---"भगवान श्री, कृष्णा
अर्थात द्रौपदी के चरित्र को लोग बड़ी गर्हित दृष्टि से देखते हैं, तथा
कृष्ण का उससे वृहत अनुराग है। इस सब की चर्चा करें और आज के संदर्भ में द्रौपदी
का चरित्र स्पष्ट करें।'
पुरुषों के व्यक्तित्व में जैसे कृष्ण को समझना
उलझन की बात है, वैसे
ही स्त्रियों के व्यक्तित्व में द्रौपदी को समझना भी उलझन की बात है। और लोगों को
जो गर्हित दिखाई पड़ता है, उनके
दिखाई देने में वे अपने संबंध में ज्यादा खबर देते हैं, द्रौपदी के संबंध में कम। जो हमें
दिखाई पड़ता है, वह
हमारे संबंध में खबर होती है। हम वही देख पाते हैं, जो हम हैं। हम अपने अतिरिक्त और कुछ भी नहीं देख पाते हैं।
द्रौपदी का व्यक्तित्व हमें कठिन मालूम पड़ेगा।
एक साथ पांच व्यक्तियों को प्रेम,
एक साथ पांच की पत्नी होना बहुत मुश्किल है। समझना होगा। लेकिन इससे
केवल हमारे संबंध में सूचना मिलती है और हमारी आकांक्षाओं, अपेक्षाओं की खबर मिलती है। प्रेम का
व्यक्तियों से बहुत संबंध नहीं है। और अगर कोई प्रेम एक से ही किया जा सकता हो, तो वह प्रेम बहुत दीन-हीन हो जाता है।
इसे थोड़ा समझना होगा।
हम सबका आग्रह तो यही होता है कि प्रेम एक से
हो। हम सब तो यही चाहेंगे कि कोई फूल रास्ते पर खिले तो वह एक के लिए खिले। कोई
गीत गाया जाये तो वह एक के लिये गाया जाये। कोई वर्षा हो तो वह एक खेत पर हो। कोई
सूरज निकले तो एक आंगन में चमके। हम सबका मन यह होता है कि जो भी हो उस पर हमारी
पूरी मालकियत और पूरा "पजेसन'
हो जाए। हम ही उसको पूरा घेर कर बैठ जाएं। अगर मुझे कोई प्रेम करता
है तो वह सिर्फ मुझे ही प्रेम करे,
उसका प्रेम किन्हीं और द्वारों और धाराओं से न बह जाए। कहीं बंट न
जाए। क्योंकि हम चूंकि प्रेम को नहीं समझते हैं, इसलिए हम ऐसा भी समझते हैं कि अगर वह बंट जाएगा तो मेरे लिए कम हो
जाएगा। प्रेम जितना फैलता है, उतना
बढ़ता है। और प्रेम जितना बंटता है,
उतना बढ़ता है। और जब हम प्रेम को एक ही धारा में बहाने की बहुत
चेष्टा करते हैं, जो
कि अनैसर्गिक है, अप्राकृतिक
है, जोर-जबर्दस्ती
है, तो अंतिम परिणाम
सिर्फ इतना ही होता है कि और कहीं तो प्रेम नहीं बहता, जहां हम बहाना चाहते हैं वहां भी नहीं
बहता है।
एक छोटी-सी कहानी मुझे याद आती है। एक
भिक्षुणी थी--बौद्ध भिक्षुणी। उसके पास एक छोटी-सी बुद्ध की चंदन की प्रतिमा थी।
वह अपने बुद्ध को सदा अपने साथ रखती थी। भिक्षुणी थी, मंदिरों में, विहारों में ठहरती थी, लेकिन पूजा अपने ही बुद्ध की करती थी।
एक बार वह उस मंदिर में ठहरी जो हजार बुद्धों का मंदिर है, जहां हजार बुद्ध-प्रतिमाएं हैं, जहां मंदिर के कोने-कोने में
प्रतिमाएं-ही-प्रतिमाएं हैं। वह सुबह अपने बुद्ध को रख कर पूजा करने बैठी, उसने धूप जलाई। अब धूप तो कोई आदमी के
नियम मानती नहीं! उलटा ही हो गया। हवा के झोंके ऐसे थे कि उसके छोटे-से बुद्ध की
नाक तक तो धूप की सुगंध न पहुंचे और पास जो बड़ी-बड़ी बुद्ध की प्रतिमाएं बैठी थीं, उन तक सुगंध पहुंचने लगी। वह तो बहुत
चिंतित हुई। ऐसा नहीं चल सकता है। तो उसने एक छोटी-सी टीन की पोंगरी बनाई और अपने
धूप पर ढांकी और अपने छोटे-से बुद्ध की नाक के पास चिमनी का द्वार खोल दिया, ताकि धूप की सुगंध अपने ही बुद्ध को
मिले। सुगंध तो मिल गई अपने बुद्ध को, लेकिन बुद्ध का मुंह काला हो गया। वह बड़ी मुश्किल में पड़ी, चंदन की प्रतिमा थी, वह सब खराब हो गई। उसने जाकर मंदिर के
पुजारी को कहा कि मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गई हूं। मेरे बुद्ध की प्रतिमा खराब हो
गई, कुरूप हो गई, अब मैं क्या करूं? तो उस पुजारी ने कहा कि जब भी कोई उन
सत्यों को जो सब तरफ फैलते हैं,
एक दिशा में बांधता है, तब ऐसी ही दुर्घटना और ऐसी ही कुरूपता हो जाती है।
प्रेम को मनुष्य-जाति ने अब तक संबंध की तरह
सोचा है, "रिलेशनशिप' की तरह। दो व्यक्तियों के बीच संबंध की
तरह। प्रेम को हमने अब तक "स्टेट आफ माइंड' की तरह नहीं समझा,
कि एक व्यक्ति की भावदशा प्रेम की है। द्रौपदी को समझने में वही
कठिनाई है।
यदि मैं प्रेमपूर्ण हूं, तो एक के प्रति ही प्रेमपूर्ण नहीं हो
सकता हूं। प्रेमपूर्ण होना मेरा स्वभाव हो जाएगा। मैं अनेक के प्रति प्रेमपूर्ण हो
जाऊंगा--एक-अनेक का सवाल ही नहीं रह जाता, मैं प्रेमपूर्ण हो पाऊंगा। अगर मैं एक के प्रति ही प्रेमपूर्ण हूं और
शेष के प्रति प्रेमपूर्ण नहीं हूं,
तो मैं एक के प्रति भी प्रेमपूर्ण नहीं रह पाऊंगा। तेईस घंटे मुझे
अप्रेम में जीना पड़ता है--दूसरों के साथ होता हूं, एक घंटा जिससे प्रेम करता हूं उसके साथ होता हूं। तेईस घंटे अप्रेम
का अभ्यास चलता है, एक
घंटे में टूटता नहीं फिर। फिर एक घंटे में, जिसे हम प्रेम कहते हैं वह भी प्रेम नहीं हो पाता, अप्रेम ही हो जाता है।
लेकिन समस्त जगत के प्रेमी, नासमझ ही कहना चाहिए, उन्हें प्रेम का कोई पता नहीं, प्रेम को बांध लेना चाहेंगे। और जैसे
ही हम प्रेम को बांधते हैं, प्रेम
हवाओं की तरह है, मुट्ठी
जोर से बांधी तो हवा मुट्ठी में नहीं रह जाती, मुट्ठी खुली हो तो ही रहती है। जोर से बांधी तो हवा बाहर हो जाती है।
खुली मुट्ठी में नहीं होती है। प्रेम को बांधने की चेष्टा में ही प्रेम मरता है और
सड़ जाता है। और हम सबने अपने प्रेम को मार डाला है और सड़ा लिया है--उसे बांधने की
चेष्टा में।
द्रौपदी को हमें समझना इसीलिए मुश्किल पड़ता है
कि पांच व्यक्तियों को कैसे प्रेम कर सकी होगी! हमें ही नहीं पड़ता है मुश्किल, उन भाइयों को भी मुश्किल पड़ता था। हमें
पड़े तब भी ठीक है। उन पांच भाइयों को भी मुश्किल पड़ता था और वे भी मन-मन में सोचे
जाते थे कि जरूर इसका किसी एक से ज्यादा होगा। सबसे एक-सा कैसे हो सकता है? अर्जुन पर सबकीर् ईष्या थी। सबको डर था
कि अर्जुन से इसका लगाव ज्यादा है। वे पांच भाई भी नहीं समझ पाए हैं द्रौपदी को।
उन्होंने भी शर्तबंदी कर रखी थी,
दिन बांट रखे थे। द्रौपदी जब एक को प्रेम करती है तो दूसरे से मिलती
नहीं। और यह भी तय कर रखा था कि जब एक भाई द्रौपदी के पास हो, तो दूसरा भूलकर भी भीतर न झांके। वे
