हम शारीरिक गति का दमन करते है। विशेषकर हम स्त्रियों
को दुनियाभर में शारीरिक हलन-चलन करने से रोकते है। वे संभोग में लाश की तरह पड़ी
रहती है। तुम उनके साथ जरूर कुछ कर रहे हो, लेकिन वे तुम्हारे
साथ कुछ भी नहीं करती, वे निष्क्रिय सहभागी बनी रहती है। ऐसा क्यों
होता है। क्यों सारी दुनिया में पुरूष स्त्रियों को इस तरह दबाते है।
कारण भय है। क्योंकि एक बार अगर स्त्री का शरीर
पूरी तरह कामाविष्ट हो जाए तो पुरूष के लिए उसे संतुष्ट करना बहुत कठिन है। क्योंकि
स्त्री एक शृंखला में, एक के बाद एक अनेक बार आर्गाज्म के शिखर को
उपलब्ध हो सकती है। पुरूष वैसा नहीं कर सकता। पुरूष एक बार ही आर्गाज्म के शिखर
अनुभव को छू सकता है। स्त्री अनेक बार छू सकती है। स्त्रियों के ऐसे अनुभव के
अनेक विवरण मिले है। कोई भी स्त्री एक शृंखला में तीन-तीन बार शिखर-अनुभव को
प्राप्त हो सकती है। लेकिन पुरूष एक बार ही हो सकता है। सच तो यह है कि पुरूष के
शिखर अनुभव से स्त्री और-और शिखर अनुभव को उत्तेजित होती है। तैयार होती है। तब
बात कठिन हो जाती है। फिर क्या किया जाए?
स्त्री को तुरंत दूसरे पुरूष की जरूरत पड़
जाती है। और सामूहिक कामाचार निषिद्ध है। सारी दुनियां में हमने एक विवाह वाले
समाज बना रखे है। हमें लगता है कि स्त्री का दमन करना बेहतर है। फलत: अस्सी से
नब्बे प्रतिशत स्त्रियां शिखर अनुभव से वंचित रह जाती है। वे बच्चों को जन्म
दे सकती है। यह और बात है। वे पुरूष को तृप्त कर सकती है। यह भी और बात है। लेकिन
वे स्वयं कभी तृप्त नहीं हो पाती। अगर सारी दुनिया की स्त्रियां इतनी कड़वाहट
से भरी है, दुःखी है, चिड़चिड़ी है,
हताश
अनुभव करती है। तो यह स्वाभाविक है। उनकी बुनियादी जरूरत पूरी नहीं होती।
कांपना अद्भुत है। क्योंकि जब संभोग करते हुए
तुम कांपते हो तो तुम्हारी ऊर्जा पूरे शरीर में प्रवाहित होने लगती है। सारे शरीर
में तरंगायित होने लगती है। तब तुम्हारे शरीर का अणु-अणु संभोग में संलग्न हो
जाता है। प्रत्येक अणु जीवंत हो उठता है। क्योंकि तुम्हारा प्रत्येक अणु काम
अणु है।----------------
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//शरीर
शास्त्री ये प्रश्न उठाते रहते है। कि पुरूष के शरीर में स्तन क्यों होते है। जब
कि उनकी कोई आवश्यकता नहीं दिखाई देती है। क्योंकि पुरूष को बच्चे को दूध तो
पिलाना नहीं है। फिर उनकी क्या आवश्यकता है। वे ऋणात्मक ध्रुव है। इसलिए तो पुरूष
के मन में स्त्री के स्तनों की और इतना आकर्षण है। वे धनात्मक ध्रुव है। इतने
काव्य, साहित्य, चित्र,मूर्तियां सब कुछ स्त्री के स्तनों से जुड़े है। ऐसा लगता है जैस
पुरूष को स्त्री के पूरे शरीर की अपेक्षा उसके स्तनों में अधिक रस है। और यह कोई
नई बात नहीं है। गुफाओं में मिले प्राचीनतम चित्र भी स्तनों के ही है। स्तन उनमें
महत्वपूर्ण है। बाकी का सारा शरीर ऐसा मालूम पड़ता है कि जैसे स्तनों के चारों और
बनाया गया हो। स्तन आधार भूत है।
क्योंकि स्तन उनके धनात्मक ध्रुव है। और जहां
तक योनि का प्रश्न है वह करीब-करीब संवेदन रहित है। स्तन उसके सबसे संवेदनशील अंग
है। और स्त्री देह की सारी सृजन क्षमता स्तनों के आस-पास है।
यही कारण है कि हिंदू कहते है कि जबतक स्त्री
मां नहीं बन जाती, वह
तृप्त नहीं होती। पुरूष के लिए यह बात सत्य नहीं है। कोई नहीं कहेगा कि पुरूष जब
तक पिता न बन जाए तृप्त नहीं होगा। पिता होना तो मात्र एक संयोग है। कोई पिता हो
भी सकता है, नहीं
भी हो सकता है। यह कोई बहुत आधारभूत सवाल नहीं है। एक पुरूष बिना पिता बने रह सकता
है। और उसका कुछ न खोये। लेकिन बिना मां बने स्त्री कुछ खो देती है। क्योंकि उसकी
पूरी सृजनात्मकता, उसकी
पूरी प्रक्रिया तभी जागती है। जब वह मां बन जाती है। जब उसके स्तन उसके अस्तित्व
के केंद्र बन जाते है। तब वह पूर्ण होती है। और वह स्तनों तक नहीं पहुंच सकती यदि
उसे पुकारने वाला कोई बच्चा न हो।
तो पुरूष स्त्रियों से विवाह करते है ताकि
उन्हें पत्नियाँ मिल सके, और
स्त्रियां पुरूषों से विवाह करती है ताकि वे मां बन सकें। इसलिए नहीं कि उन्हें
पति मिल सके। उनका पूरा का पूरा मौलिक रुझान ही एक बच्चा पाने में है जो उनके
स्त्रीत्व को पुकारें।
तो वास्तव में सभी पति भयभीत रहते है, क्योंकि जैसे ही बच्चा पैदा होता है
वे स्त्री के आकर्षण की परिधि पर आ जाते है। बच्चा केंद्र हो जाता है। इसलिए पिता
हमेशा ईर्ष्या करते है, क्योंकि
बच्चा बीच में आ जाता है। और स्त्री अब बच्चे के पिता की उपेक्षा बच्चे में अधिक
उत्सुक हो जाती है। पुरूष गौण हो जाता है। जीने के लिए उपयोगी, परंतु अनावश्यक। अब मूलभूत आवश्यकता
पूर्ण हो गई।
पश्चिम में बच्चों को सीधे स्तन से दूध न
पिलाने का फैशन हो गया है। यह बहुत खतरनाक है। क्योंकि इसका अर्थ यह हुआ कि स्त्री
कभी अपनी सृजनात्मकता के केंद्र पर नहीं पहुंच सकेगी। जब एक पुरूष किसी स्त्री से
प्रेम करता है तो वह उसके स्तनों को प्रेम कर सकता है। लेकिन उन्हें मां नहीं कह
सकता। केवल एक छोटा बच्चा ही उन्हें मां कह सकता है। या फिर प्रेम इतना गहन हो कि
पति भी बच्चे की तरह हो जाए। तो यह संभव हो सकता है। तब स्त्री पूरी तरह भूल जाती
है कि वह केवल एक संगिनी है, वह
अपनी प्रेमी की मां बन जाती है। तब बच्चे की आवश्यकता नहीं रह जाती, तब वह मां बन सकती है। और स्तनों के
निकट उसके अस्तित्व का केंद्र सक्रिय हो सकता है।
स्त्रैण अस्तित्व की पूरी सृजनात्मकता मातृत्व
पर ही आधारित है। इसीलिए तो स्त्रियां अन्य किसी तरह के सृजन में इतनी उत्सुक नहीं
होती। पुरूष सर्जक है। स्त्रियां सर्जक नहीं है। न उनके चित्र बनाए है। न महान
काव्य रचे है। न कोई बड़ा ग्रंथ लिखा है। न कोई बड़े धर्म बनाए है। वास्तव में
उसने कुछ नहीं किया हे। लेकिन पुरूष सृजन किए चला जाता है। वह पागल है। वह
आविष्कार कर रहा है, सृजन
कर रहा है। भवन निर्माण कर रहा है।
तंत्र कहता है, ऐसा इसलिए है क्योंकि पुरूष नैसर्गिक रूप से सर्जक नहीं है। इसलिए वह
अतृप्त और तनाव में रहता है। वह मां बनना चाहता है। वह सर्जक बनना चाहता है। तो वह
काव्य का सृजन करता है। वह कई चीजों का सृजन करता है। एक तरह से सृजन उसकी मां हो
जाये। लेकिन स्त्री तनाव रहित होती है। यदि वह मां बन सके तो तृप्त हो जाती है।
फिर किसी और चीज में उत्सुक नहीं रहती।//
स्त्रैण अस्तित्व की पूरी सृजनात्मकता मातृत्व
पर ही आधारित है। इसीलिए तो स्त्रियां अन्य किसी तरह के सृजन में इतनी उत्सुक नहीं
होती। पुरूष सर्जक है। स्त्रियां सर्जक नहीं है। न उनके चित्र बनाए है। न महान
काव्य रचे है। न कोई बड़ा ग्रंथ लिखा है। न कोई बड़े धर्म बनाए है। वास्तव में
उसने कुछ नहीं किया हे। लेकिन पुरूष सृजन किए चला जाता है। वह पागल है। वह
आविष्कार कर रहा है, सृजन
कर रहा है। भवन निर्माण कर रहा है।
तंत्र कहता है, ऐसा इसलिए है क्योंकि पुरूष नैसर्गिक रूप से सर्जक नहीं है। इसलिए वह
अतृप्त और तनाव में रहता है। वह मां बनना चाहता है। वह सर्जक बनना चाहता है। तो वह
काव्य का सृजन करता है। वह कई चीजों का सृजन करता है। एक तरह से सृजन उसकी मां हो
जाये। लेकिन स्त्री तनाव रहित होती है। यदि वह मां बन सके तो तृप्त हो जाती है।
फिर किसी और चीज में उत्सुक नहीं रहती।//
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