भगवान
विश्वकर्मा
हम अपने प्राचीन
ग्रंथो उपनिषद एवं पुराण आदि का अवलोकन करें तो पायेगें कि आदि काल से ही
विश्वकर्मा शिल्पी अपने विशिष्ट ज्ञान एवं विज्ञान के कारण ही न मात्र मानवों
अपितु देवगणों द्वारा भी पूजित और वंदित है । भगवान विश्वकर्मा के आविष्कार एवं
निर्माण कोर्यों के सन्दर्भ में इन्द्रपुरी, यमपुरी, वरुणपुरी,
कुबेरपुरी, पाण्डवपुरी, सुदामापुरी,
शिवमण्डलपुरी आदि का निर्माण इनके द्वारा किया
गया है । पुष्पक विमान का निर्माण तथा सभी देवों के भवन और उनके दैनिक उपयोगी
होनेवाले वस्तुएं भी इनके द्वारा ही बनाया गया है । कर्ण का कुण्डल, विष्णु भगवान का सुदर्शन चक्र, शंकर भगवान का त्रिशुल और यमराज का कालदण्ड
इत्यादि वस्तुओं का निर्माण भगवान विश्वकर्मा ने ही किया है ।
vishwakarmaभगवान विश्वकर्मा
ने ब्रम्हाजी की उत्पत्ति करके उन्हे प्राणीमात्र का सृजन करने का वरदान दिया और
उनके द्वारा 84 लाख योनियों को
उत्पन्न किया । श्री विष्णु भगवान की उत्पत्ति कर उन्हे जगत में उत्पन्न सभी
प्राणियों की रक्षा और भगण-पोषण का कार्य सौप दिया । प्रजा का ठीक सुचारु रुप से
पालन और हुकुमत करने के लिये एक अत्यंत शक्तिशाली तिव्रगामी सुदर्शन चक्र प्रदान
किया । बाद में संसार के प्रलय के लिये एक अत्यंत दयालु बाबा भोलेनाथ श्री शंकर
भगवान की उत्पत्ति की । उन्हे डमरु, कमण्डल, त्रिशुल आदि
प्रदान कर उनके ललाट पर प्रलयकारी तिसरा नेत्र भी प्रदान कर उन्हे प्रलय की शक्ति
देकर शक्तिशाली बनाया । यथानुसार इनके साथ इनकी देवियां खजाने की अधिपति माँ
लक्ष्मी, राग-रागिनी वाली
वीणावादिनी माँ सरस्वती और माँ गौरी को देकर देंवों को सुशोभित किया ।
हमारे
धर्मशास्त्रो और ग्रथों में विश्वकर्मा के पाँच स्वरुपों और अवतारों का वर्णन
प्राप्त होता है ।
विराट विश्वकर्मा
– सृष्टि के रचेता
धर्मवंशी
विश्वकर्मा – महान शिल्प
विज्ञान विधाता प्रभात पुत्र
अंगिरावंशी
विश्वकर्मा – आदि विज्ञान
विधाता वसु पुत्र
सुधन्वा
विश्वकर्म – महान शिल्पाचार्य
विज्ञान जन्मदाता ऋशि अथवी के पात्र
भृंगुवंशी
विश्वकर्मा – उत्कृष्ट शिल्प
विज्ञानाचार्य (शुक्राचार्य के पौत्र )
देवगुरु बृहस्पति
की भगिनी भुवना के पुत्र भौवन विश्वकर्मा की वंश परम्परा अत्यंत वृध्द है।सृष्टि
के वृध्दि करने हेतु भगवान पंचमुख विष्वकर्मा के सघोजात नामवाले पूर्व मुख से
सामना दूसरे वामदेव नामक दक्षिण मुख से सनातन, अघोर नामक पश्चिम मुख से अहिंमून, चौथे तत्पुरुष नामवाले उत्तर मुख से प्रत्न और पाँचवे ईशान