पांच भाई भी द्रौपदी को नहीं समझ पाए हैं। उनकी भी कठिनाई वही है जो हमारी कठिनाई
है। हम सोच ही नहीं सकते कि प्रेम एक धारा हो सकती है, जो व्यक्तियों की तरफ नहीं बहती, व्यक्ति से बहती है। हम यह सोच ही नहीं
पा सकते, क्योंकि हमने तो
कभी व्यक्ति को छोड़कर प्रेम को सोचा ही नहीं है। इसलिए द्रौपदी हमें उलझन बन
जाएगी। और हमारे मन में हम कितना ही समझाने की कोशिश करें, ऐसा लगेगा कि द्रौपदी में कहीं-न-कहीं
कुछ वेश्या छिपी है। क्योंकि हमारी सती की जो परिभाषा है, वही द्रौपदी को वेश्या बना देगी।
लेकिन कभी आपने खयाल किया है कि इस देश की
परंपरा ने द्रौपदी को पांच कन्याओं में गिना है। पांच पवित्रतम स्त्रियों में गिना
है। बड़े अजीब लोग रहे होंगे, जिन्होंने
द्रौपदी को पांच श्रेष्ठतम महासतियों में गिना है। जरूर जिन्होंने गिनती की होगी, उनको भी यह तथ्य तो साफ जाहिर है। इस
तथ्य में कोई छिपाव नहीं है। इस तथ्य को जानते हुए यह गिनती की गई है। यह बड़ी
अर्थपूर्ण है। यह इस बात की सूचक है कि प्रेम एक से है या अनेक से है, यह सवाल नहीं है, प्रेम है या नहीं, यह सवाल है। और यदि प्रेम है तो वह
अनंत धाराओं में बह सकता है। पांच तो सिर्फ प्रतीक ही है। पांच की तरफ बह सकता है, पचास की तरफ बह सकता है, लाख की तरफ बह सकता है। और जिस दिन हम
इस पृथ्वी पर प्रेमपूर्ण व्यक्ति पैदा कर सकेंगे, उस दिन यह प्रेम की जो व्यक्तिगत मालकियत है, यह बिलकुल बेमानी हो जाएगी। ऐसा नहीं
है कि किसी को हम जबर्दस्ती करें कि वह एक को प्रेम न करे, ऐसा नहीं है। ऐसा नहीं है कि हम इससे
उलटा नियम बना लें कि जो एक को प्रेम करता है, वह पाप करता है। वह फिर वही नासमझी दूसरे छोर से हो जाएगी। नहीं, हम यह जानकर चलें कि जो जिसकी सामर्थ्य
है वैसा करता है और हम अपने व्यक्तित्व को और अपनी सामर्थ्य को दूसरे के ऊपर थोपते
न चले जाएं।
द्रौपदी में प्रेम का बहाव है। और वह बहाव
द्रौपदी ने एक क्षण को भी इनकार नहीं किया। यह बड़ी अजीब घटना थी। यह बड़े खेल में
घट गई थी। द्रौपदी को लेकर आए थे और पांचों भाइयों ने कहा था कि हम एक बहुत अदभुत
चीज ले आए हैं। मां ने कहा कि अदभुत ले आए हो तो पांचों बांट लो। उन्हें कभी
कल्पना भी न थी। उन्होंने तो सिर्फ मजाक किया था और मां को छकाना चाहते थे। उन्हें
पता भी न था कि मां कह देगी कि बांट लो पांचों। और फिर जब मां ने कह दिया था तो
कोई उपाय न रहा था। फिर वे पांचों ही एक साथ द्रौपदी के पति हो गए। लेकिन द्रौपदी
ने एक क्षण को भी इससे कोई इनकार नहीं किया। उसके प्रेम में अनंतता के कारण ही यह
संभव हो सका। वह सब, पांचों
को प्रेम दे सकी और इससे प्रेम चुका नहीं। पांचों को प्रेम दे सकी, प्रेम घटा नहीं। पांचों को प्रेम दे
सकी, लेकिन इससे कहीं
कोई दुविधा और कहीं द्वैत उसके मन में नहीं आया है।
यह बहुत ही अदभुत स्त्री होनी
चाहिए। अन्यथा स्त्री साधारणतःर् ईष्या में जीती है। अगर हम पुरुष और स्त्री के
