11----- मन वेश्या
की तरह है। किसी का नहीं है मन। आज यहां, कल वहां; आज इसका, कल
उसका। मन की कोई मालकियत नहीं है। और मन की कोई ईमानदारी नहीं है। मन बहुत बेईमान
है। वह वेश्या की तरह है। वह किसी एक का होकर नहीं रह सकता। और जब तक तुम एक के न
हो सको, तब तक तुम एक को
कैसे खोज पाओगे? न
तो प्रेम में मन एक का हो सकता है;
न श्रद्धा में मन एक का हो सकता है—और एक के हुए बिना तुम एक को न पा सकोगे। तो कहीं तो प्रशिक्षण लेना
पड़ेगा—एक के होने का।
इसी कारण पूरब के मुल्कों ने एक पत्नीव्रत को
या एक पतिव्रत को बड़ा बहुमूल्य स्थान दिया। उसका कारण है। उसका कारण सांसारिक
व्यवस्था नहीं है। उसका कारण एक गहन समझ है। वह समझ यह है कि अगर कोई व्यक्ति एक
ही स्त्री को प्रेम करे, और
एक ही स्त्री का हो जाए, तो
शिक्षण हो रहा है एक के होने का। एक स्त्री अगर एक ही पुरुष को प्रेम करे और समग्र—भाव से उसकी हो रहे कि दूसरे का विचार
भी न उठे, तो
प्रशिक्षण हो रहा है; तो
घर मंदिर के लिए शिक्षा दे रहा है;
तो गृहस्थी में संन्यास की दीक्षा चल रही है। अगर कोई व्यक्त्ति एक
स्त्री का न हो सके, एक
पुरुष का न हो सके, फिर
एक गुरु का भी न हो सकेगा; क्योंकि
उसका कोई प्रशिक्षण न हुआ। जो व्यक्ति एक का होने की कला सीख गया है संसार में, वह गुरु के साथ भी एक का हो सकेगा। और
एक गुरु के साथ तुम न जुड़ पाओ तो तुम जुड़ ही न पाओगे। वेश्या किसी से भी तो नहीं
जुड़ पाती। और बड़ी, आश्चर्य
की बात तो यह है कि वेश्या इतने पुरुषों को प्रेम करती है, फिर भी प्रेम को कभी नहीं जान पाती।
अभी एक युवती ने संन्यास लिया। वह आस्ट्रेलिया
में वेश्या का काम करती रही। उसने कभी प्रेम नहीं जाना। यहां आकर वह एक युवक के
प्रेम में पड़ गई, और
पहली दफा उसने प्रेम जाना। और उसने मुझे आकर कहा कि इस प्रेम ने ही मुझे तृप्त कर
दिया; अब मुझे किसी की
भी कोई जरूरत नहीं है। और उसने कहा कि आश्चर्यों का आश्चर्य तो यह है कि मैं तो
बहुत पुरुषों के संबंध में रही;
लेकिन मुझे प्रेम का कभी अनुभव ही नहीं हुआ। प्रेम का अनुभव हो ही
नहीं सकता बहुतों के साथ। बहुतों के साथ केवल ज्यादा से ज्यादा शरीर का भोग, उसका अनुभव हो सकता है। एक के साथ
आत्मा का अनुभव होना शुरू होता है;
क्योंकि एक में उस परम एक की झलक है। छोटी झलक है, बहुत छोटी; लेकिन झलक उसी की है।-ओशो - सुन भई
साधो–(प्रवचन–17)
// कुंडलिनी जागरण से व्यक्तित्व में आमूल
रूपांतरण:
जैसे, कुंडलिनी जागे तो शराब नहीं पी जा सकती है। असंभव है! क्योंकि वह जो
मनस शरीर है, वह
सबसे पहले शराब से प्रभावित होता है; वह बहुत डेलिकेट है। इसलिए बड़ी हैरानी की बात जानकर होगी कि अगर
स्त्री शराब पी ले और पुरुष शराब पी ले, तो पुरुष शराब पीकर इतना खतरनाक कभी नहीं होता, जितनी स्त्री शराब पीकर खतरनाक हो जाती
है। उसका मनस शरीर और भी डेलिकेट है। अगर एक पुरुष और एक स्त्री को शराब पिलाई जाए, तो पुरुष शराब पीकर इतना खतरनाक कभी
नहीं होता, जितना
स्त्री हो जाए। स्त्री तो इतनी खतरनाक सिद्ध होगी शराब पीकर जिसका कोई हिसाब लगाना