नामक मध्य भागवाले मुख से सुपर्णा की उत्पत्ति शास्त्रो में वर्णित है। इन्ही सानग,
सनातन, अहमन, प्रत्न और सुपर्ण नामक
पाँच गोत्र प्रवर्तक ऋषियों से प्रत्येक के पच्चीस-पच्चीस सन्ताने उत्पन्न हुई
जिससे विशाल विश्वकर्मा समाज का विस्तार हुआ है ।
शिल्पशास्त्रो के
प्रणेता बने स्वंय भगवान विश्वकर्मा जो ऋषशि रुप में उपरोक्त सभी ज्ञानों का
भण्डार है, शिल्पो कें आचार्य शिल्पी
प्रजापति ने पदार्थ के आधार पर शिल्प विज्ञान को पाँच प्रमुख धाराओं में विभाजित
करते हुए तथा मानव समाज को इनके ज्ञान से लाभान्वित करने के निर्मित पाणच प्रमुख
शिल्पायार्च पुत्र को उत्पन्न किया जो अयस ,काष्ट, ताम्र, शिला एंव हिरण्य शिल्प के अधिषश्ठाता मनु,
मय, त्वष्ठा, शिल्पी एंव
दैवज्ञा के रुप में जाने गये । ये सभी ऋषि वेंदो में पारंगत थे ।
स्कन्दपुराण के
नागर खण्ड में भगवान विश्वकर्मा के वशंजों की चर्चा की गई है । ब्रम्ह स्वरुप
विराट श्री.विश्वकर्मा पंचमुख है । उनके पाँच मुख है जो पुर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण और ऋषियों
को मत्रों व्दारा उत्पन्न किये है । उनके नाम है – मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी और देवज्ञ ।![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjHo8PArblZ5GDF4mAS_OCM0yeJ7eUt1Ey81_r-89-JPnzfX0aYueqCIjc0_BlkXeFPLNh7jdDW4oQfS8jKHOpiZADO7zy4HyOIj_0fOjhFpzBL4YUGbzbGu-yzSIrG_Hwv8qURIJUbHpE/s1600/download+(58).jpg)
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ऋषि मनु
विष्वकर्मा – ये “सानग गोत्र” के कहे जाते है ।
ये लोहे के कर्म के उध्दगाता है । इनके वशंज लोहकार के रुप मे जानें जाते है ।
सनातन ऋषि मय – ये सनातन गोत्र कें कहें जाते है । ये बढई के कर्म के उद्धगाता है। इनके वंशंज
काष्टकार के रुप में जाने जाते है।
अहभून ऋषि
त्वष्ठा – इनका दूसरा नाम त्वष्ठा है जिनका गोत्र अहंभन है । इनके
वंशज ताम्रक के रूप में जाने जाते है ।
प्रयत्न ऋषि
शिल्पी – इनका दूसरा नाम शिल्पी है जिनका गोत्र प्रयत्न है । इनके
वशंज शिल्पकला के अधिष्ठाता है और इनके वंशज संगतराश भी कहलाते है इन्हें
मुर्तिकार भी कहते हैं ।
देवज्ञ ऋषि – इनका गोत्र है सुर्पण । इनके वशंज स्वर्णकार के रूप में जाने जाते हैं । ये
रजत, स्वर्ण धातु के शिल्पकर्म
करते है, ।
परमेश्वर
विश्वकर्मा के ये पाँच पुत्रं, मनु, मय, त्वष्ठा, शिल्पी और देवज्ञ
शस्त्रादिक निर्माण करके संसार करते है । लोकहित के लिये अनेकानेक पदार्थ को
उत्पन्न करते वाले तथा घर ,मंदिर एवं भवन,
