल कर लिया । बाकी जो धर्मप्रिय लोग थे, तड़पा तड़पा कर मार डाले गए ।
राजधानी तक इन अरबी लुटेरो ने चढ़ाई कर दी थी । खुद राजा याजदयार्ड की 3 साल की बेटी को भी मुसलमान उठा कर ले गए । अली ने सारी लूट की संपत्ति और राजकुमारी को खलीफा उमर के सामने पेश किया, इतनी मात्रा में धन संपदा देख उमर अली पर बड़ा खुश हुआ, उसने वह 3 साल की बच्ची अली को सौंप दी, अली ने उसे अपनी उपपत्नी बना लिया ।
राजा को अपनी राजकुमारी बहुत प्रिय थी । उसके कलेजे का टुकड़ा उससे अलग हो गया था । उसने ठानी की किसी भी कीमत पर वह अपनी बेटी को उन दुष्ट पशुओं के चंगुल से वापस लेकर आएगा । लेकिन अरब में घुसकर अरबियों को हराना इतना आसान नही था । पूरी की पूरी सेना अरब में मारी गयी ।
इस दुस्साहस का परिणाम अब फारसियों को भोगना था । गदासियर का युद्ध हुआ, मुसलमानो ने रात्रि में हमला कर फारसी सेना के कमांडर को पकड़ लिया, पूरी सेना के सामने ही उसे निवस्त्र कर दिया गया, सिर पर तलवारों से वार किये, ओर पूरा शरीर तीरों से छलनी कर दिया ।
4 दिन तक यह युद्ध चलता रहा, विशाल अरब सेना ईरान की राजधानी में घुस आए । राजा यार्ड को भी बंदी बना लिया । उन्हें बंदी बनाकर अरब के खलीफा के सामने पेश किया गया । जहां उनके पास इस्लाम कबूलने या मृत्यु चुनने कि शर्त रखी गयी । राजा ने मृत्यु । भरे दरबार मे उनका सिर काट दिया गया ।
जब पारस पर अरब के मुसलमानों का राज हो गया और पारसी जबरदस्ती मुसलमान बनाए जाने लगे, तब फारसी शरणार्थियों का पहला समूह मध्य एशिया के खुरासान (पूर्वी ईरान के अतिरिक्त आज यह प्रदेश कई राष्ट्रों में बंट गया है) में आकर रहे। वहां वे लगभग 100 वर्ष रहे। जब वहां भी इस्लामिक उपद्रव शुरू हुआ तब फारस की खाड़ी के मुहाने पर उरमुज टापू में उसमें से कई भाग आए और वहां 15 वर्ष रहे।
आगे वहां भी आक्रमणकारियों की नजर पड़ गई तो अंत में वे एक छोटे से जहाज में बैठ अपनी पवित्र अग्नि और धर्म पुस्तकों को ले अपनी अवस्था की गाथाओं को गाते हुए खम्भात की खाड़ी में भारत के दीव नामक टापू में आ उतरे, जो उस काल में पुर्तगाल के कब्जे में था। वहां भी उन्हें पुर्तगालियों ने चैन से नहीं रहने दिया, तब वे सन् 716 ई. के लगभग दमन के दक्षिण 25 मील पर राजा यादव राणा के राज्य क्षे‍त्र 'संजान' नामक स्थान पर आ बसे।
इन फारसी शरणार्थियों ने अपनी पहली बसाहट को ‘संजान’ नाम दिया, क्योंकि इसी नाम का एक नगर तुर्कमेनिस्तान में है, जहां से वे आए थे। कुछ वर्षों के अंतराल में दूसरा समूह (खुरसानी या कोहिस्तानी) आया, जो अपने साथ धार्मिक उपकरण (अलात) लाया। स्थल मार्ग से एक तीसरे समूह के आने की भी जानकारी है। इस तरह जिन फारसियों ने इस्लाम नहीं अपनाया या तो वे मारे गए या उन्होंने भारत में शरण ली।
गुजरात के दमण-दीव के पास के क्षे‍त्र के राजा जाड़ी राणा ने उनको शरण दी और उनके अग्नि मंदिर की स्थापना के लिए भूमि और कई प्रकार की सहायता भी दी। सन् 721 ई. में प्रथम फारसी अग्नि मंदिर बना। भारतीय पारसी अपने संवत् का प्रारंभ अपने अंतिम राजा यज्दज़र्द-1 के प्रभावकाल से लेते हैं।
10वीं सदी के अंत तक इन्होंने गुजरात के अन्य भागों में भी बसना प्रारंभ कर दिया। 15वीं सदी में भारत में भी ईरान की तरह इस्लामिक क्रांति के चलते 'संजान' पर मुसलमानों के द्वारा आक्रमण किए जाने के कारण वहां के फारसी जान बचाकर पवित्र अग्नि को साथ लेकर नवसारी चले गए। अंग्रेजों का शासन होने के बाद फारसी धर्म के लोगों को कुछ राहत मिली।
16वीं सदी में सूरत में जब अंग्रेजों ने फैक्टरियां खोली तो बड़ी संख्या में फारसी कारीगर और व्यापारियों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। अंग्रेज भी उनके माध्यम से व्यापार करते थे जिसके लिए उन्हें दलाल नियुक्त कर दिया जाता था। कालांतर में ‘बॉम्बे’ अंग्रेजों के हाथ लग गया और उसके विकास के लिए कारीगरों आदि की आवश्यकता थी। विकास के साथ ही फारसियों ने बंबई की ओर रुख किया।
इस तरह फारसी धर्म के लोग दीव और दमण के बाद गुजरात के सूरत में व्यापार करने लगे और फिर वे बंबई में बस गए।
वर्तमान में भारत में फारसियों की जनसंख्या लगभग 1 लाख है जिसका 70% मुंबई में रहते हैं।
#गर्व_से_कहो....#हम_हिन्दू_हैं !!
साभार :- **कट्टर हिन्दू**

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