बुधवार, 12 जुलाई 2017

श्री अमरनाथ की कथा


अमरकथा
यह अमर कथा माता पार्वती तथा भगवान शंकर का सम्वाद है। स्वयं श्री सदाशिव इस कथा को कहने वाले हैं। यह प्राचीन धर्म ग्रंथों से ली गई है, जिनमें भृंगु संहिता, निलमत पुराण और लावनी-ब्रह्मज्ञान उल्लेखनीय हैं। यह लोक व परलोक का सुख देनेवाली मानी गई है। स्वयं शिवजी द्वारा दिये गये वरदान के अनुसार इस कथा को श्रद्धापूर्वक पढ़ने या सुनने वाला मनुष्य शिवलोक को प्राप्त करता है।
श्री अमरनाथ की गुफा का रहस्य
माता पार्वती को अमरकथा सुनाने के लिये, श्री शंकर जी ने अमरनाथ की गुफा को हीं क्यों चुना ?
युगों पहले, जब पार्वती के मन में यह शंका उत्पन्न हुई कि शंकर जी ने अपने गले में मुण्डमाला क्यों और कब धारण की है, तो शंकर जी ने उत्तर दिया कि – हे पार्वती ! जितनी बार तुम्हारा जन्म हुआ उतने ही मुण्ड मैंनें धारण कर लिए। इस पर पार्वती जी बोलीं कि मेरा शरीर नाशवान है, मृत्यु को प्राप्त होता है, परंतु आप अमर हैं, इसका कारण बताने की कृपा करें। भगवान शिव ने रहस्यमयी मुस्कान भरकर कहा- यह तो अमरकथा के कारण है।
ऐसा सुनकर पार्वती के मन में भी अमरत्व प्राप्त कर लेने की इच्छा जागृत हो उठी और वह अमर कथा सुनाने का आग्रह करने लगीं। कितने ही वर्षों तक शिवजी इसको टालने का प्रयत्न करते रहे, परंतु पार्वती के लगातार हठ के कारण उन्हें अमरकथा को सुनाने के लिए बाध्य होना पड़ा। परन्तु समस्या यह थी कि कोई अन्य जीव उस कथा को ना सुने। अत: किसी एकांत व निर्जन स्थान की खोज करते हुए श्री शंकर जी पार्वती सहित, अमरनाथ की इस पर्वत मालाओं में पहुँच गये।
इस “ अमर-कथा ” को सुनाने से पहले भगवान शंकर यह सुनिश्चित कर लेना चाहते थे कि कथा निर्विघ्न पूरी की जा सके, कोई बाधा ना हो तथा पार्वती के अतिरिक्त अन्य कोई प्राणी उसे न सुन सके। उचित एवं निर्जन-स्थान की तलाश करते हुए वे सर्वप्रथम “पहलगाम” पहुँचे, जहाँ उन्होंने अपने नंन्दी (बैल) का परित्याग किया। वास्तव में इस स्थान का प्राचीन नाम बैल-गाँव था, जो कालांतर में बिगड़कर तथा क्षेत्रीय भाषा के उच्चारण से पहलगाम बन गया।
तत्पश्चात् “ चदंनबाड़ी ” में भगवान शिव ने अपनी जटा (केशों) से चंद्रमा को मुक्त किया। “ शेषनाग” नामक झील पर पहुँचे कर उन्होंने, अपने गले से सर्पों की मालाओं को भी उतार दिया। इसी कथा के आधारभूत शेषनाग-पर्वत पर नागों की अकृतियाँ विद्यमान हैं। हाथी के सिर व सूंड वाले प्रिया –पुत्र, श्री गणेश जी को भी उन्होंने “ महगुनस-पर्वत” पर छोड़ देने का निश्चय किया। जिस स्थान का प्राचीन एवं शुद्ध उच्चारण महा-गणेश था, जो धीरे-धीरे, सम्भवत: काश्मीरी भाषा के प्रभाव से, महागुनस हो गया। फिर- “पंचरत्नी” नामक स्थान पर पहुँच कर शिव ने पंच-तत्वों (पृथवी, जल, वायु, अग्नि और आकाश) का परित्याग कर दिया । भगवान् शिव इन्हीं पंच-तत्वों के स्वामी माने जाते हैं जिनको उन्होंने श्री अमरनाथ गुफा में प्रवेश से पहले छोड़ दिया था। इसके पश्चात् शिव-पार्वती ने इस पर्वत – श्रृंखला में ताण्डव – नृत्य किया था। ताण्डव – नृत्य वास्तव में सृष्टि के त्याग का प्रतीक माना गया। सब कुछ छोड़छाड़ कर, अंत में भगवान शिव ने श्री अमरनाथ की इस गुफा में, पार्वती सहित प्रवेश किया और मृगछाला बिछाकर पार्वती को अमरत्व का रहस्य