क्या स्त्री को व्यासपीठ पर बैठकर कथा कहने का अधिकार है ? क्या स्त्री प्रणव या गायत्री
मंत्र का जाप कर सकती है ? क्या
यह शास्त्रसम्मत् है ? इस
सम्बंध में आया है ," स्त्री
शूद्र द्विजबन्धूनां स्रुति गोचरः।।" अर्थात
स्त्री , शूद्र और द्विजबन्धु को स्रुतियो का उच्चारण , परायण और वाचन नहीं करना चाहिये । इसी आधार पर धर्मसम्राट् स्वामी करपात्रीजी महाराज एवं अन्यान्य महापुरुष और
संतगण इसका विरोध करते आये हैं ।
कौशिकी संहिता मे भी आया है - " अवैष्णव मुखाद् गाथा न श्रोतव्या कदाचन्।शुक शास्त्र विशेषेण न श्रोतव्य वैष्णवात्।।वैष्णवोऽत्र स विज्ञेयो यौ विष्णोर्मुखमुच्यते।ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत श्रुतेः ब्राह्मण एव सः।।(कौ:सं06/19-30)।
मुख्यतः पुराणो की कथा भागवत् की कथा किसी वैष्णव संत या ब्राहमण मुख से ही सुनना चाहिए।वे वैष्णव जो भगवान्
विष्णु के मुख
है, भगवान् विष्णु
के मुख केवल ब्राह्मण ही है।" ब्राह्मणो मुखमासीत्।" भगवान् भोगको केवल स्वीकार करते हैं - भोजन तो ब्राह्मण
के मुख के द्वारा
ही करते हैं । अतः सभी पुराणो एवं
श्री मद् भागवत की कथा किसी विरक्त संत् या ब्राहमण मुख से ही सुनना चाहिए
अन्यथा आपका अनुष्ठान व्यर्थ ही है । माताओ को महीने में
पांच दिनों के लिए अशुद्ध
होना निश्चित है । मान लो कोई स्त्री व्यासपीठ पर बैठकर कथा सुना रही हो , अनुष्ठान में हो और उसी समय वह अशुद्ध
हो जाय तो
तुम्हारा अनुष्ठान कैसे पूरा होगा । इसलिए कथा कभी भी ब्राह्मण मुखसे श्रवण करना चाहिए ।स्त्रीयो को प्रण्व और गायत्री का
उच्चारण निषेध
है, किंतु आजकल
माताये खूब जप रही है, सभी
जगह समानता की बात हो रही है । इसका आध्यात्मिक पक्ष जो है सो है किन्तु इसका वैज्ञानिक पक्ष भी है । सनातन
धर्म शुद्ध विज्ञान
पर आधारित धर्म है ।हमारे ऋषियों ने हर विषय को विज्ञान की कसौटी पर कसा है, जांचा है फिर लिखा है।
सर्वप्रथम , स्त्री एवं पुरुष के शरीर की बनावट एक समान नहीं होती है । जितने भी
वेदमंत्र है, उनका
उच्चारण नाभि से होता
है । प्रण्व् और गायत्री तो वेदके मूल ही है और इनका भी उच्चारण नाभि से ही होता है
। माताओ
के शरीर की बनावट पुरूषों से अलग है । माताये जननी है, नाभि
के पास ही माताओ का
गर्भाशय स्थित होता है ।इन मंत्रो के उच्चारण से माताओ के गर्भाशय पर विपरीत प्रभाव पडता है और भविष्य में उन्हे संतानोत्पत्ति
में बाधाये होती है । गायत्री
वेदमाता है, इनका
दुरूगपयोग उचित नहीं।नमः
पार्वतीपत्तये हर हर महादेव ।
शूद्र जाति के श्री सूत जी
सर्वोच्च आसन पर --
करीब करीब सभी पुराणों में नैमिशारणय में संतो
और मुनियो के बीच में हो रही कथाओं -और वक्ता -श्री सूत जी उवाच --का वर्णन है ।
श्री मद भागवत -दशम स्कन्ध 78 वे अध्याय- में महाभारत युद्ध के समय
श्री बलराम जी द्वारा तीर्थ यात्रा करते हुए नैमिशारणय पहुँचने पर जब उन्होंने
मुनियों के बीच कथाओं को सुनाते हुए उच्च आसन व्यास गद्दी पर विराजित वक्ता -सूत
जाति में उत्पन्न श्री रोम हर्षण जी को देखा और जब व्यास गद्दी पर होने के कारण
रोमहर्षण ने बलराम जी को प्रणाम नही किया तब क्रोधित बलराम जी ने रोमहर्शण जी का
वध कर दिया ।
तब सभी मुनियो ने इसे बहुत बडा अधर्म व्
विद्वान् व्यक्ति तथा व्यास आसन पर विराजित रोमहर्शण को ब्राह्मण मानते हुए इसे
ब्रम्हहत्या माना और श्री बलराम जी को प्रायेश्चित करने का आदेश दिया ।
वेदों के अनुसार आत्मा ही पुत्र रूप में अवतरित
होता है मानकर ऋषियो के आदेश पर श्री बलराम जी ने रोम हर्षण के स्थान पर उनके
पुत्र जिसे " श्री सूत जी " कहकर संबोधित किया गया है -को व्यास आसन पर
बैठा कर सम्मानित्त किया और उसे अपनी शक्ति से दीर्घायु -इन्द्रिय शक्ति -और अपार
ज्ञान तथा बल -प्रदान किया ।
फिर मुनियों के आदेश पर उनके यज्ञ में बाधा
डालने वाले आकाश में विचरने वाले भयंकर दानव * बल्वल *(पुत्र इल्वल ) का वध किया
-इससे बलराम जी को ब्रम्हहत्या के महान पाप से मुक्ति मिली और ऋषियो ने उन्हें
बुद्धि के शुद्ध हो जाने का आशीर्वाद दिया ।
और
करे अपराध कोउ -और पाव फल भोग *
अति विचित्र भगवंत गति -को जग जाने जोग *
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