ॐ
अस्य श्रीअर्गलास्तोत्रमंत्रस्य विष्णुर्ऋषिः अनुष्टुप्छन्दः श्री
महालक्ष्मीर्देवता, श्री जगदम्बाप्रीतये
सप्तशतीपाठाङग्त्वेन जपे विनियोगः
ॐ
नमश्चण्डिकायै - मार्कण्डेय उवाच ।
ॐ
जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा
क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तुते॥
जय
त्वं देवि चामुण्डे जय भूतार्तिहारिणि।
जय
सर्वगते देवि कालरात्रि नमोऽस्तु ते॥
मधुकैटभ
विद्रा विविधातृवरदे नमः।
रूपं
देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥
महिषासुरनिर्णाशि
भक्तानां सुखदे नमः।
रूपं
देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥
रक्तबीजवधे
देवि चण्डमुण्ड विनाशिनि ।
रूपं
देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥
शुम्भस्यैव
निशुम्भस्य धूम्राक्षस्य च मर्दिनि ।
रूपं
देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥
वन्दिताङघ्रियुगे
देवि सर्वसौभाग्यदायिनि ।
रूपं
देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥
अचिन्त्यरूपचरिते
सर्वशत्रुविनाशिनि ।
रूपं
देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥
नतेभ्यः
सर्वदा भक्त्या चण्डिके दुरितापहे ।
रूपं
देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥
स्तुवद्भ्यो
भक्तिपूर्वं त्वां चण्डिके व्याधिनाशिनि।
रूपं
देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥
चण्डिके
सततं ये त्वामर्चयन्तीह भक्तितः।
रूपं
देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥
देहि
सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम् ।
रूपं
देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥
विधेहि
द्विषतां नाशं विधेहि बलमुच्चकैः ।
रूपं
देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥
विधेहि
देवि कल्याणं विधेहि परमां श्रियम् ।
रूपं
देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥
सुरासुर
शिरोरत्न निघृष्ट चरणेऽम्बिके ।
रूपं
देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥
विद्यावन्तं
यशस्वन्तं लक्ष्मीवन्तं जनं कुरु ।
रूपं
देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥
प्रचण्डदैत्यदर्पघ्ने
चण्डिके प्रणताय मे ।
रूपं
देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥
चतुर्भुजे
चतुर्वक्त्रसंस्तुते परमेश्वरि ।
रूपं
देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥
कृष्णेन
संस्तुते देवि शश्वद्भक्त्या सदाम्बिके ।
रूपं
देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥
हिमाचल
सुतानाथ संस्तुते परमेश्वरि ।
रूपं
देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥
इन्द्राणी
पति सद्भावपूजिते परमेश्वरि ।
रूपं
देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥
देवि
प्रचण्ड दोर्दण्ड दैत्य दर्प विनाशनि ।
रूपं
देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥
देवि
भक्तजनोद्दामदत्तानन्दोदयेऽम्बिके ।
रूपं
देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥
भार्यां
मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम् ।
तारिणिं
दुर्ग संसार सागरस्य कुलोद्भवाम ।
इदं
स्तोत्रं पठित्वा तु महास्तोत्रं पठेन्नरः ।
सप्तशतीं
समाराध्य वरमाप्नोति दुर्लभम् ॥
॥
इति देव्या अर्गलास्तोत्रं सम्पूर्णं ॥
//#नवरात्र --
#भारत के हर क्षेत्र में मनाए जाने
वाले इस पर्व को लोग अपने-अपने अपने-अपने तरीके से मनाते है। इसमें हर हिन्दू
परिवार शामिल होता है। यह भारतीय मनीषियों की मेहनत का परिणाम है। सब कुछ उस समय
हुआ, जब समाज तकीनीकी रूप से पुष्ट नहीं
था। संदेशों के आदान-प्रदान की सहूलियतें भी न थीं, लेकिन इस भागमभाग जिन्दगी ने महिलाओं के प्रति सम्मान का भाव भुला दिया