सुनाने के लिये ध्यान मग्न होकर बैठ गये। लेकिन इससे पहले उन्होंने कलाग्नि नामक रुद्र को प्रकट किया और आज्ञा दी- “ चहुँ ओर ऐसी प्रचण्ड - अग्नि प्रकट करो, जिसमें समस्त जीवधारी जल कर भस्म हो सकें ”कलाग्नि ने ऐसा हीं किया। अब संतुष्ट होकर सिव ने अमरकथा कहनी शुरु की, परंतु उनकी मृगछाला के नीचे, तोते का एक अण्डा ( अण्डा भस्म नहीं हुआ : इसके दो कारण थे। एक तो मृगछाला के नीचे होने से शिव की शरण पाने के कारण और दूसरा अण्डा जीवधारियों के श्रेणी में नहीं आता) फिर भी बच गया था, जिसने अण्डे से बाहर आकर अमरकथा को सुन लिया।
amar katha

श्री पार्वती जी ने कहा-
प्रभो ! मैं अमरनाथ की यात्रा की महिमा सुनना चाहती हूँ , जिसके सुनने से जन्म जन्मांतर के पाप –ताप मिट जाते हैं। जगत स्वामिन ! आप श्री अमरनाथ जी के लिंग का महात्म्य तथा मार्ग के तीर्थों का वर्णन कीजिए। श्री अमरनाथ की यात्रा तथा पूजन विधि भी कहें और यह भी बतायें कि जो शास्त्रोक्त यात्रा को त्यागकर केवल लिंग के ही दर्शन करता है वह किस गति को प्राप्त होता है ?
भगवान श्री शंकर ने कहा-
मनुष्य श्री अमरनाथ जी की यात्रा करके शुद्धि को प्राप्त करता है तथा शिवलिंग के दर्शनों से भीतर बाहर से शुद्ध होकर धर्म,अर्थ,काम वचन तथा मोक्ष को प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है।वह मनुष्य जो कि मार्ग के तीर्थों पर यथाविधि स्नान दान इत्यादि न करके सीधा गुफा ही में पहुंच जाता है उसकी यात्रा निष्फल समझो।
भगवान श्री शंकर ने कहा-
“हे देवी ! दो प्रकार की ऊपर तथा नीचे की यात्रा है। ऊर्ध्व (ऊपर) की यात्रा मोक्ष चाहने वाले योगियों के लिये प्राणायाम द्वारा है। प्राण तथा अपान वायु को एक कर योग-मार्ग दशम द्वार अर्थात् ब्रह्मरन्ध्र में प्राणों को लीन करके यात्रा करने से निश्चय ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। यह दोनों प्रकार की यात्रा धर्म-अर्थ काम तथा मोक्ष के इच्छुकों को करनी चाहिये। निम्न (निचली) यात्रा यानी पैदल यात्रा से मनुष्यों के सम्पूर्ण पाप दूर होकर चित्त निर्मल हो जाता है और इसी तरह हठयोग और राजयोग से तीर्थ पर किसी अच्चे विद्वान पंडित द्वार अमर कथा सुनने से पुरुष ज्ञान का अधिकारी हो जाता है। इस तरह से कहे गये के अनुसार यात्रा करने वाले मुक्ति को प्राप्त करते हैं। अत: पुण्य देने वाली निम्न यात्रा का यहाँ वर्णन है ।”
श्री नगर में विघ्नों का नाश करने वाले श्री गणेश जी की पूजा करे। रीति के अनुसार भगवान श्री शंकर का स्मरण करते हुए वहां से बाहर निकल कर षोडश तीर्थ पर स्नान तथा आचमन करके शिव की ओर बढ़े।
प्रिय! वहां गंगाजी का दअर्शन और प्रणाम करके भगवान श्री शंकर का पूजन,देवता और ऋषियों का तर्पण व ब्राह्मणों को भोजन करवायें।फिर अन्न,वस्त्र आदि दान देकर विसर्जन करें।फिर पद्मपुर में जो सिद्धों का स्थान है वहां पर स्नान करके और दान देकर युवतीतथा मिष्तो(मिटव) तीर्थों पर स्नान करके अवंतीपुर (बाँतीपुर) को चलें।
वहां साधु-महात्माओं के क्षेत्र में स्नान करके बहन्नग(मिहरनाग) जाकर हरी पांरा गांव में हरिदाख्य गणपति विघ्नों के नाश करने वाले श्री गणेश जी का पूजन करे और देवताओं तथा ऋषियों का तर्पण करें।देवताओं तथा पित्रों का तर्पण करने सए तथा दान करने से श्री गणेश के कृपा से मनुष्य के समस्तविघ्न तथा पाप नष्ट हो जाते हैं।िसके बाद बलिहार क्षेत्र (बहियार-ग्राम) में स्नान करके आगे बढ़ें।
