रविवार, 1 अक्टूबर 2017

----दैवीय शक्ति ....!




-----दैवीय शक्ति ....!
मित्रों आम बोलचाल की भाषा में हम सभी शक्ति शब्द से परिचित हैं लेकिन क्या आप जानते हैं की दैवीय शक्ति का क्या अर्थ है ? मेरे चिंतनशील विचारों मे...........
दैवीय शक्ति का अर्थ है अखंड असीम प्रकाश उर्र्ज़ा |
शक्ति की तीन अवस्थाएं होती हैं...........राजसिक .तामसिक एवं सात्विक शक्ति |
मुख्यतः हमारा जीवन का व्यवस्थित स्वरुप भी इन्ही तीन शक्तियों धर्म{सात्विक} कर्म {तामसिक } और राज तंत्र {राजसिक} से संचालित होता है| हमारे पुराणों में भी तीन की शक्ति {ऊर्र्जा} का विस्तृत महिमामंडन है |
हिन्दू धर्म पुराणों में भी तीन देवियाँ महाकाली ,महालष्मी, महासरस्वती और तीन देव ब्रमः ,विश्णु और महेश तथा तीन सृष्टियां जल ,थल और आकाश का वर्णन मिलता है|ये सभी ऊर्र्जा स्वरूप या शक्ति कहलाते है |
मानव शरीर भी तीन हिस्सों में बंटा है और शरीर के इन्हीं तीन हिस्सों में समस्त शक्तियां विद्यमान हैं |क्योंकि यही मुख्यतः शक्ति का आधार है | वैष्णव देवी की गुफा की तीन पिंडियां मुख्य रूप से इन्हीं तीन ऊर्जा शक्तियों महाकाली-{सूर्य ऊर्र्जा- नाड़ी पिंगला-राजसिक } महालक्ष्मि {चंद्र ऊर्र्जा-इड़ा नाड़ी- तामसिक }और महासरस्वती -{ब्रम्ह ऊर्र्जा पुंज- सुषुम्ना नाड़ी-धार्मिक } का प्रतीक हैं |
यही तीन दैवीय स्वरुप और दसमहाविद्या रूप प्रकाश की अभिव्यक्ति {दर्शाते } करते हैं | यहाँ पर प्रकाश का अर्थ विधुतीय प्रकाश {करंट ,उजाला ,लाइट } से हो कर आत्मिक, आध्यात्मिक, मानसिक और शारीरिक प्रगति प्रकाश से है | तीनो उर्र्जाओं के एकाकार स्वरूप को ही ब्रम्ह कहते हैं इसी असीम प्रकाश में अखंड शक्ति निहित हैं |

//सभी प्यारे मित्रों को शारदिय नवरात्रि के नौं वे दिन की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं






सिद्धकुञ्जिकास्तोत्रम्।। (दुर्गासप्तशती).
शिव उवाच
शृणु देवि प्रवक्ष्यामि कुंजिकास्तोत्रमुत्तमम्‌।
येन मन्त्रप्रभावेण चण्डीजापः भवेत्‌॥1
न कवचं नार्गलास्तोत्रं कीलकं न रहस्यकम्‌।
न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासो न च वार्चनम्‌॥2
कुंजिकापाठमात्रेण दुर्गापाठफलं लभेत्‌।
अति गुह्यतरं देवि देवानामपि दुर्लभम्‌॥ 3
गोपनीयं प्रयत्नेन स्वयोनिरिव पार्वति।
मारणं मोहनं वश्यं स्तम्भनोच्चाटनादिकम्‌।
पाठमात्रेण संसिद्ध्‌येत् कुंजिकास्तोत्रमुत्तमम्‌ ॥4
अथ मंत्र
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। ॐ ग्लौ हुं क्लीं जूं सः
ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा
॥ इति मंत्रः॥
नमस्ते रुद्ररूपिण्यै नमस्ते मधुमर्दिनि।
नमः कैटभहारिण्यै नमस्ते महिषार्दिन ॥1
नमस्ते शुम्भहन्त्र्यै च निशुम्भासुरघातिन ॥2
जाग्रतं हि महादेवि जपं सिद्धं कुरुष्व मे।
ऐंकारी सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका॥3
क्लींकारी कामरूपिण्यै बीजरूपे नमोऽस्तु ते।
चामुण्डा चण्डघाती च यैकारी वरदायिनी॥ 4
विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मंत्ररूपिण ॥5
धां धीं धू धूर्जटेः पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी।
क्रां क्रीं क्रूं कालिका देविशां शीं शूं मे शुभं कुरु॥6
हुं हु हुंकाररूपिण्यै जं जं जं जम्भनादिनी।
भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवान्यै ते नमो नमः॥7
अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं
धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा॥
पां पीं पूं पार्वती पूर्णा खां खीं खूं खेचरी तथा॥ 8
सां सीं सूं सप्तशती देव्या मंत्रसिद्धिंकुरुष्व मे॥
इदंतु कुंजिकास्तोत्रं मंत्रजागर्तिहेतवे।
अभक्ते नैव दातव्यं गोपितं रक्ष पार्वति॥
यस्तु कुंजिकया देविहीनां सप्तशतीं पठेत्‌।
न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा॥
। इतिश्रीरुद्रयामले गौरीतंत्रे शिवपार्वती
संवादे कुंजिकास्तोत्रं संपूर्णम्‌ ।
|| ॐ तत्सत ||
काल और रात्री को मिला कर बना है कालरात्री | काल अर्थात परिवर्तन का नियम, परिवर्तन ही काल के अस्तित्व का कारण है | और रात्री अर्थात ठहराव, रात्री के समय परिवर्तन धीमी गति से होता है | भावार्थ को समझे तो रात्री में हर कार्य रुक जाता है | अर्थात काल रात्री अर्थात परिवर्तन से अपरिवर्तन की और ले जाने वाली शक्ति | नश्वरता से इश्वर्ता की और ले जाने वाली शक्ति | जड़ से चेतन की और ले जाने वाली शक्ति |
मृत्यु से अमरत्व की और ले जाने वाली महाशक्ति ही देवी कालरात्रि है |

यह प्रकृति नित्य परिवर्तनशील है | लेकिन ईश्वर शाश्वत एवं सनातन है | काल प्रकृति का गुण है ईश्वर कालरहित है | जब योगी-साधक की चेतना इन्द्रियों के बंधन को तोड़ने लगती है तब वह इन्द्रियातीत अनुभूतियों को भी प्राप्त करता है | चेतना उर्ध्वगामी हो एकाग्र होने लगती है | तब सांसारिक परिवर्तन योगी को व्यथित नहीं करते | विचारों का खेल और मन की खिट-पिट ही ख़त्म सी हो जाती है | योगी मस्तिष्क की और प्रावाहित होने वाले चेतना के प्रवाह में परमानंद की अनुभूति करता है | इस आनंद के सामने संसार के सारे सुख फीके पड़ जाते हैं - यह अनुभूति का विषय है |

चैतन्य स्वरूपा माँ कालरात्रि अहंकार रूपी महिषासुर एवं अनियंत्रित विचार रूपी रक्तबीज के लिए महाप्रलय के सामान है | रक्तबीज का रक्त जहां गिरता था वहीँ दुसरा रक्तबीज प्रगट हो जाता था | यही स्थिति हमारे मन में चलने वाले अनियंत्रित विचारों के भी होते हैं | एक विचार से अनेक विचार प्रगट होते हैं | और हम सोंचते सोंचते पता नहीं क्या से क्या सोंच जाते हैं | फिर यही विचार हमारा जीवन बन जाता है | अतः मन के इस रक्तबीज को ख़त्म किये बिना जीवन में शान्ति की अनुभूति नहीं हो सकती | योगी विचारों के प्रवाह पर नियंत्रण स्थापित करके तुरिया अवस्था को प्राप्त कर लेता है | योगी को सम्पूर्ण संसार के प्रति एक साक्षी भाव आ जाता है |

