अतिसुन्दर अद्भूत कथा
जयगुरूदेव
शत शत नमन..
ॐ नमः शिवाय ... मित्रों !!
महर्षि अगस्त्य के शिष्य सुतीक्ष्ण , गुरु-आश्रम में रहकर अध्ययन करते थे
... विद्याध्ययन समाप्त होने पर एक दिन गुरूजी ने कहा -
"बेटा ! तुम्हारा अध्ययन समाप्त हुआ , अब तुम विदा हो सकते हो।
सुतीक्ष्ण ने कहा -
" गुरुदेव ! विद्याध्ययन के बाद गुरूजी को
गुरुदक्षिणा
देनी चाहिए ... अत: आप मेरे लिए कुछ आज्ञा
करें।
- " बेटा ! तुमने मेरी बहुत सेवा की है
... सेवा से बढकर कोई भी गुरुदक्षिणा नहीं,
अत: जाओ, सुखपूर्वक रहो।
सुतीक्ष्ण ने आग्रहपूर्वक कहा -
गुरुदेव ! बिना गुरुदक्षिणा दिये शिष्य को
विद्या फलीभूत नही होती ,सेवा
तो मेरा धर्म ही है, आप
किसी अत्यंत प्रिय वस्तु के लिए आज्ञा अवश्य करें "
गुरूजी ने देखा कि सुदृढ़ निष्ठावान शिष्य मिला
है तो क्यूँ न परीक्षा ही ले ली जाये।
गुरूजी ने कहा -
" अच्छा, देना ही चाहता है तो गुरुदक्षिणा में सीतारामजी को साक्षात् ला दे
"
सुतीक्ष्ण गुरूजी के चरणों में प्रणाम करके
जंगल की ओर चल दिया और वहाँ
जाकर घोर तपस्या करने लगा ।
वह पूरे मन एवं ह्रदय से गुरुमंत्र के जप, भगवन्नाम के कीर्तन एवं ध्यान में रहने
लगा। जैसे-जैसे समय बीतता गया. सुतीक्ष्ण के धैर्य, समता और गुरु-वचन के प्रति निष्ठा और अडिगता में बढ़ोत्तरी होती चली
गई।
कुछ समय पश्चात भगवान राम माँ सीता सहित वहा
पहुँचे जहाँ सुतीक्ष्ण ध्यानस्थ बैठा था।
प्रभु ने आकर उसके शरीर को हिलाया-डुलाया
किन्तु उसे कोई होश नहीं था ... तब रामजी ने उसके ह्रदय में अपना चतुर्भुजीरूप
दिखाया तो उसने झट-से आँखे खोल दीं और श्रीरामजी को दंडवत प्रणाम किया।
भगवान श्रीरामचन्द्र जी ने उसे अविरल भक्ति का
वरदान दिया।
सुतीक्ष्ण गुरूजी को गुरुदक्षिणा देने हेतु
सीताराम जी को लेकर गुरु-आश्रम की ओर निकल पड़ा |
महर्षि अगस्त्य के आश्रम में जाकर श्री रामजी
एवं सीता माता उनकी आज्ञा की
प्रतीक्षा में बाहर खड़े हो गये । परंतु
सुतीक्ष्ण को तो आज्ञा लेनी नहीं
थी, उसने तुरंत अंदर जाकर गुरुचरणों में साष्टांग दंडवत करके सरल, विनम्र
भाव से कहा -
" गुरुदेव ! मैं गुरुदक्षिणा देने आया हूँ
... सीताराम जी द्वार पर खड़े आपकी आज्ञा की प्रतीक्षा कर रहे हैं "
अगस्त्य जी अपने शिष्य के प्रति अति प्रेम भाव मे
थे ... गुरु की कसौटी में शिष्य
उत्तीर्ण हो गया था।
पूर्ण गुरु को पूर्ण कृपा बरसाने के लिए
सुयोग्य पात्र मिल गया था ... उन्होंने शिष्य को गले लगाया और अपना पूर्ण गुरुकृपा
का अमृतकुम्भ शिष्य के ह्रदय में ऊंडेल दिया।
अगस्त्यजी सुतीक्ष्ण को साथ लेकर बाहर आये और
श्री रामचन्द्रजी व सीता माता का स्वागत तथा पूजन किया।
धन्य हैं सुतीक्ष्ण जिन्होंने गुरु आज्ञा पालन
में तत्पर होकर गुरुदक्षिणा में भगवान को ही ला के अपने गुरु के द्वार पर खड़ा कर
दिया।
जो दृढ़ता, तत्परता और समर्पित ह्रदय से गुरु आज्ञा-पालन में लग जाता है, उसके
लिए प्रकृति भी अनुकूल बन जाती है ,
और-तो-और भगवान भी उसके संकल्प को पूरा करने
में सहयोगी बन जाते है।
!! ॐ नमः शिवाय !!
आज का दिन आप सभी के लिए
शुभ
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