मुश्किल है। उसके पास और भी डेलिकेट मेंटल बॉडी है, जो इतनी शीघ्रता से प्रभावित होती है कि फिर उसके वश के बाहर हो जाती
है।
इसलिए स्त्रियों ने आमतौर से नशे से बचने की
व्यवस्था कर रखी है, पुरुषों
की बजाय ज्यादा। इस मामले में उन्होंने समानता का दावा अब तक नहीं किया था। लेकिन
अब वे कर रही हैं, वह
खतरनाक होगा। जिस दिन भी वे इस मामले में समानता का दावा करेंगी, उस दिन पुरुष के नशे करने से जो नुकसान
नहीं हुआ, वह
स्त्री के नशे करने से होगा।
यह जो चौथा शरीर है, इसमें सच में ही कुंडलिनी जगी है, यह तुम्हारे कहने और अनुभव करने से
सिद्ध नहीं होगा क्योंकि वह तो झूठ में भी तुम्हें अनुभव होगा और तुम कहोगे। नहीं, वह तो तुम्हारा जो वस्तु जगत का
व्यक्तित्व है,उससे
तय हो जाएगा कि वह घटना घटी है या नहीं घटी है;क्योंकि उसमें तत्काल फर्क पड़ने शुरू हो जाएंगे।
इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि आचरण जो है वह
कसौटी है—साधन नहीं है, भीतर कुछ घटा है, उसकी कसौटी है। और प्रत्येक प्रयोग के
साथ कुछ बातें अनिवार्य रूप से घटना शुरू होंगी। जैसे चौथे शरीर की शक्ति के जगने
के बाद किसी भी तरह का मादक द्रव्य नहीं लिया जा सकता। अगर लिया जाता है, और उसमें रस है, तो जानना चाहिए कि किसी मिथ्या
कुंडलिनी के खयाल में पड़ गए हो। वह नहीं संभव है।
जैसे कुंडलिनी जागने के बाद हिंसा करने की
वृत्ति सब तरफ से विदा हो जाएगी—हिंसा
करना ही नहीं, हिंसा
करने की वृत्ति! क्योंकि हिंसा करने की जो वृत्ति है, हिंसा करने का जो भाव है, दूसरे को नुकसान पहुंचाने की जो भावना
और कामना है वह तभी तक हो सकती है जब तक कि तुम्हारी कुंडलिनी शक्ति नहीं जगी है।
जिस दिन वह जगती है, उसी
दिन से तुम्हें दूसरा दूसरा नहीं दिखाई पड़ता, कि उसको तुम नुकसान पहुंचा सको, उसको तुम नुकसान नहीं पहुंचा सकते। और तब तुम्हें हिंसा रोकनी नहीं
पड़ेगी, तुम हिंसा नहीं
कर पाओगे। और अगर तब भी रोकनी पड़ रही हो, तो जानना चाहिए कि अभी वह जगी नहीं है। अगर तुम्हें अब भी संयम रखना
पड़ता हो हिंसा पर, तो
समझना चाहिए कि अभी कुंडलिनी नहीं जगी है।
अगर आंख खुल जाने पर भी तुम लकड़ी से टटोल—टटोलकर चलते हो, तो समझ लेना चाहिए आंख नहीं खुली है— भला तुम कितना ही कहते हो कि आंख खुल
गई है। क्योंकि तुम अभी लकड़ी नहीं छोड़ते और तुम टटोलना अभी जारी रखे हुए हो, टटोलना भी बंद नहीं करते। तो साफ समझा
जा सकता है। हमें पता नहीं है कि तुम्हारी आंख खुली है कि नहीं खुली लेकिन
तुम्हारी लकड़ी और तुम्हारा टटोलना और डर—डरकर तुम्हारा चलना बताता है कि आंख नहीं खुली है।
चरित्र में आमूल परिवर्तन होगा। और सारे नियम, जो कहे गए हैं महाव्रत, वे सहज हो जाएंगे। तो समझना कि सच में
ही आथेंटिक है—साइकिक
ही है, लेकिन आथेंटिक
है। और अब आगे जा सकते हो, क्योंकि
आथेंटिक से आगे जा सकते हो; अगर
झूठी है तो आगे नहीं जा सकते। और चौथा शरीर मुकाम नहीं है, अभी और शरीर हैं।
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