है।
#नवरात्रि के पहले तीन दिन देवी पूजा
को समर्पित हैं। यह पूजा देवी की ऊर्जा और शक्ति की है। पहले दिन बालिकाओं की, दूसरे दिन युवतियों की और तीसरे दिन
परिपक्व हो चुकी महिला के चरणों में समर्पित है यह पर्व। देवी के विनाशकारी पहलू
बुरी प्रवृत्तियों पर विजय प्राप्त करने की प्रतिबद्धता दर्शाती है।
#नवरात्रि_के माध्यम से भारतीय मनीषियों ने
शैलपुत्री के रूप में पहाड़ों के प्राकृतिक स्वरूप को बनाए रखने की कोशिश किया था।
ब्रह्मचारिणी ऐसी देवी हैं, जिन्हें
स्थापित कर ब्रह्मचर्य पालन करते हुए ज्ञानार्जन करने का सबक मिलता है। ऐसे काल की
ओर इशारा करता है, जिस काल में ज्ञानार्जन सर्वोपरि रहा।
#चांद की तरह चमकने वाली चंद्रघंटा
सिर्फ महिलाओं के सुंदर भाव की ओर इशारा नहीं करता है, बल्कि इनसे मिलने वाली शीतलता, शालीनता और शांति की सीख भी देती हैं।
कूष्मांडा की स्थापना सृष्टि को महिलाओं के अस्तित्व से जोड़ा गया। इन्हें महिला
सम्मान और सृष्टि रचना को अक्षुण्ण बनाए रखने वाली देवी के रूप में देख गया है।
#विपदाओं (काल) का हरण करने की प्रतीक
कालरात्रि हों या फिर शांति का संदेश देने वाली सफेद रंग की मां महागौरी। ये सभी
सिद्धियों (जीव मात्र की भलाई के लिए देने वाली दिशा) को संपुष्ट करने वाली देवी
सिद्धिदात्री के रूप में आकर पूर्ण होतीं हैं, यानि महिलाओं में पाया जाना हर तरह का गुण सृष्टि को अक्षुण्ण बनाए रखने
में सहयोगी है।
#चैथा, पांचवां और छठां दिन लक्ष्मी यानि समृद्धि और शांति पूजन का दिन है। जीवन
में धन के महत्व को नकारता नहीं है, लेकिन यह जरूर बताता है कि इसके साथ ज्ञानार्जन होना चाहिए। पांचवें दिन
देवी सरस्वती के पूजन की परंपरा डाली गई। व्यक्ति ज्ञान के अभाव में धन का सदुपयोग
नहीं कर सकता है। इसलिए लक्ष्मी और सरस्वती का पूजन एक साथ करने का प्रावधान बना।
#प्रकृति_शक्ति की प्रतीक अंबा देवी, विद्युत (ऊर्जा) का प्रतिनिधित्व करती
हैं। बसंत व शरद ऋतु की शुरुआत तथा जलवायु व सूर्य के प्रभावों के महत्वपूर्ण संगम
की प्रतीक हैं। उदात्त और परम रचनात्मक ऊर्जा का संरचरण करने वाले समय का अद्भुत
क्षण हैं।
#वैदिक_ग्रंथो में चर्चा है कि अहंकार, क्रोध, वासना और अन्य बुरी व पशु
प्रवृत्तियों पर विजय प्राप्त करने के बाद व्यक्ति शून्य का अनुभव करता है। यही
शून्य व्यक्ति को भौतिकवादी, आध्यात्मिक
धन और समृद्धि प्राप्त करने को प्रेरित करता है। इन्हें प्राप्त करने के लिए
प्रकृति पूजा जरूरी है। महिलाओं के आशीर्वाद आवश्यक है। वजह, सृष्टि रचना की अक्षुण्णता महिलाओं के
बगैर नहीं रहेगी।
#अब_तो ऐसा लगने लगा है कि जैसे-जैसे वैज्ञानिक प्रगति हुई, वैसे-वैसे प्राकृतिक प्रतीकों या
पर्वों से सीख लेना बंद होने लगा। प्रकृति सुरक्षा के दायित्वों से विमुखता होने
लगी। भौतिक सुख के आगोश में खुद को लेने की होड़ शामिल हो गए। प्रकृति का दोहन
करने लगे। खुद के लिए असुरक्षित स्थिति पैदा कर ली।
#विशेष - -
प्रागैतिहासिक
काल से चली आ रही यह परंपरा अब भी जीवित है। पर्व का बाहरी रूप जन-जन में व्याप्त
है, लेकिन अब इसका आंतरिक स्वरूप जन-जन
में आरोपित करने का प्रयास कम हो गया है। शायद लोगों में आत्मबल की कमी आ गई है।
उन परंपराओं को भुलाने लगे हैं, जिनसे
प्रकृति का वास्तविक बचाया हो सकता है। हालात अब बिलकुल जुदा हैं। पर्व में दिखावा
और ओछी भक्ति शामिल हो गई है। यह सब कुछ होने के बाद भी खुद पर इतरा रहे हैं। इस
पर्व से समाज को दिशा मिले, एकता, समरसता, महिला सुरक्षा, प्रकृति और
पर्यावरण के प्रेम जगे, सृष्टि की
अक्षुण्णता का संदेश मिले इसलिए ही बनाया गया है हमे इसके मूल संदेश को समझना
होगा।।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें