,बहुत
समय पहले की बात है, तब
दक्षिण देश के कम्बुक नाम के नगर में एक ब्राह्मण रहता था| उसका नाम था - हरिदत्त| हरिदत्त नगर का एक संभ्रांत एवं
साधन-संपन्न व्यक्ति था| धन-दौलत
की उसके पास कोई कमी नहीं थी| उसे
बस एक ही दुख था| उसके
यहां कोई संतान नहीं थी| धीरे-धीरे
उसकी आयु बढ़ती गई और वह प्रौढ़ावस्था में पहुंच गया| हरिदत्त अब संतान की ओर से बिल्कुल
निराश हो चुका था| उसने
मन में धैर्य कारण कर लिया था कि संतान का सुख उसके भाग्य में लिखा ही नहीं है, किंतु विधि का विधान कुछ और ही था| एक दिन उसके घर-आंगन में शिशु की
किलकारियां गूंज उठीं| उसे
एक पुत्र की प्राप्ति हो गई|
हरिदत्त और उसकी पत्नी ने भली-भांति अपने पुत्र
का लालन-पालन किया, उसके
लिए अच्छी शिक्षा का प्रबंध किया,
लेकिन कुछ दिन बाद उनका पुत्र देवदत्त कुसंगति में पड़ गया| उसे जुआ खेलने का व्यसन लग गया| एक दिन वह जुए में अपना सब कुछ, यहां तक कि अपने शरीर पर पहने हुए
वस्त्र भी हार गया| तब
उसे बड़ी लज्जा महसूस हुई| शर्मिंदगी
के कारण वह अपने घर न जाकर नगर से बाहर की ओर चल पड़ा| उसने निश्चय कर लिया था कि अब वन अपने
माता-पिता को अपना मुंह नहीं दिखाएगा और किसी नदी या सरोवर में डूबकर अपने जान दे
देगा, किंतु भाग्य को
कुछ और ही मंजूर था| देवदत्त
जब नगर से बाहर पहुंचा तो उसे एक टूटा-फूटा-सा मंदिर दिखाई दिया| उस मंदिर में कुछ महीने पहले तक कोई भी
पुजारी नहीं रहता था, किंतु
कुछ समय से उसमें न जाने कहां से आकर एक पुजारी रहने लगा था| देवदत्त ने जब उस मंदिर में प्रवेश
किया, तब वह पुजारी
भगवान की मूर्ति के सामने खड़ा हुआ उनकी पूजा-अर्चना में व्यस्त था| देवदत्त वहीं बैठ गया और पुजारी के
निवृत होने की प्रतीक्षा करने लगा|
कुछ समय पश्चात जब पुजारी पूजा आदि से निवृत हुआ तो उसकी दृष्टि उदास
भाव में बैठे देवदत्त पर पड़ी| वह
उसके समीप पहुंचा, उसे
पूजा का प्रसाद दिया और फिर उसका परिचय पूछा| देवदत्त ने सत्य भाव से पुजारी को सारी बातें बता दी| बातें सुनकर उस पुजारी ने, जिसका नाम जलपाद था, उससे कहा - "पुत्र! बुरे व्यसनी
के लिए तो संसार का संपूर्ण धन भी अपर्याप्त होता है, अत: अब तक जो हो चुका है, उसे भूल जाओ और मेरे पास रहकर अपना
आचरण सुधारो| मैं
तुम्हें 'इष्ट साधना' की विधियां समझा दूंगा| यदि तुमने अपने इष्ट की सिद्धि प्राप्त
कर ली तो फिर संसार का समस्त वैभव तुम्हें स्वत: ही प्राप्त हो जाएगा|"
"उसके लिए मुझे क्या करना होगा, श्रीमान?" देवदत्त ने पूछा|
"कठोर साधना और मेरी आज्ञा का पालन|" पुजारी जलपाद ने
कहा - "जिस प्रकार मैंने अपनी साधना से भूत-प्रेतों को वश में करके उनसे
सिद्धियां प्राप्त की हैं, उसी