नागाश्रम (बागहाँन) में, जिसको कि हस्तिकर्ण कहते हैं, संगम के समीप जाकर ज्येष्ठाषाढ़ नामक गणस्वामी भगवान श्री सदाशिव का पूजन करके आगे चलें। तीनों तापों तथा मलों का नाश करने वाले तीर्थ जल में स्नान व आचमन करके चक्र नामक तीर्थ (चक्रधर) पर जाकर स्नान करके देवताओं तथा ऋषियों का तर्पण करें और सोने का चक्र बना कर ब्राहमणों को दान देवें। फिर विधिवत् हवन तथा जप करके देवक तीर्थ (देवकयार) की ओर चलें।

और फिर वहां स्नान करके हरिश्चंद्र तीर्थ (विजय विहार) बीज बिहारा पहुँच कर स्नान करें तथा वृषभध्वज महादेवजी का पूजन कर हव्य कव्य आदि से देवताओं और र्षियों का तर्पण करें। गऊ, स्वर्ण, तिल और भोजन यथाशक्ति सत्पात्र ब्राह्मण को दान देवें। ऐसा करने से मनुष्य को ब्राह्मण को तृप्त करने के फल की प्राप्ति होती है। हे देवी ! इसके पश्चात भोजन करे और तीर्थ को नमस्कार करके आगे चले और लम्बोदरी नदी पर आलस्य रहित होकर स्नान करके ठुजवार ग्राम से भगवान श्रीसदाशिव के दर्शन करें। जिसके बाद सूर्य क्षेत्र (मार्तण्ड भवन-मटन) में सूर्य कुण्ड (सूर्य गंगा) में स्नान करके भगवान भास्कर का दर्शन करें।
श्री सूर्यनारायण का पूजन संसार के समस्त भोगों तथा मुक्ति को देने वाला है यात्रियों को सुर्य-क्षेत्र में अन्न वस्त्र आदि का दान ब्राह्मणों को देना चाहिए यह सूर्य-क्षेत्र (मटन) तीर्थ अपने कर्मों से दुखी हुए पितरों के उद्धर के लिए अत्तम है, ऐसा देवताओं तथा ऋषियों-महर्षियों का मत है। हे देवी ! यहां पर पिण्डदान आदि से पितरों का उद्धर करें। दोनों कुंडों का दर्शन करें और फिर उनमें मत्स्य रूपी देवताओं का दर्शन कर उनकोनाना मंत्रों से तृप्त करें। पश्चिम-वाहिनी गंगा में स्नान करके पितरों के उद्धर के लिए श्राद्ध करें।
इसके बाद सत्कार (साकरस) स्थान पहुँचे, स्नान करें और गणेश का पूजन करें और फिर भद्राश्रम में जायें। फिर परम पवित्र हयशीर्ष (सिलगाम) आश्रम में तथा स्त्रश्वतर क्षेत्र में गंगाजल में स्नान करके संध्या वंदन आदि नित्य –क्रिया करें।
(सरलक सलर) ग्राम में पहुँच कर पवित्र अनन्तनाग तालाब के जल में स्नान कर उत्तम बालखिल्य आश्रम (ख्यिलन) को जाना चाहिए।
हे देवी ! अब मैं पाप ताप को हरने वाले तथा चित्त को शुद्ध करने वाले बालखिल्य तीर्थ का महात्म्य सुनाता हूँ । ध्यानपूर्वक सुनो, पूर्वकाल में बाल-खिल्य नामक महर्षियों ने घोर तप किया।
फिर भगवान श्री विष्णु ने मेघ सदृश गम्भीर वाणी से कहा मैं तुम्हारे तप से अत्यधिक प्रसन्न हूँ अत: तुम वर मांगो । तब ऋषियों ने कहा कि हे देव ! यदि आप हम पर प्रसन्न हैं तो यहां पर गंगा को ला दिजिये। ऋषियों की प्रार्थना सुनकर भगवान श्री विष्णु ने अपने चरणों से धरती को छूकर वहां से गंगा को प्रकट किया।
और उसके साथ ही उन लोगों को यह वरदान भी दिया कि प्रलय पर्ययन्त बालखिल्य तीर्थ लोगों को पवित्र करता रहेगा । पवित्र और पुण्य खिल्यायान तीर्थ पर मनुष्य स्नान, दान तथा जप पूजा करें और इससे स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
उस बालखिल्य तीर्थ पर जगद्गुरु सर्वव्यापी नारायण का पूजन करें जो कि नाना प्रकार के भोगों तथा मोक्ष के प्रदान करने वाले हैं। तीर्थ पर स्नान और यथाशक्ति दान देकर महावन (गणेशबल –यह पहल्गाम में है) में श्री गणेशजी का पूजन करें।