मुर्तिया आदि को बनाने वाले तथा अलंकारों की
रचना करने वाले है । इनकी सारी रचनाये लोकहितकारणी हैं । इसलिए ये पाँचो एवं वन्दनीय
ब्राम्हण है और यज्ञ कर्म करने वाले है । इनके बिना कोई भी यज्ञ नहीं हो सकता ।
मनु ऋषि ये भगनान
विश्वकर्मा के सबसे बडे पुत्र थे । इनका विवाह अंगिरा ऋषि की कन्या कंचना के साथ
हुआ था इन्होने मानव सृष्टि का निर्माण किया है । इनके कुल में अग्निगर्भ, सर्वतोमुख, ब्रम्ह आदि ऋषि उत्पन्न हुये है ।
भगवान विश्वकर्मा
के दुसरे पुत्र मय महर्षि थे । इनका विवाह परासर ऋषि की कन्या सौम्या देवी के साथ
हुआ था । इन्होने इन्द्रजाल सृष्टि की रचना किया है । इनके कुल में विष्णुवर्धन,
सूर्यतन्त्री, तंखपान, ओज, महोज इत्यादि महर्षि पैदा हुए है ।
भगवान विश्वकर्मा
के तिसरे पुत्र महर्षि त्वष्ठा थे । इनका विवाह कौषिक ऋषि की कन्या जयन्ती के साथ
हुआ था । इनके कुल में लोक त्वष्ठा, तन्तु, वर्धन, हिरण्यगर्भ शुल्पी अमलायन ऋषि उत्पन्न हुये है
। वे देवताओं में पूजित ऋषि थे ।
भगवान विश्वकर्मा
के चौथे महर्षि शिल्पी पुत्र थे । इनका विवाह भृगु ऋषि की करूणाके साथ हुआ था ।
इनके कुल में बृध्दि, ध्रुन, हरितावश्व, मेधवाह नल, वस्तोष्यति,
शवमुन्यु आदि ऋषि हुये है । इनकी कलाओं का
वर्णन मानव जाति क्या देवगण भी नहीं कर पाये है ।
भगवान विश्वकर्मा
के पाँचवे पुत्र महर्षि दैवज्ञ थे । इनका विवाह जैमिनी ऋषि की कन्या चन्र्दिका के
साथ हुआ था । इनके कुल में सहस्त्रातु, हिरण्यम, सूर्यगोविन्द,
लोकबान्धव, अर्कषली इत्यादी ऋषि हुये ।
इन पाँच पुत्रो
के अपनी छीनी, हथौडी और अपनी
उँगलीयों से निर्मित कलाये दर्शको को चकित कर देती है । उन्होन् अपने वशंजो को
कार्य सौप कर अपनी कलाओं को सारे संसार मे फैलाया और आदि युग से आजलक अपने-अपने
कार्य को सभालते चले आ रहे है ।
विश्वकर्मा वैदिक
देवता के रूप में मान्य हैं, किंतु उनका
पौराणिक स्वरूप अलग प्रतीत होता है। आरंभिक काल से ही विश्वकर्मा के प्रति सम्मान
का भाव रहा है। उनको गृहस्थ जैसी संस्था के लिए आवश्यक सुविधाओं का निर्माता और
प्रवर्तक कहा माना गया है। वह सृष्टि के प्रथम सूत्रधार कहे गए हैं-
देवौ सौ सूत्रधार: जगदखिल हित: ध्यायते सर्वसत्वै।
वास्तु के 18 उपदेष्टाओं में विश्वकर्मा को प्रमुख माना गया
है। उत्तर ही नहीं, दक्षिण भारत में
भी, जहां मय के ग्रंथों की
स्वीकृति रही है, विश्वकर्मा के
मतों को सहज रूप में लोकमान्यता प्राप्त है। वराहमिहिर ने भी कई स्थानों पर
विश्वकर्मा के मतों को उद्धृत किया है।
विष्णुपुराण के