माँ कालरात्रि रक्तबीज का संहार करती है और उसका रक्त भूमि पर गिरे उससे पहले ही उसका पान कर जाती है | वैसे ही विकसित चेतना जब उर्ध्वगामी होती है तो सम्पूर्ण विचारों के प्रवाह को अतिक्रमण एवं दमन करते हुए एकाग्र होने लगती है | ऐसी अवस्था में योगी को ध्यान लगाने के लिए कोई प्रयास नहीं करना पड़ता यह स्वतः होने वाली क्रिया है | मन और अहंकार की दुनिया में प्रलय मच जाता है |//रि ओम ! नमन गुरूमां आनन्दमयी ! नमस्कार मित्रो... हम-आप यह भली-भांति जानते हैं कि यह मनुष्य जीवन अनमोल है, देवता भी मनुष्य योनि को प्राप्त करने के लिए लालायित रहते हैं। आखिर क्यों ? क्या आपने कभी इस सवाल का जवाब जानने की कोशिश की ?? आप स्वयं से सवाल करें और स्वयं ही इसका जवाब भी निकाले। आप मेरी या अन्य विद्वानजनों के जवाब से संतुष्ट नहीं हों, आप एक अल्प-बुद्धि के व्यक्ति के अनुसार सोंचे, और जवाब ढूंढे । ज्यादा विद्वता से इसका जवाब ढूंढने की आवश्यकता भी नहीं, अगर आप स्वयं ढूंढेगे तो ज्ञान आपकी अपनी होगी और आपमें एक आत्मविश्वास भी बढ़ेगा, आध्यात्म में कुछ हासिल करना है तो आपको ""एक खोजी-प्रवृत्ति"" का बनना ही पड़ेगा। आप जब उपरोक्त सवाल पर चिंतन करेंगे तो आपका पहला जवाब होगा कि ---मनुष्य को एक स्थूल शरीर प्राप्त है, जो देवताओं को भी नहीं है। स्पष्ट है कि कुछ तो इस स्थूल शरीर में अवश्य है जो हमें-आपको देवताओं आदि से भिन्न करता है। यकीन मानिए मित्र, सारा रहस्य इस स्थूल शरीर पर ही निर्भर करता है। इसी स्थूल शरीर में सारा रहस्य छिपा है। जो देवता आदि भी नहीं कर सकते, हम-आप इस स्थूल शरीर का ज्ञान-अर्जित करके और उपयोग करके, वह करने में सक्षम हो सकते हैं । यह स्थूल शरीर एक यंत्र/मशीन की भांति है, ऐसा मशीन जो निरंतर कार्य करता हुआ लगभग अस्सी-सौ वर्षों तक काम करता ही रहता है, बीच में क्षणभर के लिए भी बंद नहीं होता है, बंद होता भी है तो केवल एक बार और हमेशा-हमेशा के लिए। फिर दुनियां की कोई ताकत उसे दुबारा संचालित नहीं कर सकती है, वैसे एकाध अपवादों की बात छोड़ कर मैं बात कर रहा हूं जी। आप केवल उपर के ही अंगों पर विचार करें। यह पैर ? यह आंख ? यह नाक ? यह कान ? यह मुख ? यह पौरूष/स्त्रिय अंग आदि ? भले ही देवी-देवता इन अंगों के बगैर भी वे सभी कार्य/अनुभूति/अनुभव/आन्नद आदि प्राप्त कर लेते होंगे , फिर भी कुछ-न-कुछ ऐसा अवश्य है जो उन्हें नहीं प्राप्त होता होगा, और उसी को प्राप्त करने के लिए वे इस मनुष्य-योनि को प्राप्त करने के लिए लालायित रहते हैं, वह क्या हो सकता है ? आपको यह सवाल सामान्य और अर्थहीन लगता होगा मित्रों, लेकिन यह सवाल सामान्य नहीं अपितु बहुत ही बड़ा गुढ़ रहस्य छिपाये हुए है। देवी-देवता बिना पैर के भी हमसे ज्यादा गतिशील अवश्य हैं, लेकिन उनकी यह गति एक वायुयान में बैठे मुसाफिर की भांति है, जो निष्क्रिय होकर केवल दूरी ही तय कर पाते हैं, अन्य अंग ना तो क्रियाशील रहता है और ना ही बहुआयामी अनुभूति/अनुभव/आनंद प्राप्त कर पाते हैं, यानि केवल एक लक्ष्य की प्राप्ति उन्हें अवश्य होती है, लेकिन अन्य अनुभूति/आनंद से वंचित ही रह जाते हैं।, और मनुष्य अपने पैरों के बल पर जब किसी दूरी को नापता है तो वह उतनी दूरी में अनेकों दृष्य को अनुभव करता हुआ, अपने सभी इन्द्रियों का इस्तेमाल करके अन्य अनुभूति/अनुभव/आनंद प्राप्त करता है। जिसपर हम-आप सभी कभी ध्यान ही नहीं देते हैं मित्रगण ।