हे सुंदरी !श्री गणेशजी को नमस्कार करके लड्डुओं तथा क्षीर का भोग लगावे।
पाप तथा विघ्नों से रहित होकर मामेश्वर (मामलेश्वर) क्षेत्र को जावे । हे साध्वी !मामलेश्वर भगवान के दर्शन या तीर्थ जल में स्नान करके मनुष्य रोगों तथा पापों से छोट जाता है।यहां पर स्नान करने के पश्चात मनुष्य दान करे तथा ब्रह्मणों को भोजन करवायें।
एक समय भगवान श्री सदाशिव श्री गणेश जी को दोनों ड्योढ़ियों का द्वारपाल बनाकर आप स्थलबाद को चले गये थे। वहां पर थोड़ी देर ठहर कर खिल्यायन से ऊपर ददण्डक मुनि के आश्रम जाकर विश्राम करने लगे। वहां देवता आये, भगवान सदाशिव ने कहा- “ आगे मत बढ़िये ।”इस शब्द को सुनकर गनेश जी पाताल देश से आए और उन्होंने भी यही शब्द कहे और इस शब्द से फिर देवता भगवान श्री सदाशिव मे लीन हो गए। अत: फिर यह ग्राम ‘मामल’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। भगवान श्री सदाशिव ने श्रीगणेश जी से कहा तुम “मामल” शब्द सुनकर पाताल से यहाँ आये हो अत: दीर्घकाल तक यहाँ ठहरो और समस्त विघ्नों को दूर करो।
जो मनुष्य यहां पर तुम्हारा पूजन करेंगे वह परम सिद्धि को प्राप्त करेंगे। यह वरदान श्री सदाशिव जी श्री गणेश जी को देकर दण्डकारण्य में अन्तर्ध्यान हो गए।मनुष्य को पवित्र मामलक (ग्राम) में मामेश्वर का दर्शन करने और श्री गणेश जी का पूजन करने से अश्वमेघ का फल मिलता है। श्री गणेश जी की कृपा से मनुष्य की सम्पूर्ण कामनाएं पूर्ण होकर उसे पशु, पुत्र तथा धन की प्राप्ति होती है और उसकी यात्रा भी सफल हो जाती है।
इसके पश्चात समस्त पापों को मिटाने वाले भृगुपति तीर्थ (यह तीर्थ पहल्गांव में डाक बंगला के समीप है) जाकर वहाँ विधिवत स्नान तथा दान करके भगवान श्री हरि का पूजन करें।

भृगुजी ने परिशीलन वन में दीर्घकाल तक बड़ा भारी तप किया था। ऐसा कठिन तप जो देवता भी ना कर सकते थे। इसी बीच में भगवान श्री विष्णु देवताओं के साथ महर्षि भृगुजी के दर्शनों के लिये आये। भृगुजी ने अपने आसन पर से उठकर उनको प्रणाम किया और सदैव एक रस रहने वाले भगवान श्री विष्णु ने उनके सर को चूमकर उनको गले से लगा लिया।
हे माहेश्वरी ! भृगु और विष्णु भगवान ने आपस में आलिंगन किया। उनके शरीर में से पवित्र पसीना निकला जिससे वह पवित्र तीर्थ बना।
श्री सदाशिव बोले –
" हे देवी ! " क्योंकि यह तीर्थ भृगु के पसीने से बना है अत: इसका नाम भृगु-तीर्थ प्रसिद्ध हुआ। यहाँ पर जो मनुष्य स्नान करके ताँबे तथा वस्त्र का दान करेगा उसकी यात्रा निसन्देह सफल होगी। वह मनुष्य स्नान करने से अति उत्तम पुण्य को प्राप्त होता है।
एक बार कैलाश पर्वत पर भगवान श्री सदाशिव और श्री पार्वती ज्ञान सम्बन्धी बातचीत कर रहे थे। उन्हों ने श्री गणेश को द्वारपाल बनाकर उनसे कह रखा था कि किसी को अन्दर मत आने देना। इतने में देवराज इंद्र देवताओं सहित वहां आये। गणेश जी ने उनको रोका इस पर दोनों में बडा भारी युद्ध हुआ और इंद्र हार गये। इंद्र के साथ लड़ने से श्री गणेश जी को बहुत ज्यादा भूख व प्यास महसूस हुई। तब श्री गणेश जी ने बहुत स्वादिष्ट फल खाकर बहुत सा गंगाजल पी लिया जिससे उनका पेट बढ़ गया। तब से ही भगवान श्री सदाशिवजी श्री गणेश जी को लम्बोदर के नाम से पुकारने लगे।