प्रकार तुम्हें भी कठोर साधना द्वारा सिद्धियां प्राप्त करनी होंगी|"
"तब तो आप मुझे सिद्धि प्राप्त करने की
विधि समझा दीजिए| मैं
आपकी हर आज्ञा, हर
आदेश का पालन करूंगा|" देवदत्त
बोला|
"ठीक है| कल रात से मैं तुम्हें साधना करने की विधि समझाऊंगा| इसके लिए तुम्हें कुछ समय तक मेरे समीप
ही रहना पड़ेगा|"
अगली रात जलपाद उसे श्मशान के निकट एक वट वृक्ष
के नीचे ले गया| वहां
उसने मंत्र पढ़कर खीर और नैवेद्य उस वट वृक्ष की जड़ में रखे और खीर और नैवेद्य का
कुछ भाग चारों दिशाओं में बिखेर दिया, फिर उसने देवदत्त को भी ऐसा ही करने के लिए कहा| तत्पश्चात जब देवदत्त ने वैसा ही कर
दिया तो पुजारी जलपाद ने उससे कहा - "अब तुम इसी भांति पूजा करो और पूजा के
दौरान यह कहते रहो - हे देवी विद्युतप्रभा! मेरी पूजा ग्रहण करो|"
उस दिन से देवदत्त जलपाद के पास रहता हुआ उसी
की भांति विद्युतप्रभा की आराधना करने लगा| कई दिन की कठिन साधना के बाद आखिर एक रात उस वट वृक्ष का तना फटा और
एक दिव्य स्त्री तने से प्रकट हुई|
उस दिव्य स्त्री ने देवदत्त से कहा - "युवक! मेरी स्वामिनी
तुम्हारी आराधना से प्रसन्न हैं|
उन्होंने तुम्हें दर्शन देने का निर्णय किया है| कृपया मेरे साथ चलो|"
देवदत्त उस दिव्य स्त्री के साथ वट वृक्ष के
फटे हुए तने में प्रविष्ट हो गया|
वह स्त्री उसे गर्भागार में बने मणि-माणिक्यों से युक्त एक भव्य भवन
में ले आई| देवदत्त
ने वहां एक रत्नजड़ित सिंहासन पर एक अतीव सुंदरी को बैठे देखा| देवदत्त का स्वागत करते हुए उस सुंदर
स्त्री ने कहा - "आओ युवक! इस महल में तुम्हारा स्वागत है| मैं रत्नवर्ष नामक यक्ष की पुत्री
विद्युतप्रभा हूं, जिसकी
तुम और जलपाद साधना करते रहे हो|"
यह सुनकर देवदत्त श्रद्धापूर्वक उसके सामने
नतमस्तक हो गया, फिर
वह बोला - "देवी विद्युतप्रभा! आपका दर्शन पाकर मैं धन्य हो गया| कृपया मेरे योग्य कोई सेवा बताइए|"
"युवक!" विद्युतप्रभा बोली -
"जलपाद की आराधना से प्रसन्न होकर तो मैं बहुत शीघ्र ही उसे 'अष्टसिद्धि' देने वाली हूं, लेकिन तुम मुझे बहुत पसंद आए हो, अत: मैं चाहती हूं कि तुम मेरे साथ
विवाह करके मेरे साथ ही रहो|"
"यह तो मेरा अहोभाग्य है देवी
विद्युतप्रभा!" तत्काल देवदत्त बोला - "मैं प्रस्तुत हूं और आशा दिलाता
हूं कि आपकी हर आज्ञा का पालन करूंगा|"
इस प्रकार देवदत्त विद्युतप्रभा से विवाह करके
वहीं उसके पास रहने लगा| कुछ
समय बाद वह विद्युतप्रभा से आज्ञा लेकर गर्भागार से बाहर निकला और जलपाद के पास
पहुंचा| वहां उसने जलपाद
को उस पर अब तक बीती सारी बातें बता दीं| सुनकर जलपाद ने कहा - "वत्स! तुमने बहुत अच्छा काम किया है| अब एक काम और करो|" "वह क्या?"
