सरस्वती देवी की महिमा-
परमब्रह्म परमात्मा से संबंध रखने वाली वाणी, विद्या, बुद्धि, ज्ञान की जो
व्यवस्था करती हैं उन्हें सरस्वती कहा जाता है। सम्पूर्ण ज्ञान विज्ञान
इनका ही स्वरूप है। स्वर, संगीत और ताल इनके ही रूप हैं। ये विषय, ज्ञान
और वाणीमई हैं। वे परम प्रसिद्ध, वाद विवाद की अधिष्ठात्री एवं शान्तमूर्ति
हैं। ये हाथ में वीणा और पुस्तक लिए रहती हैं। इनका विग्रह शुद्ध सत्वमय
है। ये सदाचार परायण एवं भगवान श्रीहरि की पत्नी हैं।
सरस्वती देवी आख्यान-
देवी सरस्वती पांचों प्रकृतियों में कृष्ण द्वारा सबसे पहले पूजित हैं। कृष्ण ने सबसे पहले सरस्वती की पूजा की, जिनकी कृपा से मूर्ख व्यक्ति भी पंडित बन जाता है। तब इन कामस्वरूपिणी देवी ने भगवान कृष्ण से विवाह की इच्छा व्यक्त की। सर्वज्ञ भगवान इनका अभिप्राय समझकर सत्य, हितकर एवम सुखदायक वचन बोले- " हे साध्वी! तुम विष्णु के साथ जाओ। वे मेरे ही स्वरूप हैं। उनकी चार भजाएँ हैं। मेरे ही समान उन्हें सभी सद्गुण वर्तमान हैं। वे सदैव तरुण, अनेकों कामदेवों के समान सुंदर और सर्वसमर्थ हैं। भद्रे! तुम बैकुंठ पधारो। तुम्हारे लिए वहीं रहना हितकर होगा। वहाँ विष्णु को पति बनाकर तुम सदा के लिए सुखपूर्वक रहना। विष्णु की पत्नी लक्ष्मी हैं जिनके काम, क्रोध, लोभ, मोह जैसे अवगुण लेशमात्र को भी नहीं हैं। वो तुम्हारा सम्मान करेंगी और विष्णु तुम दोनों से समान प्रेम करेंगे।"
फिर भगवान आगे बोले- "प्रत्येक ब्रह्मांड में माघ शुक्ल पंचमी के दिन विद्यारम्भ के समय तुम्हारी भव्य पूजा होगी। मेरे वर अनुसार कल्प कल्पान्तर तक सदा सर्वदा मनुष्य, मनुगण, योगी, सिद्ध, तपस्वी तुम्हारी सोलह उपचारों से भक्तिपूर्वक पूजा करेंगे। इस प्रकार कहकर स्वयम भगवान कृष्ण ने उनकी पूजा की। उसके बाद तो शिव, ब्रह्मा, धर्म, इंद्र आदि देवताओं के द्वारा सदा ही उनकी पूजा होने लगी।"
सरस्वती का धरती पर आगमन-
लक्ष्मी, सरस्वती और गंगा ये तीन भगवान विष्णु की पत्नी हुई। एक बार सरस्वती को गंगा से ईर्ष्या हो गयी सो उन्होंने गंगा से कड़े शब्द कहे। तब शांतिस्वरूपा और परमदयालु लक्ष्मी जी ने उन्हें टोका जिस कारण सरस्वती को लगा कि लक्ष्मी गंगा का पक्ष ले रही हैं। इसलिए क्रोध से कंपती हुई सरस्वती ने कहा- "लक्ष्मी तुम गंगा का पक्ष ले रही हो। तुम बृक्ष और जल हो जाओ।" लेकिन बदले में सरस्वती को श्राप तो दूर लक्ष्मी क्रोधित भी नहीं हुईं। ये बात गंगा से नहीं देखी गयी और उन्होंने कहा- "सरस्वती तुमने निर्दोष और धीरमती लक्ष्मी को श्राप दिया है। तुम भी जल रूप होकर मतर्यलोक जाने के योग्य हो जहाँ पापी मनुष्य रहते हैं।" सरस्वती ने भी कहा- "तो तुम भी जल रूप हो जाओ और उन सभी पापियों के पापों को अंगीकार करती रहो।"
तभी वहाँ भगवान विष्णु पधारे। देवियों की कलह सुनकर वे आसन पर बैठ गए और देवियों को अपने समीप बिठाकर बोले- "लक्ष्मी! भद्रे! तुम अपनी कला से धर्मध्वज की पुत्री के रूप में भोलोक पर जाओ। वहाँ तुम अयोनिजा जन्म लेना। वहीं तुम कालांतर में वृक्ष रूप हो जाओगी। लोग तुम्हें त्रिलोक पावनी तुलसी के नाम से जानेंगे। अपनी एक कला से तुम जल रूप होकर पद्मावती नदी बन जाओ।"
फिर गंगा से कहा- "तुम अपनी कला के अंश से जल रूप होकर शिव की जटाओं में निवास करोगी। भारत में बहते हुए तुम संसार के कलुशों को धोती रहोगी। वहाँ सागर मेरी कला का अंश है जिसकी तुम भार्या बनोगी। अपने सम्पूर्ण अंश से तुम यहीं बैकुंठ में रहोगी।"
फिर सरस्वती से कहा- "तुम अपनी कला से सरस्वती नामक नदी बनकर बहो जो परमपवित्र और संसार के दुखों से मुक्त करने वाली होगी।"