हे देवी ! भगवान श्री सदाशिव ने जब गंगा को सूखा हुआ देखा तो क्रोध में भरकर श्री गणेश जी के पेट पर डमरू से चोट की। जिससे गंगा उनके पेट में से निकलकर बहने लगी और पौराणिक कथाओं मे उसका नाम लम्बोदरी प्रसिद्ध हुआ।
हे प्रिये ! लम्बोदरी नदी के जल का स्पर्श कोटि जन्मों के पापों का नाश करता है। इसीलिए मामलेश्वर के पास इस नदी का स्पर्श करना आवश्यक है।
ततो गत्वा रञ्जिवने पश्येद्वर्तुलाकारकोपलम्।स्नानं कृत्वा तत: सीताराम लक्ष्मण कुण्डके॥
इसके पश्चात् रन्जिवन में गोलाकार पत्थर की देव मूर्ति का दर्शन करे और वहां से सीताराम कुण्ड में स्नान करके आगे बढ़ें ।
सीता,लक्ष्मण तथा राम ने विचरते-विचरते रम्ज्नख्य पवित्र वन में आकर मदयुक्त राक्षसों को देखा। इससे उनको पसीना आ गया वह पसीना कुण्डों में पड़ने से यह कुण्ड परम पवित्र हो गये। भगवान श्री रामचन्द्र जी महाराज पाषाण पर चढ़कर बाणों से राक्षसों को समाप्प्त करने लगे। बहुत से राक्षस मारे गये और बाकी के इधर-उधर भाग गये। उन राक्षसों का खून गिरने से यह गंदशैल (छोटी पहाड़ी) रंगीन हो गई और भगवान श्री रामचंद्र जी महाराज के चरण स्पर्श से दूसरों को पवित्र करने वाली हो गयी। इस रम्ज्नोपल के दर्शन से मनुष्य पापों से मुक्त हो जाता है और कुण्ड में स्नान करने समस्त पापों से छुटकर मुक्त हो जाता है।
इसके बाद नीलगंगा में स्नान करके प्रसन्नचित्त हो स्थानु-आश्रम (चन्दनवाड़ी) की यात्रा करें।
हे देवी ! एक बार काम-क्रीड़ा तथा खेल की बातों में भगवान श्री सदाशिव का मुख श्री पार्वती जी के नेत्रों के साथ लग गया। हे सुंदरी! तब उनका मुख अंजन (सुरमे) के कारण काला हो गया।
फिर भगवान श्री सदाशिव जी ने सुरमे से काले हुए मुख को श्री गंगा जी में धोया, जिससे गंगा जी का रंग काला पड़ गया अत: गंगा का नाम नील गंगा प्रसिद्ध हो गया। यह नदी महापापों को नष्ट करने वाली है।
नीला गंगा का स्पर्श दुष्ट मनुष्यों के साथ रहकर जो दोष प्राप्त होता है, उन्हें तथा स्त्रियों के मन के विकारों का नाश करने वाला है इसमें रत्ती भर भी संदेह नहीं है। यह नील गंगा पहलगांव से 6-1⁄2 मील चंदनवाड़ी के मार्ग में है।
पूर्वकाल में भगवान श्रीसदाशिव दक्षप्रजापति की पुत्री सती का वियोग हो जाने पर हिमालय पर कठिन तप करने लगे। महेश्वरी फिर वहां पर श्री सदाशिव जी का बहुत वर्षों तक सेवा करती रही।
सती ने पर्वतराज के यहां जन्म लेकर पार्वती का रूप पाया। तपस्या करनेके पश्चात् भगवान सदाहिव की सेवा करने लगी।
लेकिन उनकी सेवा करने पर भी भगवान श्री सदाशिव की समाधि न खुलने पाई।
तब श्री पर्वती जी चंदन वाटिका में बड़ी घबराई। जिस वाटिका में भगवान सदाशिव वृक्ष के समान निश्चल रूप से तप में स्थित थे। उस वाटिका का नाम बाद में महापाप विनाशक प्रसिद्ध हुआ। हे देवी ! इस स्थानु आश्रम (चन्दनवाड़ी) के पास जो स्नान करता है वह शिव-धाम को प्राप्त होता है।
ब्रह्म हत्य तथा गौ हत्या आदि महा पाप करने वाला मनुष्य यदि चंदन वाड़ी में स्नान करे तो समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।
सरस्वती नदी का दर्शन करने से एवं उसमें सनान करने से मनुष्य समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। इसके पश्चात् यात्री को पौषाख्य पर्वत (पिस्सू घाटी) पर चढ़ना चाहिए।
