मंगलवार, 9 सितंबर 2014

।। स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:।।



।। स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:।।




अर्थात : स्वयं के धर्म में निधन होना कल्याण कारण है जबकि दूसरे के धर्म में मरना भय को देने वाला है।
soul
मरने के बाद व्यक्ति की 3 तरह की गतियां होती हैं- 1. उर्ध्व गति, 2. स्थिर गति और 3. अधो गति। वेद में उल्लेखित नियमों का पालन करने वाले की उर्ध्व गति होती है। पालन नहीं करने वालों की स्थिर गति होती है और जो व्यक्ति वेद विरुद्ध आचरण करता है उसकी अधोगति होती है। व्यक्ति जब देह छोड़ता है, तब सर्वप्रथम वह सूक्ष्म शरीर में प्रवेश कर जाता है। सूक्ष्म शरीर की शक्ति और गति के अनुसार ही वह भिन्न-भिन्न लोक में विचरण करता है और अंत में अपनी गति अनुसार ही पुन: गर्भ धारण करता है।
आत्मा के तीन स्वरूप माने गए हैं- जीवात्मा, प्रेतात्मा और सूक्ष्मात्मा। जो भौतिक शरीर में वास करती है उसे जीवात्मा कहते हैं। जब इस जीवात्मा का वासना और कामनामय शरीर में निवास होता है तब उसे प्रेतात्मा कहते हैं। अर्थात जो आत्मा भोग-संभोग के अलावा कुछ भी नहीं सोच-समझ पाती वह शरीर में रहते हुए भी प्रेतात्मा है और मरने के बाद तो उसका प्रेत योनि में जाना तय है। तीसरा स्वरूप है सूक्ष्म स्वरूप। मरने के बाद जब आत्मा सूक्ष्मतम शरीर में प्रवेश करती है, तब उसे सूक्ष्मात्मा कहते हैं।
"विदूर्ध्वभागे पितरो वसन्त: स्वाध: सुधादीधीत मामनन्ति"।
पांच तत्वों से बने इस शरीर में पांचों तत्वों का अपना-अपना अंश होता है। इसमें वायु और जल तत्व सूक्ष्म शरीर को पुष्ट करने वाला है। चन्द्रमा के प्रकाश से सूक्ष्म शरीर का संबंध है। जल तत्व को सोम भी कहा जाता है। सोम को रेतस इसलिए कहा जाता है कि उसमें सूक्ष्म शरीर को पुष्ट करने के लिए चन्द्र से संबंधित और भी तत्व शामिल होते हैं।
जब व्यक्ति जन्म लेता है तो उसमें 28 अंश रेतस होता है। यह 28 अंश रेतस लेकर ही उसे चन्द्रलोक पहुंचना होता है। 28 अंश रेतस लेकर आई महान आत्मा मरने के बाद चन्द्रलोक पहुंच जाती है, जहां उससे वहीं 28 अंश रेतस मांगा जाता है। इसी 28 अंश रेतस को पितृ ऋण कहते हैं। चन्द्रलोक में वह आत्मा अपने स्वजातीय लोक में रहती है।

पृथ्वी लोक से उक्त आत्मा के लिए जो श्राद्ध कर्म किए जाते हैं उससे मार्ग में उसका शरीर पुष्ट होता है। 28 अंश रेतस के रूप में श्रद्धा नामक मार्ग से भेजे जाने वाले पिण्ड तथा जल आदि के दान को श्राद्ध कहते हैं। इस श्रद्धा नामक मार्ग का संबंध मध्याह्नकाल में पृथ्वी से होता है इसलिए ही मध्याह्नकाल में श्राद्ध करने का विधान है।
पृथ्वी पर कोई भी वस्तु सूर्यमंडल तथा चन्द्रमंडल के संपर्क से ही बनती है। संसार में सोम संबंधी वस्तु विशेषत: चावल और जौ ही हैं, जौ में मेधा की अधिकता है, धान और जौ में रेतस (सोम) का अंश विशेष रूप से रहता है, अश्विन कृष्ण पक्ष में यदि चावल तथा जौ का पिण्डदान किया जाए तो चन्द्रमंडल को रेतस पहुंच जाता है, पितर इसी चन्द्रमा के ऊर्ध्व देश में रहते हैं। इस रेतस से वे तृप्त हो जाते हैं और उन्हें शक्ति मिलती है।



शास्त्र अनुसार माता-पिता आदि के निमित्त उनके नाम और उच्चारण मंत्रों द्वारा जो अन्न आदि सोम अर्पित किया जाता है, वह उनको व्याप्त होता है। मान लो वे आत्मा देवयोनि प्राप्त कर गई है तो वह अन्न उन्हें अमृत के रूप में प्राप्त होता है और पितर या गंधर्व योनि प्राप्त हुई है तो वह अन्न उन्हें भोग्यरूप में प्राप्त हो जाता है। यदि वह प्रेत योनि को प्राप्त होकर भटक रहा है तो यह अन्न उसे रुधिर रूप में प्राप्त होता है।
लेकिन यदि वह आत्मा धरती पर किसी पशु योनि में जन्म ले चुकी है तो वह अन्न उसे तृण रूप में प्राप्त हो जाता है और यदि वह कर्मानुसार पुन: मनुष्य योनि प्राप्त कर गया है तो वह अन्न उन्हें अन्न आदि रूप में प्राप्त हो जाता है। इससे विशेष वैदिक मंत्रों के साथ ऐसे किया जाता है ताकि यह अन्न उस तक पहुंच जाए। फिर चाहे वह कहीं भी किसी भी रूप या योनि में हो।              श्राद्ध पक्ष का हिन्दू धर्म में बड़ा महत्व है। प्राचीन सनातन धर्म के अनुसार हमारे पूर्वज देवतुल्य हैं और इस धरा पर हमने जीवन प्राप्त किया है और जिस प्रकार उन्होंने हमारा लालन-पालन कर हमें कृतार्थ किया है उससे हम उनके ऋणी हैं। समर्पण और कृतज्ञता की इसी भावना से श्राद्ध पक्ष प्रेरित है, जो जातक को पितर ऋण से मुक्ति मार्ग दिखाता है।


गरूड़ पुराण के अनुसार पितर ऋण मुक्ति मार्ग रेखा

कल्पदेव कुर्वीत समये श्राद्धं कुले कश्चिन्न सीदति। आयुः पुत्रान् यशः स्वर्गं कीर्तिं पुष्टिं बलं श्रियम्।। पशून् सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृपूजनात्। देवकार्यादपि सदा पितृकार्यं विशिष्यते।। देवताभ्यः पितृणां हि पूर्वमाप्यायनं शुभम्।।

अर्थात समयानुसार श्राद्ध करने से कुल में कोई दुखी नहीं रहता। पितरों की पूजा करके मनुष्य आयु, पुत्र, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुष्टि, बल, श्री, पशु, सुख और धन-धान्य प्राप्त करता है। देवकार्य से भी पितृकार्य का विशेष महत्व है। देवताओं से पहले पितरों को प्रसन्न करना अधिक कल्याणकारी है।

'श्राद्ध' शब्द 'श्रद्धा' से बना है, जो श्राद्ध का प्रथम अनिवार्य तत्व है अर्थात पितरों के प्रति श्रद्धा तो होनी ही चाहिए। आश्विन कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि से अमावस्या तक का समय श्राद्ध या महालय पक्ष कहलाता है। इस अवधि के 16 दिन पितरों अर्थात श्राद्ध कर्म के लिए विशेष रूप से निर्धारित किए गए हैं। यही अवधि पितृ पक्ष के नाम से जानी जाती है।

क्यों की जाती है पितृपूजा : पितृ पक्ष में किए गए कार्यों से पूर्वजों की आत्मा को शांति प्राप्त होती है तथा कर्ता को पितृ ऋण से मुक्ति मिलती है। आत्मा की अमरता का सिद्धांत तो स्वयं भगवान श्री कृष्ण गीता में उपदेशित करते हैं। आत्मा जब तक अपने परम-आत्मा से संयोग नहीं कर लेती, तब तक विभिन्न योनियों में भटकती रहती है और इस दौरान उसे श्राद्ध कर्म में संतुष्टि मिलती है।


शास्त्रों में देवताओं से पहले पितरों को प्रसन्न करना अधिक कल्याणकारी कहा गया है। यही कारण है कि देवपूजन से पूर्व पितर पूजन किए जाने का विधान है।

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