भारत में पधारने से उनका नाम भारती हुआ, ब्रह्मा पर अनुग्रह करने के कारण वे ब्राह्मी कहलाई और वचनों की अधिठात्री होने से वाणी नाम से विख्यात हुई। भगवान विष्णु का एक नाम सरस्वान है, उनकी पत्नी होने के कारण ही उनका नाम सरस्वती हुआ। नदी रूप पधारकर वे देवी परम पवित्र तीर्थ बन गयीं।
- देवी भागवत पूराण, नवम स्कंध
सरस्वती देवी आख्यान-
देवी सरस्वती पांचों प्रकृतियों में कृष्ण द्वारा सबसे पहले पूजित हैं। कृष्ण ने सबसे पहले सरस्वती की पूजा की, जिनकी कृपा से मूर्ख व्यक्ति भी पंडित बन जाता है। तब इन कामस्वरूपिणी देवी ने भगवान कृष्ण से विवाह की इच्छा व्यक्त की। सर्वज्ञ भगवान इनका अभिप्राय समझकर सत्य, हितकर एवम सुखदायक वचन बोले- " हे साध्वी! तुम विष्णु के साथ जाओ। वे मेरे ही स्वरूप हैं। उनकी चार भजाएँ हैं। मेरे ही समान उन्हें सभी सद्गुण वर्तमान हैं। वे सदैव तरुण, अनेकों कामदेवों के समान सुंदर और सर्वसमर्थ हैं। भद्रे! तुम बैकुंठ पधारो। तुम्हारे लिए वहीं रहना हितकर होगा। वहाँ विष्णु को पति बनाकर तुम सदा के लिए सुखपूर्वक रहना। विष्णु की पत्नी लक्ष्मी हैं जिनके काम, क्रोध, लोभ, मोह जैसे अवगुण लेशमात्र को भी नहीं हैं। वो तुम्हारा सम्मान करेंगी और विष्णु तुम दोनों से समान प्रेम करेंगे।"
फिर भगवान आगे बोले- "प्रत्येक ब्रह्मांड में माघ शुक्ल पंचमी के दिन विद्यारम्भ के समय तुम्हारी भव्य पूजा होगी। मेरे वर अनुसार कल्प कल्पान्तर तक सदा सर्वदा मनुष्य, मनुगण, योगी, सिद्ध, तपस्वी तुम्हारी सोलह उपचारों से भक्तिपूर्वक पूजा करेंगे। इस प्रकार कहकर स्वयम भगवान कृष्ण ने उनकी पूजा की। उसके बाद तो शिव, ब्रह्मा, धर्म, इंद्र आदि देवताओं के द्वारा सदा ही उनकी पूजा होने लगी।"
सरस्वती का धरती पर आगमन-
लक्ष्मी, सरस्वती और गंगा ये तीन भगवान विष्णु की पत्नी हुई। एक बार सरस्वती को गंगा से ईर्ष्या हो गयी सो उन्होंने गंगा से कड़े शब्द कहे। तब शांतिस्वरूपा और परमदयालु लक्ष्मी जी ने उन्हें टोका जिस कारण सरस्वती को लगा कि लक्ष्मी गंगा का पक्ष ले रही हैं। इसलिए क्रोध से कंपती हुई सरस्वती ने कहा- "लक्ष्मी तुम गंगा का पक्ष ले रही हो। तुम बृक्ष और जल हो जाओ।" लेकिन बदले में सरस्वती को श्राप तो दूर लक्ष्मी क्रोधित भी नहीं हुईं। ये बात गंगा से नहीं देखी गयी और उन्होंने कहा- "सरस्वती तुमने निर्दोष और धीरमती लक्ष्मी को श्राप दिया है। तुम भी जल रूप होकर मतर्यलोक जाने के योग्य हो जहाँ पापी मनुष्य रहते हैं।" सरस्वती ने भी कहा- "तो तुम भी जल रूप हो जाओ और उन सभी पापियों के पापों को अंगीकार करती रहो।"
तभी वहाँ भगवान विष्णु पधारे। देवियों की कलह सुनकर वे आसन पर बैठ गए और देवियों को अपने समीप बिठाकर बोले- "लक्ष्मी! भद्रे! तुम अपनी कला से धर्मध्वज की पुत्री के रूप में भोलोक पर जाओ। वहाँ तुम अयोनिजा जन्म लेना। वहीं तुम कालांतर में वृक्ष रूप हो जाओगी। लोग तुम्हें त्रिलोक पावनी तुलसी के नाम से जानेंगे। अपनी एक कला से तुम जल रूप होकर पद्मावती नदी बन जाओ।"
फिर गंगा से कहा- "तुम अपनी कला के अंश से जल रूप होकर शिव की जटाओं में निवास करोगी। भारत में बहते हुए तुम संसार के कलुशों को धोती रहोगी। वहाँ सागर मेरी कला का अंश है जिसकी तुम भार्या बनोगी। अपने सम्पूर्ण अंश से तुम यहीं बैकुंठ में रहोगी।"
फिर सरस्वती से कहा- "तुम अपनी कला से सरस्वती नामक नदी बनकर बहो जो परमपवित्र और संसार के दुखों से मुक्त करने वाली होगी।"
भारत में पधारने से उनका नाम भारती हुआ, ब्रह्मा पर अनुग्रह करने के कारण वे ब्राह्मी कहलाई और वचनों की अधिठात्री होने से वाणी नाम से विख्यात हुई। भगवान विष्णु का एक नाम सरस्वान है, उनकी पत्नी होने के कारण ही उनका नाम सरस्वती हुआ। नदी रूप पधारकर वे देवी परम पवित्र तीर्थ बन गयीं।
- देवी भागवत पूराण, नवम स्कंध
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