एक बार देवता और राक्षस भगवान श्री सदाशिव जी के दर्शनों के लिए आए। वह पहाड़ पर चढ़ते समय ईर्ष्या में ग्रस्त होकर कहने लगे कि हम पहले चढ़ेंगे। दोनों में युद्ध होने लगा। देवताओं ने राक्षसों से हटकर भगवान श्री सदाशिव जी का ध्यान किया।
प्रिय ! भगवानश्री सदाशिव जी देवताओं के श्यान से प्रसन्न हुए और उनकी कृपा से देवताओं ने राक्षसों को मार-मारकर चूर्ण कर दिया। जिस स्थान पर देवताओं ने राक्षसों का चूर्ण बनाया, वहाँ पर उनकी अस्थियों का एक बहुत बड़ा ढ़ेर लग गया। और यह पर्वत , यानि पिस्सू घाटी, अब शिव भक्तों की पाप-ताप हरती है। हे देवी! “ श्री-४ शितीखण्ड” इस मंत्र को स्मरण करता हुआ जो इस पहाड़ पर चडता है उसको ब्रह्मलोक प्राप्त होता है। वह ब्रह्मलोक जहाँ पर कि पाप-ताप व शोक का नाम तक भी नहीं है।
इस पिस्सू घाटी पर विधिवत श्री शेषनाग का दर्शन कर पूजन करके आगे बढ़ें।
वायुर्जन में पत्थरों से छोटी मढ़ी बनाकर भगवान श्री अमरेश्वत का स्मरण करें।
प्राचीन काल में इस पहाड़ पर एक बड़ा ही बलवान वायु के समान रूप वाला राक्षस रहता था और वह यहां आने वाले देवताओं को बड़ा कष्ट पहुँचाता था। देवता भगवान श्री सदाशिव जी महाराज के पास गये। स्तुति के पश्चात् भगवान श्री सदाशिव जी प्रसन्न हुए। देवताओं ने उनको राक्षसों के सम्बन्ध में बताया। भगवान श्री सदाशिव जी महाराज ने कहा कि मैंने इसको वरदान दिया हुआ है जिससे मैं इसको नहीं मार सकता। तुम भगवान श्री विष्णु जी की शरण में जाओ। इस पर देवताओं ने क्षीर सागर के तट पर जाकर भगवान श्री विष्णु की स्तुति की। भगवान श्री विष्णु देवताओं की स्तुति से प्रसन्न होकर बोले मैं अभी-अभी वायुरूपी दैत्य को नष्ट किये देता हूँ। तुम लोग स्वर्ग धाम को जाओ। शेषनाग जी पातल से प्रगट हुए। उस पर भगवान श्री विष्णु सवार हुए और आज्ञा दी
हे सर्पराज ! तुम सहस्त्र मुखों से वायु का पान करो। अपने प्राणों को इस वायु द्वारा तृप्त करो, क्यों कि तुम वायु के खाने वाले हो। भगवान के अमृत रूपी वचन सुनकर एक क्षण में शेषनाग ने देखते ही देखते वायु रूपी दैत्य का भक्षण कर लिया।
हे देवी ! उस दिन से ये पर्वत शेषनाग के नाम से प्रसिद्ध है, तथा योगी जन इसको अपना आश्रम भी कहते हैं। इसके दर्शन से तथा तालाब में स्नान करने से और यहां पर जप, हवन, स्तुति का स्वाध्याय करने से मनुष्य अनन्त पुण्य को प्राप्त होता है। जब देवताओं ने राक्षसों को मार डाला तब उनमें से प्रष्टता नामक दैत्य वायु में मिलकर देवताओं को कष्ट देने लगा। इस पर समस्त देवता भगवान श्री सदाशिव जी महाराज के पास गए और उनकी स्तुति की। इस पर भगवान श्री सदाशिव जी महाराज ने प्रसन्न होकर कहा।
हे देवताओं ! तुम लोग यहां मढ़िएं बनाकर वायु को रोक दो। इस पर वे वहां पर पत्थर की मढ़ियां बनाकर शांतिपूर्वक रहने लगे। लेकिन एक बार दैत्य ने अपना उग्र रूप दिखाया। तब देवराज इंद्र ने अपना वज्र उठाया, और उसी जगह राक्षस को मार डाला। तब से यह जगह वायुवर्जन देवताओं से पूजित तीर्थ प्रसिद्ध हुआ। यहां पत्थरों द्वारा देवताओं के लिए छोटे-छोटे घर बनाने तथा तीर्थ के दर्शनसे मनुष्य अत्यन्त पुण्य को प्राप्त होता है। ब्रह्म हत्या और गौ-हत्या से युक्त मनुष्य इस तीर्थ के दर्शनों से इन महापापों से छुट जाता है।
हे देवी ! जिस कारण यह तालाब (हत्यारा तालाब ) सूख गया है वह सुनो। इसके सुनने से प्राणी संशय से रहित हो जाता है।
जब भगवान श्री सदाशिव जी महाराज तथा देवराज इंद्र ने राक्षसों को नष्ट किया तो कुछ राक्षस भागकर इस तालाब में छिप गए और फिर वह रक्षस थोड़े समय के पशचात् , देवताओं को पूर्ववत् दु:ख देने लगे। भगवती पार्वती और सदाशि जी महाराज विचरते हुए वहां आए। भगवती पारव्ती ने भगवान श्री सदाशिव जी महाराज से देवताओं के दुख दूर करने के लिए कहा। भगवान श्री सदाशिव महाराज ने हुँकार किया, जिससे वह राक्षस डर कर इस तालाब में जाकर छुप गए। भगवान श्री सदाशिव महाराज ने शाप दिया कि वह तालाब सूख जाये। तब से वह तालाब सूख गया, इस स्थान पर यात्रियों को मौन होकर यात्रा करनी चाहिए।
हे सुंदरी ! इसके बाद पंचतरपिणी (पंचतरनी) के पंच प्रवाहों में स्नान करें और देवता तथा पितरों का सावधान होकर तर्पण करें।
पूर्व काल में एक बार भगवान श्री सदाशिव महाराज ताण्डव- नृत्य कर रहे थे और नृत्य करते समय उनका जटाजूट ढीला हो गया और उसमे से फिर पंचतरनी गंगा निकली जो महापापों को दूर करने वाली है। जो मनुष्य आलस्य रहित इस पंचतरनी नदी में स्नान करता है, वह ब्रह्म-हत्या आदि घोर पाप से मुक्त हो जाता है। यहां पर स्नान करने वालों को वही फल मिलता है जो कुरुक्षेत्र, प्रयाग, नैमिषारण्य में स्नान तथा दान करने से प्राप्त होता है।
हे सुंदरी ! यदि इस तीर्थ पर गऊ, वस्त्र, चन्दन, केसर, अगर, कस्तुरी आदि ब्राह्मण को दान दिए जायें तो यात्री को शिवधाम की प्राप्ति होती है। इसके पश्चात् ऊँची चोटी वाले पहाड़ पर चढ कर डमारक देवता के दर्शन करने चाहिए।
बड़े से बड़ा पापी भी डमारक देवता के दर्शन करने से पापों को छुट जाता है। हे देवी ! अधिक क्या कहूँ ? बस इतना कहना ही पर्याप्त है कि यात्री डमारक देवता की पूजा तथा परिक्रमा करने से ही श्री अमरनाथ के दर्शन योग्य होता है।
एक बार भगवान श्री सदाशिव जी महाराज नृत्य में इतने लीन हो गए कि उनका संध्या का समय भी व्यतीत हो गया। इससे उनको बड़ी चिंता हुई।
एक बार भगवान श्री सदाशिव जी महाराज श्री कार्तिक स्वामी के साथ क्रीड़ा कर रहे थे कि उक्त गण को निद्रा आ गई और भगवान श्री सदाशिव जी महाराज का संध्या काल व्यतीत हो गया। इससे भगवान श्री सदशिवजी महाराज के क्रोध का कोई पारावार ना रहा और उन्होंने उक्त गण को श्राप दिया कि वह शिला रूप होकर देर तक वहां ठहरे। वह गण काँपता हुआ भगवान श्री सदाशिव महाराज की सेवा में उपस्थित हुआ, लेकिन भगवान ने उसको क्षमा नहीं किया लेकिन यह जरूर कहा कि जो यहां पर मेरे (श्री अमरनाथ जी के) के दर्शन के लिए आएग, वह पहले तुम्हारी पूजा तथा परिक्रमा करेगा। हे देवी ! उस दिन से महाडमारक गण रत्न नामक शिखर पर पाषाण रूप होकर रहता है और जो मनुष्य उसका पूजन करता है वह शिवधाम को प्राप्त होता है। यात्रीको चाहिए कि श्र्रवनी के दिन प्रात: काल भैरों घाटी की यात्रा करते हुए चोटी पर डमारक की षरण में पहुँचे। डामरेश्वर भैरव का दर्शन और भक्ति सहित पूजन कर व्रत की जोत जलाये और मालपुओं तथा लड्डुओं का भोग लगाये।
परिक्रमा और प्रणाम कर पहाड़ से उतरते समय मध्य में चलता हुआ, मार्ग में जो गर्भयोनि है, उसमें प्रवेश करें क्योकि इसमें एक बार जाने से फिर मनुष्य का पुनर्जन्म नहीं होता है। गर्भयोनि से निकल कर अमरावती नदी में प्रवेश करें। अमरावती के दर्शन मात्र से मनुष्य देवता तुल्य हो जाता है। इस नदी के अमृत समान जल में स्नान करके यात्री को चाहिए कि भस्म को अपने शरीर पर मले।