व्यक्तित्वों का एक खास चिह्न खोजना चाहें, तो पुरुष अहंकार में
जीते हैं, स्त्रियांर् ईष्या में जीती हैं। असल मेंर् ईष्या जो है, वह अहंकार का "पैसिव' रूप है। अहंकार जो है, वहर् ईष्या का "एक्टिव' रूप है। अहंकार
सक्रियर् ईष्या है,र् ईष्या निष्क्रिय अहंकार है। स्त्रियां तो निरंतरर् ईष्या में जीती हैं।
लेकिन यह स्त्री बिनार् ईष्या के प्रेम में जी सकी, और इन पांचों भाइयों से कई अर्थों में ऊंचे उठ गई। ये पांचों भाई बड़ी तकलीफ
में रहे हैं। द्रौपदी को लेकर भीतर एक निरंतर द्वंद्व और संघर्ष चलता ही रहा है।
लेकिन द्रौपदी निर्द्वंद्व और शांत इस बहुत अजीब घटना को गुजार गई।
हमारी समझ में जो तकलीफ होती है, वह हमारे कारण होती है। हम प्रेम को एक
और एक के बीच का संबंध मानते हैं। है नहीं प्रेम ऐसा। और इसलिए हम फिर प्रेम के
लिए बहुत-बहुत झंझटों में पड़ते हैं और बहुत कठिनाइयां खड़ी कर लेते हैं। प्रेम ऐसा
फूल है, जो कभी भी और
किसी के लिए भी आकस्मिक रूप से खिल सकता है। न उस पर कोई बंधन है, न उस पर कोई मर्यादा है। और बंधन और
मर्यादा जितनी ज्यादा होगी, उतना
हम एक ही निर्णय कर सकते हैं कि हम उस फूल को ही न खिलने दें। फिर वह एक के लिए भी
नहीं खिलता। फिर हम बिना प्रेम के जी लेते हैं। लेकिन हम बड़े अजीब लोग हैं। हम
बिना प्रेम के जी लेना पसंद करेंगे,
लेकिन प्रेम की मालकियत छोड़ना पसंद न करेंगे। हम यह पसंद कर लेंगे कि
जिंदगी हमारी रिक्त प्रेम से गुजर जाए, लेकिन हम यह बर्दाश्त न करेंगे कि जिसे हमने प्रेम किया है उसके लिए
कोई और भी प्रेमपात्र हो सके। यह हम बर्दाश्त न करेंगे। हम बिना प्रेम के रह जाएं, यह चलेगा; हमारे भवन पर प्रेम की वर्षा न हो, यह चलेगा, लेकिन पड़ोसी के भवन पर हो
जाए, हमारे भवन के साथ, तो भी नहीं चलेगा। अहंकार
औरर् ईष्या अदभुत कष्ट में डालते हैं।
फिर साथ ही यह भी खयाल रहे कि यह जो घटना है
द्रौपदी की, यह
अकेली घटना नहीं है। ऐसा है कि द्रौपदी की घटना शायद आखिरी घटना है। द्रौपदी के
पहले जो समाज था जगत में, वह
मातृसत्ता का था। हजारों वर्षों तक "मेट्रिआर्क सोसाइटी' थी। उसमें कोई स्त्री किसी पुरुष की
नहीं होती थी। और इसलिए मां का तो पता चलता था, पिता का कोई पता नहीं चलता था। ऐसा मालूम होता है कि द्रौपदी की घटना
उस लंबी शृंखला की आखिरी कड़ी है। इसलिए उस वक्त में किसी ने इस पर एतराज नहीं
उठाया। "पॉलिगैमी' समाप्त
होने के करीब थी। आखिरी कड़ी है यह। एक स्त्री के बहु-पति, आज भी कुछ आदिम समाज जो जिंदा हैं जमीन
पर, उनमें चलती है
वह व्यवस्था। ऐसा प्रतीत होता है कि द्रौपदी की घटना उस लंबी शृंखला की, मरती हुई शृंखला की आखिरी कड़ी है।
इसलिए उस समाज को बहुत अड़चन न हुई मालूम। किसी ने इस पर कोई एतराज न उठाया। नहीं
तो मां को भी क्या तकलीफ थी कि अपना वक्तव्य बदल देती। लड़के अगर आज्ञा मानने को भी
उत्सुक थे, तो
मां तो अपनी आज्ञा बदल सकती थी। पता चलने पर कि नहीं, कोई चीज नहीं ले आए हैं, एक पत्नी ले आए हैं, इसको पांच में कैसे बांटा जा सकता है।
