क्यों किया श्री कृष्ण जी ने मथुरा से पलायन ---
गर्ग मुनि द्वारा बताए गए खग्रास सूर्य ग्रहण
की सूचना सभी ओर फैल गई। प्रथा के अनुसार इस ग्रहण का प्रदोष निवारण किया गया।
प्रत्येक सूर्यग्रहण के बाद यादव,
कुरु, मत्स्य, चेदि, पांचाल आदि कुरुक्षेत्र के सूर्य कुंड में आकर दान-पुण्य आदि
कर्मकांड करते हैं। श्रीकृष्ण भी अपने बंधु- बांधवों के साथ एकत्रित हुए। सूर्य
कुंड की उत्तर दिशा में उन्होंने पड़ाव डाला। यहीं पर श्रीकृष्ण की मुलाकात कुंति
सहित पांडव पुत्रों से हुई।
मथुरा पहुंचकर श्रीकृष्ण को पता चला कि कालयवन
की सेना सागर मार्ग से नौकाओं द्वारा पश्चि मी तट पर पहुंच रही थी। मगध से आई
जरासंध की सेना भी उनसे मिल गई थी। कालयवन की सेना अत्यंत ही विशाल और आधुनिक
अस्त्र-शस्त्रों से लैस थी। सभी ने मथुरा के यादवों को समूल नष्ट करने की योजना
बना रखी थी। श्रीकृष्ण ने भी अपनी सेना तैयार कर कालयवन से नगर के बाहर मुकाबला
करने की योजना बनाई। वे भी रथ पर सवार होकर सत्राजित, अक्रूर, शिनि, ववगाह, यशस्वी, चित्रकेतु, बृहदबल, भंड्कार आदि योद्धाओं के साथ पश्चिम
सागर तट की ओर चल पड़े। एक के बाद एक पड़ाव डालते हुए वे पश्चि म सागर के पास
मरुस्थली अर्बुदगिरि के समीप आ गए। धौलपुर के समीप पर्वत के पास पड़ाव डाला।
योजना के अनुसार दाऊ शल्व को भुलावे में डालकर
एक ओर ले गए। दूसरी ओर सेनापतिद्वय ने जरासंध को चुनौती दी। धौलपुर के पड़ाव पर रह
गया अकेला कालयवन। खुद श्रीकृष्ण गरूड़ध्वज रथ लेकर उसके सामने आकर सीधे उससे भिड़
गए। दोनों के बीच युद्ध हुआ। अचानक श्रीकृष्ण ने दारुक को सेना से बाहर निकालने का
आदेश दिया और उन्होंने पांचजञ्य से विचित्र-सा भयाकुल शंखघोष किया। उसका अर्थ था-
पीछे हटो, दौड़ो
और भाग जाओ। यादव सेना इस शंखघोष से भली-भांति परिचित थी। कालयवन और उसकी सेना को
कुछ समझ में नहीं आया कि यह अचानक क्या हुआ? कालयवन ने अपने सारथी को कृष्ण के रथ का पीछा करने को कहा। कालयवन को
लगा कि श्रीकृष्ण रथ छोड़कर भाग रहे हैं। वह और उत्साहित हो गया। गांधार देश की
मदिरा में लाल हुई उसकी आंखें स्थिति को अच्छे से समझ नहीं पाईं। वह सारथी को
हटाकर खुद ही रथ को दौड़ाने लगा।
इस पलायन नाटक का असर यह हुआ कि वह दूर तक उनके
पीछे आ गया और सैन्यविहीन हो गया। दारुक ने गरूड़ध्वज की चाल को धीमा किया। कालयवन
अबूझ यवनी भाषा में चिल्लाते हुए कृष्णर के पास पहुंचने लगा, तभी दारुक ने दाईं और जुते सुग्रीव
नामक अश्व की रस्सी खोल दी और श्रीकृष्ण उस पर सवार हो गए। प्रतिशोध से भरा कालयवन
भी अपने रथ के एक अश्व को खोलकर उस पर सवार होकर श्रीकृष्ण का पीछा करने लगा।
सुग्रीव धौल पर्वत पर चढ़ने लगा।
श्रीकृष्णच जानते थे कि उनके आगे काल है और
पीछे यवन। वे कुछ दूर पर्वत पर चढ़ने के बाद अश्व पर से उतरे और एक गुफा की ओर
पैदल ही चल पड़े। कालयवन भी उनके पीछे दौड़ने लगा। श्रीकृष्णे गुफा में घुस गए।
कुछ देर बाद काल यवन भी क्रोध की अग्नि में जलता हुआ गुफा में घुसा।
मदिरा में मस्त कालयवन ने गुफा के मध्य में एक
व्यक्ति को सोते हुए देखा। उसे देखकर कालयवन ने सोचा, मुझसे बचने के लिए श्रीकृष्ण इस तरह
भेष बदलकर छुप गए हैं- 'देखो
तो सही, मुझे मूर्ख
बनाकर साधु बाबा बनकर सो रहा है',
उसने ऐसा कहकर उस सोए हुए व्यक्ति को कसकर एक लात मारी।