"किसी भी तरह से उस यक्षिणी का पेट फाड़कर
उसका गर्भ ले आओ| यदि
तुमने ऐसा करने से इनकार किया तो मैं तुम्हें अपनी सिद्धि शक्ति से भस्म कर दूंगा|"
अनिश्चित एवं दुखी भाव से देवदत्त पुन:
विद्युतप्रभा के पास पहुंचा| विद्युतप्रभा
अपनी शक्ति से उसके मनोभावों को जान गई| उसने देवदत्त को आश्वासन दिया - "देवदत्त! मैं जान गई हूं कि
जलपाद ने तुम्हें विवश करके मेरा गर्भ लाने के लिए भेजा है, ताकि वह उस गर्भ का भक्षण करके असंख्य
सिद्धियां प्राप्त कर सकें|" --"हां, लेकिन मैं ऐसा नहीं कर सकता|" हिचकिचाते हुए देवदत्त ने कहा|
"हिचकिचाओ मत देवदत्त!" विद्युतप्रभा
बोली - "आगे बढ़ो और मेरा पेट फाड़कर मेरा गर्भ निकाल लो| मैं तुम्हें ऐसा करने की आज्ञा देती
हूं|"
"नहीं देवी विद्युतप्रभा! मैं ऐसा कदापि
नहीं कर सकता| चाहे
मुझे जलपाद के क्रोध का सामना ही क्यों न करना पड़े|" देवदत्त ने दो टूक स्वर में उत्तर दे दिया|
तब विद्युतप्रभा ने स्वयं ही अपना पेट फाड़कर
अपना गर्भ निकाला और उसे देवदत्त को देकर कहा - "देवदत्त! लो इस गर्भ को ले
जाओ, जो भी कोई
व्यक्ति इस गर्भ का भक्षण कर लेगा,
वह सिद्ध विद्याधर हो जाएगा| पूर्व काल में मैं स्वयं भी एक विद्याधरी थी, लेकिन एक शाप के कारण मुझे यक्षिणी की
योनि में जन्म लेना पड़ा| अब
मेरे उस शाप का अंत हो गया है| अब
मैं पुन: अपने विद्याधर लोक को लौट रही हूं|"
ऐसा कहकर विद्युतप्रभा लोप हो गई| व्यथित हृदय से देवदत्त विद्युतप्रभा
के गर्भ को लेकर गर्भागार से बाहर निकल आया और वह गर्भ लाकर जलपाद को सौंप दिया|
जलपाद विद्युतप्रभा का गर्भ पाकर प्रसन्न हो
गया| वह देवदत्त से
बोला - "वत्स! अब जल्दी से जंगल में जाकर लकड़ियां चुन लाओ| मैं इस गर्भ को आग में भूनूंगा| भुन जाने पर दोनों प्रसाद रूप में इसे
ग्रहण करेंगे| प्रसाद
खाते ही हम दोनों असंख्य सिद्धियों के स्वामी बन जाएंगे|"
"गुरुदेव!" देवदत्त बोला - "मैं
इस घृणित कार्य में आपका सहयोग नहीं कर सकता| पहले तो आपने यही घृणित कार्य किया कि मेरे द्वारा देवी विद्युतप्रभा, जिसकी आप इतने दिन तक आराधना करते रहे, उसका गर्भ लाने के लिए मुझे विवश किया
और जब उस देवी ने कृपाकर स्वयं ही तुम्हारी स्वार्थ सिद्धि के लिए गर्भ निकालकर दे
दिया तो अब आप उसे भूनकर खाने की बातें कर रहे हैं| मैं तो यह घृणित कार्य करने के लिए हरगिज भी तैयार नहीं हूं|"
यह सुनते ही क्रोध से जलपाद की आंखें जलने लगीं| उसने देवदत्त की ओर लाल-लाल आंखों से
देखते हुए कहा - "देवदत्त! मैंने जो कुछ कहा है, तत्काल उसका पालन करो, अन्यथा मैं तुम्हें अभी यमलोक पहुंचा
दूंगा|"
मरता क्या न करता! मृत्यु के भय से देवदत्त
तत्काल लकड़ियां चुनने के लिए जंगल में चला गया| जब वह लकड़ी लेकर जंगल से लौटा तो उसने जलपाद को वहां से गायब पाया| देवदत्त समझ गया कि जलपाद ने उसके साथ
धोखा किया है| जंगल
से लकड़ियां लाने का तो एक बहाना था| दरअसल जलपाद उसे किसी तरह वहां से दूर भेजना चाहता था, ताकि अकेला ही विद्युतप्रभा के गर्भ को
पकाकर उसे खा सके और वह अपने उस उद्देश्य में कामयाब भी हो चुका था|
यह सब जानकर देवदत्त के मन में जलपाद के प्रति
घृणा पैदा हो गई| उसने
निश्चय कर लिया कि जलपाद की इस धूर्तता की सजा वह उसे अवश्य देगा| तब उसने अपने अभीष्ट महोप्रेत को सिद्ध
करने का निश्चय कर लिया| वह
फट वृक्ष के नीचे बैठ गया और मंत्र पढ़-पढ़कर अपने शरीर का काफी मांस काटकर
महाप्रेत का आह्वान करने लगा| इस
प्रकार जब वह अपने शरीर का मांस प्रेतराज की भेंट चढ़ा चुका तो उसके कृत्य से
प्रसन्न होकर महाप्रेत प्रकट हुआ|
उसने कहा - "देवदत्त! अब बस करो| अब और अपना मांस काटकर मेरा आह्वान करने की आवश्यकता नहीं है| मैं तुमने प्रसन्न हूं| बोलो क्या चाहते हो?"