लेकिन मां ने आज्ञा न बदली। और अगर आज्ञा अनैतिक होती तो लड़के भी प्रार्थना तो कर
ही सकते थे कि यह आज्ञा बदल लें,
क्योंकि हमसे भूल हो गई। इसमें कोई अड़चन न थी। लेकिन न मां ने आज्ञा
बदली, न लड़कों ने
आज्ञा बदलने की कोई प्रार्थना की,
न उस समाज में किसी ने इस पर कोई एतराज उठाया कि यह गलत हो गया है।
उसका कुछ कारण इतना ही है कि वह समाज जिस व्यवस्था में जी रहा था, उस व्यवस्था में यह घटना अनैतिक नहीं
मालूम पड़ी होगी।
हमेशा ऐसा होता है कि एक-एक समाज की अपनी
धारणाएं दूसरे समाज को बड़ा अनैतिक बना देती हैं। मुहम्मद ने नौ शादियां कीं। और
कुरान में प्रत्येक व्यक्ति को चार शादी करने की आज्ञा दी। आज हम सोचने बैठते हैं
तो बड़ा अनैतिक मालूम पड़ता है, यह क्या पागलपन है! एक व्यक्ति चार
शादी करे, और खुद मुहम्मद नौ शादी करें! और मुहम्मद भी
बड़े अनूठे आदमी हैं। पहली शादी जब इन्होंने की तो उनकी उम्र कुल चौबीस साल थी और
उनकी पत्नी की उम्र चालीस साल थी। लेकिन जिस समाज में मुहम्मद थे, उस समाज में एक बहुत अदभुत घटना घट गई
थी जिसकी वजह से यह बिलकुल स्वाभाविक था और अनैतिक नहीं समझा गया। जिस कबीले में
वे थे, वह
एक लड़का कबीला था। पुरुष तो कट जाते थे और मर जाते थे। स्त्रियां इकट्ठी हो गई थीं
बहुत बड़ी संख्या में। और यही नैतिक था उस घड़ी में कि एक-एक पुरुष चार-चार शादी कर
ले। अन्यथा जो तीन स्त्रियां बच जाती थीं--स्त्रियां चौगुनी--वह जो तीन स्त्रियां
बच जाती हैं, उनका क्या होगा? और तीन स्त्रियां अगर जीवन में प्रेम
को न पा सकें, अतृप्त रहें, तो समाज बहुत अनैतिक और बहुत व्यभिचारी
हो जाएगा। इसलिए मुहम्मद ने कहा कि चार शादी प्रत्येक पुरुष कर ले, यह बड़ी धार्मिक व्यवस्था है। और
खुद तो हिम्मत करके नौ शादियां कीं। वह सिर्फ यह कहने को कि अगर मैं चार की कहता
हूं तो मैं नौ करके बताये देता हूं। अरब में किसी को अड़चन न हुई इस बात से, क्योंकि बात सीधी और साफ थी। इसमें कोई
अनैतिकता नहीं दिखाई पड़ी थी।
द्रौपदी के मामले को लेकर मेरी समझ यह है कि
कोई अड़चन नहीं हुई क्योंकि जो युग था, वह धीरे-धीरे मर रही थी यह व्यवस्था, बहु-पति की व्यवस्था मर रही थी, लेकिन...और मरेगी,
क्योंकि स्त्री और पुरुष अगर बराबर संख्या में होते चले जाएं तो न तो
बहु-पति की व्यवस्था चल सकती है,
न बहु-पत्नी की व्यवस्था चल सकती है। किन्हीं कारणों से पुरुष और
स्त्रियों का संतुलन बिगड़ जाता है तो ऐसी व्यवस्थायें चल सकती हैं।
तो उस दिन तो यह अनैतिक न था। आज भी मैं मानता
हूं कि जिस स्त्री ने पांच को एक-सा प्रेम दिया, पांच के प्रेम में जीयी, वह साधारण स्त्री न थी। असाधारण स्त्री थी। और उसके पास प्रेम का
अजस्र स्रोत था, इसलिए
ही यह संभव हो सका था।
लेकिन हमें सोचने में कठिनाई होती है, वह हमारे कारण होती है।
कृष्ण--स्मृति--(प्रवचन--11)
मानवीय पहलूयुक्त भगवत्ता के प्रतीक कृष्ण—(प्रवचन—ग्यारहवां)
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