देवी ! जो मनुष्य पवित्र गर्भ्योनि में से निकल कर अमर गुफा को जाता है उसका फिर पुनर्जन्म नहीं होता है और फिर वह शिवरूप हो जाता है। देवी! यह बात बिल्कुल सत्य है। हे ईशानि ! जब भगवान श्री सदाशिव जी महाराज कैलाश पर्वत पर नृत्य कर रहे थे, उस समय नन्दी उनकी आज्ञानुसार द्वारपाल था।
देवता भगवान श्री सदाशिव जी महाराज के दर्शन के लिए आए तो नन्दी ने उनको रोका। तब देवताओं तथा नन्दी में परस्पर युद्ध होने लगा। नन्दी ने भगवान श्री सदाशिव जी महाराज से शिकायत की।
भगवान श्री सदाशिव जी महाराज ने नन्दी से कहा- तुम दण्ड धारण करो। देवता तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकेंगे। तुम द्वार पर चलो और दीवर बनाकर मार्ग में गर्भयोनि को रखा दो। देवता उसमें प्रवेश न कर सकेंगे।
हे भगवान श्री सदाशिव जी महाराज की बात सुनकर नन्दी ने गर्भ्गृह की आगे एक बहुत बड़ा पत्थर रख दिया, जिसमें कि योनि सदृश छिद्र था। हे प्रिये ! जो पुरुष जन्म जन्मान्तर के पापों से मुक्त होना चाहे वह गर्भ्योनि में से निकल कर श्री अमरनाथ के दर्शन करे। फिर अमरावती नदी में स्नान कर, उसी की भस्म रूप कीचड़ को शरीर पर मलकर और उनसे सफेद होकर थोडे वस्त्र, कोपीन, और रेशमी धोती को पहन कर ‘सन्मार्ग प्रदान करो ’, कहते हुए तथा ‘ शिव शिव’ उच्चारण करते हुए क्रोध, मोह आदि को त्याग कर पहाड़ पर चढ़ें। मनुष्य गुफा में स्थित अमरेश्वरभगवान (देवताओं के देव भगवान )को नमस्कार करें और प्रभु के चरणों में मन लगाकर भक्ति के साथ इस तरह स्तुति करें --

दयां कुरु हे दयासागर हर हर शिव शंकर शम्भो । दयां कुरु हे दयासागर हर हर शिव शंकर शम्भो॥
संकटभूधरभेदनिमूदन शशिधरशेखर नरकारे । भवसागर तारक हे त्र्यम्बक! भवभयहरशंकर शम्भो॥
वाह्याभ्यन्तरदोषाणां क्षये तद्दर्शनं नृणाम् । दर्शमात्स्पर्शनाचि पूजनाच्चापिबंदनात्।।
अमरेशस्य तल्लिङ्ग सत्यं नैवात्र संशय: । महापापकयुक्तानां युक्तनामुपपातकै:॥
सर्वपापापहं नान्यत्सुलभं देस्तरे कलौ । स्नानानीत्थं वितस्तायांषट्प्रोकतानिपथोन्तरे॥
त्रिंशदन्यत्र यात्रायाममरेश्वरदर्शने । षट्त्रिशंत्तत्वरूपाणां क्षेत्राणां परत: स्थित:॥
इत्थं सम्पाप्यते शुद्धं शिवधामामृतेश्वर: । एवं कृत्वा नरो यात्रां पश्येद् लिंग रसात्मकम्॥
सयाति शिवसायुज्यं यतो भूयो ना जायते॥

सुधालिंग के दर्शनों से मनुष्य के बाहर व भीतर का मैल नष्ट होकर वह शुद्ध या पवित्र हो जाता है। अमृत से बने हुए सुधालिंग के दर्शनों, स्पर्श, पूजन तथा वन्दन से महापापी मनुष्य भी समस्त पापों से कह्होट जाता है। कल्युग में मुक्ति का इससे बढ कर दूसरा साधन बिल्कुल नहीं है। वितस्ता (झेलम नदी) में ६ स्नान और श्री अमरनाथ जी की यात्रा में ३० स्नान हैं। इसके अलावा यहां पर देवताओं के ३६ स्थान है उन देवस्थानों के दर्शन करने से मनुष्य को शिवधाम की प्राप्ति होती है। इस प्रकार यदि मनुष्य यात्रा करता हुआ रसात्मकलिंग के दर्शन करे तो मोक्ष को प्राप्त होता है। जिससे कि उसको फिर बार-बार जन्म मरण का दु:ख नहीं भोगना पड़ता।

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