पहले अंश में विश्वकर्मा को देवताओं का वर्धकी या देव-बढ़ई कहा गया है तथा
शिल्पावतार के रूप में सम्मान योग्य बताया गया है। यही मान्यता अनेक पुराणों में
आई है, जबकि शिल्प के ग्रंथों
में वह सृष्टिकर्ता भी कहे गए हैं। स्कंदपुराण में उन्हें देवायतनों का सृष्टा कहा
गया है। कहा जाता है कि वह शिल्प के इतने ज्ञाता थे कि जल पर चल सकने योग्य खड़ाऊ
तैयार करने में समर्थ थे।
सूर्य की मानव
जीवन संहारक रश्मियों का संहार भी विश्वकर्मा ने ही किया। राजवल्लभ वास्तुशास्त्र
में उनका ज़िक्र मिलता है। यह ज़िक्र अन्य ग्रंथों में भी मिलता है। विश्वकर्मा
कंबासूत्र, जलपात्र, पुस्तक और ज्ञानसूत्र धारक हैं, हंस पर आरूढ़, सर्वदृष्टिधारक, शुभ मुकुट और वृद्धकाय हैं—
कंबासूत्राम्बुपात्रं
वहति करतले पुस्तकं ज्ञानसूत्रम्।
हंसारूढ़स्विनेत्रं
शुभमुकुट शिर: सर्वतो वृद्धकाय:॥
उनका अष्टगंधादि
से पूजन लाभदायक है।
विश्व के सबसे
पहले तकनीकी ग्रंथ विश्वकर्मीय ग्रंथ ही माने गए हैं। विश्वकर्मीयम ग्रंथ इनमें
बहुत प्राचीन माना गया है, जिसमें न केवल
वास्तुविद्या, बल्कि रथादि वाहन
व रत्नों पर विमर्श है। विश्वकर्माप्रकाश, जिसे वास्तुतंत्र भी कहा गया है, विश्वकर्मा के मतों का जीवंत ग्रंथ है। इसमें मानव और देववास्तु विद्या को
गणित के कई सूत्रों के साथ बताया गया है, ये सब प्रामाणिक और प्रासंगिक हैं। मेवाड़ में लिखे गए अपराजितपृच्छा में
अपराजित के प्रश्नों पर विश्वकर्मा द्वारा दिए उत्तर लगभग साढ़े सात हज़ार श्लोकों
में दिए गए हैं। संयोग से यह ग्रंथ 239 सूत्रों तक ही मिल पाया है। इस ग्रंथ से यह भी पता चलता है कि विश्वकर्मा ने
अपने तीन अन्य पुत्रों जय, विजय और
सिद्धार्थ को भी ज्ञान दिया।![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgPieBsITtuUtuEslvf8OdefQBAlBcU_CQpauXf44UzupLHHSk4Sit4Wus6Zhg6qd84P0qNCbrkVxL_cLFWHSdkI5bmZQGHpccrRJrFDcT5AmMiv01r3tzijPHPvfeaWXt_OKfQepSdpU8/s1600/download+(57).jpg)
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दोहा - श्री
विश्वकर्म प्रभु वन्दऊँ, चरणकमल धरिध्य़ान ।
श्री, शुभ,
बल अरु
शिल्पगुण, दीजै दया निधान ।।
जय श्री विश्वकर्म भगवाना । जय
विश्वेश्वर कृपा निधाना ।।
शिल्पाचार्य परम उपकारी । भुवना-पुत्र
नाम छविकारी ।।
अष्टमबसु प्रभास-सुत नागर । शिल्पज्ञान
जग कियउ उजागर ।।
अद्रभुत सकल सुष्टि के कर्त्ता । सत्य
ज्ञान श्रुति जग हित धर्त्ता ।।
अतुल तेज तुम्हतो जग माहीं । कोइ विश्व
मँह जानत नाही ।।
विश्व सृष्टि-कर्त्ता विश्वेशा । अद्रभुत वरण विराज सुवेशा ।।
