1. वाक् सिद्धि : जो भी वचन बोले जाए वे
व्यवहार में पूर्ण हो, वह
वचन कभी
व्यर्थ न जाये, प्रत्येक
शब्द का महत्वपूर्ण अर्थ हो, वाक्
सिद्धि
युक्त व्यक्ति में श्राप अरु वरदान देने की
क्षमता होती हैं!
2. दिव्य
दृष्टि: दिव्यदृष्टि का तात्पर्य हैं कि जिस व्यक्ति के सम्बन्ध
में भी चिन्तन किया जाये, उसका भूत, भविष्य और वर्तमान एकदम सामने आ
जाये, आगे क्या कार्य करना हैं, कौन सी घटनाएं घटित होने वाली हैं, इसका
ज्ञान होने पर व्यक्ति दिव्यदृष्टियुक्त
महापुरुष बन जाता हैं!
3. प्रज्ञा
सिद्धि : प्रज्ञा का तात्पर्य यह हें की मेधा अर्थात
स्मरणशक्ति, बुद्धि, ज्ञान
इत्यादि! ज्ञान के सम्बंधित सारे विषयों को जो
अपनी बुद्धि में समेट लेता हें वह प्रज्ञावान
कहलाता हें! जीवन के
प्रत्येक क्षेत्र से सम्बंधित ज्ञान के साथ-साथ
भीतर एक चेतनापुंज जाग्रत
4. दूरश्रवण
: इसका तात्पर्य यह हैं की भूतकाल में घटित कोई भी घटना,
वार्तालाप को पुनः सुनने की क्षमता!
5. जलगमन
: यह सिद्धि निश्चय ही महत्वपूर्ण हैं, इस सिद्धि को प्राप्त
योगी जल, नदी, समुद्र
पर इस तरह विचरण करता हैं मानों धरती पर गमन कर रहा
हो!
6. वायुगमन
: इसकातात्पर्य हैं अपने शरीर को सूक्ष्मरूप में परिवर्तित
कर एक लोक से दूसरे लोक में गमन कर सकता हैं, एक स्थान से दूसरे स्थान पर
सहज तत्काल जा सकता हैं!
7. अदृश्यकरण
: अपने स्थूलशरीर को सूक्ष्मरूप में परिवर्तित कर अपने आप
को अदृश्य कर देना! जिससे स्वयं की इच्छा बिना
दूसरा उसे देख ही नहीं
8. विषोका
: इसका तात्पर्य हैं कि अनेक रूपों में अपने आपको परिवर्तित कर
लेना! एक स्थान पर अलग रूप हैं, दूसरे स्थान पर अलग रूप हैं!
9. देवक्रियानुदर्शन
: इस क्रिया का पूर्ण ज्ञान होने पर विभिन्न देवताओं
का साहचर्य प्राप्त कर सकता हैं! उन्हें पूर्ण
रूप से अनुकूल बनाकर उचित
सहयोग लिया जा सकता हैं!
10. कायाकल्प
: कायाकल्प का तात्पर्य हैं शरीर परिवर्तन! समय के प्रभाव
से देह जर्जर हो जाती हैं, लेकिन कायाकल्प कला से युक्त व्यक्ति
सदैव
तोग्मुक्त और यौवनवान ही बना रहता हैं!
11. सम्मोहन
: सम्मोहन का तात्पर्य हैं कि सभी को अपने अनुकूल बनाने की
क्रिया! इस कला को पूर्ण व्यक्ति मनुष्य तो
क्या, पशु-पक्षी, प्रकृति को
भी अपने अनुकूल बना लेता हैं!
12. गुरुत्व
: गुरुत्व का तात्पर्य हैं गरिमावान! जिस व्यक्ति में गरिमा
होती हैं, ज्ञान का भंडार होता हैं, और देने की क्षमता होती हैं, उसे
गुरु कहा जाता हैं! और भगवन कृष्ण को तो
जगद्गुरु कहा गया हैं!
13. पूर्ण
पुरुषत्व : इसका तात्पर्य हैं अद्वितीय पराक्रम और निडर, एवं
बलवान होना! श्रीकृष्ण में यह गुण बाल्यकाल से
ही विद्यमान था! जिस के
कारन से उन्होंने ब्रजभूमि में राक्षसों का
संहार किया! तदनंतर कंस का
संहार करते हुए पुरे जीवन शत्रुओं का संहार कर
आर्यभूमि में पुनः धर्म की
स्थापना की!
14. सर्वगुण
संपन्न : जितने भी संसार में उदात्त गुण होते हैं, सभी कुछ
उस व्यक्ति में समाहित होते हैं, जैसे – दया, दृढ़ता, प्रखरता, ओज, बल,
तेजस्विता, इत्यादि! इन्हीं गुणों के कारण वह सारे विश्व में श्रेष्ठतम व
अद्वितीय मन जाता हैं, और इसी प्रकार यह विशिष्ट कार्य करके
संसार में
लोकहित एवं जनकल्याण करता हैं!
15. इच्छा
मृत्यु : इन कलाओं से पूर्ण व्यक्ति कालजयी होता हैं, काल का
उस पर किसी प्रकार का कोई बंधन नहीं रहता, वह जब चाहे अपने शरीर का त्याग
कर नया शरीर धारण कर सकता हैं!
16. अनुर्मि
: अनुर्मि का अर्थ हैं-जिस पर भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी और
भावना-दुर्भावनाका कोई प्रभाव न हो!
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