देवदत्त बोला - "हे प्रेतराज! जलपाद ने
मेरे साथ छल किया है| उस
पापी ने देवी विद्युतप्रभा का गर्भ लाने के लिए पहले तो मुझे माध्यम बनाया और जब
मेरी विवशता जानकर देवी विद्युतप्रभा ने मुझ पर कृपा कर स्वयं ही अपना गर्भ
निकालकर मुझे दे दिया तो जलपाद स्वयं उस गर्भ से सिद्धि प्राप्त करके न जाने कहां
चला गया| मैं उससे उसके
इस दुष्कर्म का बदला लेना चाहता हूं, प्रेतराज! बताओ, वह
पापी कहां है?"
प्रेतराज ने अपनी अंतर्दृष्टि से देखकर बताया -
"देवदत्त! जलपाद इस समय विद्याधर लोक में विद्युतप्रभा के महल में है और देवी
विद्युतप्रभा से अपना प्रेम स्वीकार कर लेने का आग्रह कर रहा है|"
"तब तो मुझे तुरंत विद्याधर लोक पहुंचना
चाहिए|" देवदत्त
व्यग्रता से बोला - "हे प्रेतराज! मुझे तुरंत विद्याधर लोक पहुंचाओ|"
महाप्रेत के कंधों पर बैठकर देवदत्त आकाश मार्ग
से विद्याधर लोक में पहुंचा| महाप्रेत
ने उसे देवी विद्युतप्रभा के महल में प्रांगण में उतार दिया और अदृश्य रूप में एक
ओर खड़ा हो गया|
जलपाद उस समय राजसी वस्त्र पहने विद्युतप्रभा
से अपनी पत्नी बन जाने का आग्रह कर रहा था और विद्युतप्रभा बार-बार उससे इन्कार कर
रही थी| तब पापी जलपाद
उससे बलात्कार करने के लिए उद्धत हो गया| विद्युतप्रभा उसकी पकड़ से छूटकर इधर-उधर भागने का प्रयास करने लगी, तभी उसकी नजर देवदत्त पर पड़ी और वह
जोर से चिल्ला पड़ी - "देवदत्त! मुझे इस पापी से बचाओ| यह दुष्ट मेरे साथ बलात्कार करने की
चेष्टा कर रहा है|"
बस फिर क्या था| देवदत्त की आंखों में खून उतर आया| उसने विद्युतप्रभा को एक ओर किया और जलपाद से भिड़ गया| दोनों में द्वंद्व युद्ध होने लगा, लेकिन कुछ ही देर में देवदत्त की शक्ति
जवाब देने लगी| असीम
सिद्धियां प्राप्त किए हुए जलपाद के सम्मुख वह पस्त पड़ने लगा|
यह देखकर महाप्रेत उसकी मदद के लिए उपस्थित हुआ| उसने जलपाद की वह चमत्कारी तलवार
देवदत्त को दे दी, जिसमें
जलपाद की समस्त सिद्धियां समाहित थीं| महाप्रेत ने फुसफुसाकर देवदत्त के कान में कहा - "देवदत्त! यह
चमत्कारी तलवार जलपाद की जान है|
जब तक यह इसके अधिकार में रहेगी, यह अजेय रहेगा| विश्व
की कोई शक्ति इसका मुकाबला नहीं कर पाएगी, अत: अब तुम इसी के शस्त्र से इसका विनाश कर डालो| याद रखो, भूलकर भी यदि तलवार तुम्हारे अधिकार से बाहर चली गई, तब तुम्हारे साथ-साथ मेरा भी विनाश
निश्चित है, क्योंकि
अपनी मायावी अंतर्दृष्टि से जलपाद मुझे भी देख चुका है|"
चमत्कारी तलवार हाथ में आते ही देवदत्त में बल
का संचार हो गया| वह
पूरी शक्ति से जलपाद से जा टकराया,
फिर देखते-ही-देखते उसने जलपाद को परास्त कर दिया| भूमि पर पड़े जलपाद की गर्दन पर तलवार
की नोंक जमाए जब वह उसका वध करने ही वाला था, तो एकाएक विद्युतप्रभा चिल्लाई - "नहीं देवदत्त! यह अधर्म का
कार्य मत करना| जलपाद
ब्राह्मण है| यदि
तुमने इसका वध कर दिया तो तुम्हें ब्रह्महत्या का पाप लग जाएगा| इस स्थान पर महामाई पार्वती निवास करती
हैं| तुम्हारे द्वारा
इसकी हत्या हुई तो वे अप्रसन्न हो जाएंगी और तुम्हें शाप दे देंगी, अत: अपनी तलवार इसकी गर्दन से हटा लो|"