एकानन पंचानन राजे । द्विभुज चतुर्भुज
दशभुज साजे ।।
चक्रसुदर्शन धारण कीन्हे । वारि कमण्डल
वर कर लीन्हे ।।
शिल्पशास्त्र अरु शंख अनूपा । सोहत सूत्र
माप अनुरूपा ।।
धमुष वाण अरू त्रिशूल सोहे । नौवें हाथ
कमल मन मोहे ।।
दसवाँ हस्त बरद जग हेतू । अति भव सिंधु
माँहि वर सेतू ।।
सूरज तेज हरण तुम कियऊ । अस्त्र शस्त्र
जिससे निरमयऊ ।।
चक्र शक्ति अरू त्रिशूल एका । दण्ड पालकी
शस्त्र अनेका ।।
विष्णुहिं चक्र शुल शंकरहीं । अजहिं शक्ति दण्ड यमराजहीं ।।
इंद्रहिं वज्र व वरूणहिं पाशा । तुम सबकी
पूरण की आशा ।।
भाँति – भाँति के अस्त्र रचाये । सतपथ को
प्रभु सदा बचाये ।।
अमृत घट के तुम निर्माता । साधु संत
भक्तन सुर त्राता ।।
लौह काष्ट ताम्र पाषाना । स्वर्ण शिल्प
के परम सजाना ।।
विद्युत अग्नि पवन भू वारी । इनसे अद्
भुत काज सवारी ।।
खान पान हित भाजन नाना । भवन विभिषत
विविध विधाना ।।
विविध व्सत हित यत्रं अपारा । विरचेहु
तुम समस्त संसारा ।।
द्रव्य सुगंधित सुमन अनेका । विविध महा
औषधि सविवेका ।।
शंभु विरंचि विष्णु सुरपाला । वरुण कुबेर
अग्नि यमकाला ।।
तुम्हरे ढिग सब मिलकर गयऊ । करि प्रमाण
पुनि अस्तुति ठयऊ ।।
भे आतुर प्रभु लखि सुर–शोका ।
कियउ काज सब भये अशोका ।।
अद् भुत रचे यान मनहारी । जल-थल-गगन
माँहि-समचारी ।।
शिव अरु विश्वकर्म प्रभु माँही । विज्ञान
कह अतंर नाही ।।
बरनै कौन स्वरुप तुम्हारा । सकल सृष्टि है तव
विस्तारा ।।
रचेत विश्व हित त्रिविध शरीरा । तुम बिन
हरै कौन भव हारी ।।
मंगल-मूल भगत भय हारी । शोक रहित त्रैलोक
विहारी ।।
चारो युग परपात तुम्हारा । अहै प्रसिद्ध
विश्व उजियारा ।।
ऋद्धि सिद्धि के तुम वर दाता । वर
विज्ञान वेद के ज्ञाता ।।
मनु मय त्वष्टा शिल्पी तक्षा । सबकी नित
करतें हैं रक्षा ।।
पंच पुत्र नित जग हित धर्मा । हवै
निष्काम करै निज कर्मा ।।
प्रभु तुम सम कृपाल नहिं कोई । विपदा हरै
जगत मँह जोइ ।।
जै जै जै भौवन विश्वकर्मा । करहु कृपा
गुरुदेव सुधर्मा ।।
इक सौ आठ जाप कर जोई । छीजै विपति महा
सुख होई ।।
पढाहि जो विश्वकर्म-चालीसा । होय सिद्ध
साक्षी गौरीशा ।।
विश्व विश्वकर्मा प्रभु मेरे । हो प्रसन्न हम बालक तेरे ।।
मैं हूँ सदा उमापति चेरा । सदा करो प्रभु
मन मँह डेरा ।।
दोहा - करहु कृपा शंकर सरिस, विश्वकर्मा
शिवरुप ।
श्री शुभदा रचना सहित, ह्रदय
बसहु सुरभुप ।।
आप सभी बंधुओ को 17.९.२०१४ -विश्वकर्म्रा जन्म दिवस पर शुभकामनाये
जवाब देंहटाएंNice jai Shree Ramakrishna
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