देवी-देवता आहार भी ग्रहण करते हैं तो, यह उसी प्रकार है जैसा कि कोई फल/अनाज का केवल जूस/निचोड़कर उसे मशीन आदि से उसके अन्य अंश को समाप्त करके ""एक-सत्व"" तैयार करके आपको दिया जाये, तो आपको कैसा लगेगा ? मान लीजिए एक सेब है, उसका ""एक-सत्व"" निकालकर आपको दिया जाये और एक सेब ही आपको खाने के लिये दिया जाये, आप कल्पना करें कि दोनों में आपको कैसी फिलिंग होगी, आप सेब को चबाकर खाना चाहेंगे या उस सत्व से ही संतुष्ट हो जायेंगे ?? जब आप सेब को चबाकर खाते हैं, उसका फिलिंग/आनन्द, और जब आप सेब-का-सत्व ग्रहण करते हैं, उसका फिलिंग/आनन्द --- दोनों में क्या अंतर है ?? इस अंतर को समझें/पकड़े, यही वह रहस्य है जिसे पकड़ना है आपको-हमको ।
उसी प्रकार आप अन्य अंगों के क्रिया-कलाप पर -- उस अंग का इस्तेमाल करके और दूसरी तरफ यह कल्पना करके कि उस अंग के बगैर लक्ष्य प्राप्ति होती है तो -- दोनों के अनुभव/आनन्द/अनुभूति में क्या अंतर होता है या क्या अंतर हो सकता है ?? इसे भी समझे/पकड़े ।
जब आप चलते हैं तो, प्रत्येक कदम का एहसास। उसी के साथ-साथ आपकी आंखों का दृश्य-अवलोकन करना। अवलोकन करके हर्ष-विषाद का मन में भाव आना । आपके कर्ण का वर्क करना । रास्ते आदि में सुगंध/दुर्गंध आदि का स्पर्श होना । लक्ष्य प्राप्ति का कठिन/आसान होने का ज्ञान आदि प्राप्त होना । आदि । यही आपको देवी-देवताओं से भिन्न करता हुआ आपको (मनुष्य-योनि को) अलग पहचान देता है, जिसपर आप-हम ध्यान ही नहीं देते हैं, इग्नोर किये हुए रहते है, जबकि इसी पर ध्यान दिलाना मेरा लक्ष्य है बंधु ।
अब आप-हम यह करेंगे कि ---
जब भी चलेंगे, हर एक कदम को एहसास करके चलेंगे। कदम का एहसास करते हुए, दृश्यावलोकन करेंगे, मन में उठ रही भाव/अनुभूति/आनन्द पर अपना ध्यान भी रखेंगे । आदि।
जब खाना खायेंगे, हर एक निवाला पर नजर रखेंगे, दांत से काटने/चबाने के साथ-साथ उसमें निकल रही रस की मिठास/नमक-मिर्च आदि को अनुभव करते हुए करेंगे । उस रस का स्वाद अपने जिह्वा से लें, वह रस गले के पास जाती है, उस समय उसको एहसास करें, वह गले से नीचे नली में जाती हुई प्रतीत होगी, उसे एहसास करें, इसके आगे भी आप एहसास करें। उसी प्रकार पानी भी पीते हुए एहसास करें । इसका आदत बनायें ।
लेख ज्यादा बड़ा ना हो जाये, इसलिए आपको इतना ही सलाह दूंगा कि उपरोक्त दो उदाहरण के संकेत को समझते हुए अपने अन्य क्रिया-कलाप के साथ भी हर-एक क्षण जीने का प्रयास करें। इसी को साक्षीभाव भी कहते हैं। वर्तमान में जीना भी इसी को कहते हैं । आपने मानसिक-पूजा आदि की यात्रा कर ली है, साथ ही बाहर में साक्षीभाव से हर-एक क्रिया कलाप करते हुए, बाहरी पूजा-अर्चना में साक्षीभाव लायें । दोनों का आनंद लेकर अपने जीवन के परमलक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में बढ़े, तभी यह नवरात्रि ""नया-रात्रि"" की तरह सिद्ध होगी। थोड़ा चल कर देंखे, आध्यात्म आपको बहुत आसान भी लगेगा । अब अपनी लेखनी को विराम देता हूं --- हरि ओम !/

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