विवश होकर देवदत्त ने अपनी तलवार की नोंक जलपाद
की गर्दन से हटा ली| यह
देखकर महाप्रेत बोला -
"देवदत्त! अब इस तलवार का स्पर्श इसके मस्तक से करो| ऐसा करते ही इसकी शेष शक्तियां भी इस
तलवार में समाहित हो जाएंगी| तब
यह एक असहाय व्यक्ति बनकर रह जाएगा|
तब सभी शक्तियां छिन जाने के कारण यह तुम्हारा कोई भी अहित नहीं कर
पाएगा|"
देवदत्त ने वैसा ही किया| शक्तियां छिनते ही जलपाद एक सामान्य
आदमी बन गया| तब
देवदत्त ने उससे कहा - "दुष्ट जलपाद! मैंने तुझे गुरु मानकर तेरी अभ्यर्थना
की, जैसा तुने
निर्देश दिया, उसके
अनुसार काम करके तेरा अभीष्ट सिद्ध किया, किंतु तूने मेरे साथ ही धोखा किया, जी तो चाहता है कि अभी तेरा वध कर दूं, किंतु मैं देवी विद्युतप्रभा को वचन दे चुका हूं कि तेरा वध नहीं
करूंगा, किंतु मैं भी
तेरी ही तरह एक ब्राह्मण हूं| मैं
तुझे शाप देता हूं कि तू मृत्युलोक में जाकर नाना प्रकार के कष्ट भोगता हुआ अपना
शेष जीवन व्यतीत करेगा| कोई
भी तेरा हितचिंतक, तेरा
मित्र तेरी सहायता के लिए नहीं आएगा| एक घृणित व्यक्ति की भांति सभी तुझे दुत्कारेंगे, वे तेरे शरीर को छूने से भी कतराएंगे| तू किसी खुजली हुए कुत्ते की भांति
तिल-तिलकर अपने प्राण त्यागेगा|"
देवदत्त ने शाप से जलपाद तत्काल विद्याधर लोक
से नीचे गिरता चला गया, तभी
वहां महामाता पार्वती प्रकट हो गईं|
वह देवदत्त से बोलीं - "हे ब्राह्मणपुत्र! जलपाद का वध न करके
तुमने मेरे इस पवित्र स्थान की मर्यादा का मान बढ़ाया है| मैं अपने लोक में रक्तपात को कभी पसंद
नहीं करती| मैं
तुम्हारे इस कृत्य से बहुत प्रसन्न हूं| तुम जो भी वर मांगना चाहते हो, मांग लो| मैं
तुम्हें कैसा भी वर देने के लिए प्रस्तुत हूं|"
तलवार भूमि पर फेंक देवदत्त महामाता पार्वती के
चरणों में गिर पड़ा| वह
करुण स्वर में बोला - "हे मां जगतजननी| आज आपका दर्शन पाकर मेरा तो जीवन धन्य हो गया| हे माता! आप तो अंतर्यामी हैं| सारे विद्याधर आप ही को अभीष्ट मानकर
आपकी आराधना करते हैं| आज
आपने सशरीर प्रकट होकर मुझे दर्शन दिए, यही मेरे लिए बहुत है|
आपका दर्शन पाकर कुछ और मांगने की मेरी इच्छा ही शेष नहीं बची है| अब मैं और क्या मांगूं?"
"फिर भी पुत्र! तेरी क्षमाशीलता से
प्रसन्न होकर मैं तुम्हें कुछ-न-कुछ दूंगी अवश्य!" माता पार्वती बोलीं -
"आज से मैं तुम्हें इस विद्याधर लोक का राजा नियुक्त करती हूं| आज से इस लोक पर तुम्हारा शासन होगा|"
मां पार्वती की इच्छानुसार देवदत्त विद्याधर
लोक का राजा बन गया| तब
उसने विधिवत विद्युतप्रभा के साथ विवाह रचाया और दोनों सुखपूर्वक वहां रहने लगे| देवी मां का दर्शन पाकर महाप्रेत भी
प्रेतयोनि से मुक्ति पा गया और विद्याधर बनकर मां पार्वती के बसाए विद्याधर लोक
में निवास करने लगा| इस
प्रकार देवदत्त की क्षमाशीलता ने उसकी जीवनचर्या ही बदल दी| अनेक वर्ष तक विद्याधर लोक में रहने के
कारण वह जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो गया| जब उसका अंत समय आया तो देवदूत उसे लेने के लिए स्वयं आए| देवदत्त को स्वर्ग में स्थान मिला|
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