वह पुरुष बहुत दिनों से वहां सोया हुआ था। पैर
की ठोकर लगने से वह उठ पड़ा और धीरे-धीरे उसने अपनी आंखें खोलीं। इधर-उधर देखने पर
पास ही कालयवन खड़ा हुआ दिखाई दिया। वह पुरुष इस प्रकार ठोकर मारकर जगाए जाने से
कुछ रुष्ट हो गया था।
उसकी दृष्टि पड़ते ही कालयवन के शरीर में आग
पैदा हो गई और वह क्षणभर में जलकर राख का ढेर हो गया। कालयवन को जो पुरुष गुफा में
सोए मिले, वे
इक्ष्वाकुवंशी महाराजा मांधाता के पुत्र राजा मुचुकुंद थे। इस तरह कालयवन का अंत
हो गया। मुचुकुंद को वरदान था कि जो भी तुम्हें जगाएगा और तुम उसकी ओर देखोगे तो
वह जलकर भस्म हो जाएगा।
कालयवन द्वारा लूटी गई अमित स्वर्ण संपत्ति को
कुशस्थली भेज दिया गया। एक बार फिर मुनि गर्ग ने सांदीपनि के साथ जाकर मन्दवासर
के शनिवार को रोहिणी नक्षत्र में भूमिपूजन किया। देश के महान स्थापत्य विशारदों को
बुलाया गया। उन विशारदों में असुरों के मय नामक स्थापत्य विशारद और कुरुजांगल
प्रदेश के विख्यात शिल्पकार विश्विकर्मा को भी बुलाया गया। दोनों ने मिलकर नगर
निर्माण, भव्य मंदिर, गोशाला, बाजार, परकोटे
और उनके द्वार सहित राजभवन के अन्य भवनों के निर्माण की भव्य योजना तैयार की। इस
राजनगरी का प्रचंड कार्य कुछ वर्ष तक चलता रहा। मथुरा से श्रीकृष्ण और दाऊ वहां
जाकर निरंतर निर्माण कार्य का अवलोकन करते रहते थे।
जब राजनगर का निर्माण कार्य पूर्ण हो गया तब
राज्याभिषेक का मुहूर्त निकलवाया गया। राज्याभिषेक के मुहूर्त के पहले श्रीकृष्ण
अपने सभी 18
कुलों के यादव परिवारों को साथ लेकर द्वारिका प्रस्थान करने के लिए निकल पड़े। सभी
मथुरावासी और उग्रसेन सहित अन्य यादव उनको विदाई देने के लिए उमड़ पड़े। विदाई का
यह विदारक दृश्य देखकर सभी की आंखों से अश्रु बह रहे थे। कुछ गिने-चुने मथुरावासी
यादवों को छोड़कर सभी ने मथुरा छोड़ दी। यह विश्व का पहला महानिष्क्रमण था।
56 (छप्पन)
भोग क्यों लगाते है...???--------------------------------------------
भगवान को लगाए जाने वाले भोग की बड़ी महिमा है।
इनके लिए 56
प्रकार के व्यंजन परोसे जाते हैं,
जिसे छप्पन भोग कहा जाता है। यह भोग रसगुल्ले से शुरू होकर दही, चावल, पूरी, पापड़
आदि से होते हुए इलायची पर जाकर खत्म होता है।
अष्ट पहर भोजन करने वाले बालकृष्ण भगवान को
अर्पित किए जाने वाले छप्पन भोग के पीछे कई रोचक कथाएं हैं। ऐसा भी कहा जाता है कि
यशोदाजी बालकृष्ण को एक दिन में अष्ट पहर भोजन कराती थी। अर्थात्... बालकृष्ण आठ
बार भोजन करते थे। जब इंद्र के प्रकोप से सारे व्रज को बचाने के लिए भगवान
श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को उठाया था, तब लगातार सात दिन तक भगवान ने अन्न जल ग्रहण नहीं किया। आठवे दिन जब
भगवान ने देखा कि अब इंद्र की वर्षा बंद हो गई है, सभी व्रजवासियो को गोवर्धन पर्वत से बाहर निकल जाने को कहा, तब दिन में आठ प्रहर भोजन
करने वाले व्रज के नंदलाल कन्हैया का लगातार
सात दिन तक भूखा रहना उनके व्रज वासियों और मैया यशोदा के लिए बड़ा कष्टप्रद हुआ।
भगवान के प्रति अपनी अन्न्य श्रद्धा भक्ति दिखाते हुए सभी व्रजवासियो सहित यशोदा
जी ने 7 दिन और अष्ट
पहर के हिसाब से 7X8= 56
व्यंजनो का भोग बाल कृष्ण को लगाया। गोपिकाओं ने भेंट किए छप्पन भोग...
श्रीमद्भागवत के अनुसार, गोपिकाओं ने एक माह तक यमुना में भोर
में ही न केवल स्नान किया, अपितु
कात्यायनी मां की अर्चना भी इस मनोकामना से की, कि उन्हें नंदकुमार ही पति रूप में प्राप्त हों। श्रीकृष्ण ने उनकी
मनोकामना पूर्ति की सहमति दे दी। व्रत समाप्ति और मनोकामना पूर्ण होने के उपलक्ष्य
में ही उद्यापन स्वरूप गोपिकाओं ने छप्पन भोग का आयोजन किया। छप्पन भोग हैं छप्पन
सखियां...
ऐसा भी कहा जाता है कि गौलोक में भगवान
श्रीकृष्ण राधिका जी के साथ एक दिव्य कमल पर विराजते हैं। उस कमल की तीन परतें
होती हैं...
प्रथम परत में "आठ", दूसरी में "सोलह" और तीसरी
में "बत्तीस पंखुड़िया" होती हैं। प्रत्येक पंखुड़ी पर एक प्रमुख सखी और
मध्य में भगवान विराजते हैं। इस तरह कुल पंखुड़ियों संख्या छप्पन होती है। 56 संख्या का यही अर्थ है।
1. भक्त
(भात),
2. सूप
(दाल),
3. प्रलेह
(चटनी),
4. सदिका
(कढ़ी),
5. दधिशाकजा
(दही शाक की कढ़ी),
6. सिखरिणी
(सिखरन),
7. अवलेह
(शरबत),
8. बालका
(बाटी),
9. इक्षु
खेरिणी (मुरब्बा),
10. त्रिकोण
(शर्करा युक्त),
11. बटक
(बड़ा),
12. मधु
शीर्षक (मठरी),
13. फेणिका
(फेनी),
14. परिष्टïश्च (पूरी),
15. शतपत्र
(खजला),
16. सधिद्रक
(घेवर),
17. चक्राम
(मालपुआ),
18. चिल्डिका
(चोला),
19. सुधाकुंडलिका
(जलेबी),
20. धृतपूर
(मेसू),
21. वायुपूर
(रसगुल्ला),
22. चन्द्रकला
(पगी हुई),
23. दधि
(महारायता),
24. स्थूली
(थूली),
25. कर्पूरनाड़ी
(लौंगपूरी),
26. खंड
मंडल (खुरमा),
27. गोधूम
(दलिया),
28. परिखा,
29. सुफलाढय़ा
(सौंफ युक्त),
30. दधिरूप
(बिलसारू),
31. मोदक
(लड्डू),
32. शाक
(साग),
33. सौधान
(अधानौ अचार),
34. मंडका
(मोठ),
35. पायस
(खीर)
36. दधि
(दही),
37. गोघृत,
38. हैयंगपीनम
(मक्खन),
39. मंडूरी
(मलाई),
40. कूपिका
(रबड़ी),
41. पर्पट
(पापड़),
42. शक्तिका
(सीरा),
43. लसिका
(लस्सी),
44. सुवत,
45. संघाय
(मोहन),
46. सुफला
(सुपारी),
47. सिता
(इलायची),
48. फल,
49. तांबूल,
50. मोहन
भोग,
51. लवण,
52. कषाय,
53. मधुर,
54. तिक्त,
55. कटु,
56. अम्ल.
|| जय
श्री कृष्णा
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