भवन निर्माण में भंडार गृह या भंडारण
कक्ष (स्टोर रूम) मुख्य योजना का एक अहम हिस्सा रहता है। भंडार गृह बनाने के पीछे
दो प्रमुख उद्देश्य हैं कि वर्षभर के लिए अन्न का भंडारण किया जा सके और जरूरी
वस्तुओं का संचय भी हो सके।
यदि
आपके पास पर्याप्त जगह है तो अन्न के भंडारण और अन्य वस्तुओं के संचय के लिए
अलग-अलग कक्ष बनाए जाने चाहिए लेकिन अगर जगह का अभाव है तो एक ही कक्ष से दोनों
उपयोग लिए जा सकते हैं। यहां भंडार गृह संबंधी प्रमुख वास्तु सुझाव दिए जा रहे हैं
जो पारिवारिक समृद्धता को संभव बनाते हैं।
भंडार
गृह में न रखें अनुपयोगी चीजें
- अन्नादि के
भंडार कक्ष का द्वार नैर्ऋत्य कोण (दक्षिण-पश्चिम) में होना चाहिए।
- अगर वायव्य
कोण (उत्तर-पश्चिम) में अन्ना कक्ष या अन्न भंडार गृह बनाया जाता है तो अन्न
की कभी कमी नहीं होती है। घर में धन-धान्य बना रहता है।
- अन्न का
वार्षिक संग्रहण दक्षिणी अथवा पश्चिमी दीवार के समीप किया जाना चाहिए।
- अन्न कक्ष
या अन्ना भंडार गृह में डिब्बे या कनस्तर को खाली नहीं रहने दें। अगर कोई
डिब्बा पूरी तरह खाली हो रहा हो तो भी उसमें कुछ मात्रा में अन्न बचा देना
चाहिए। यह समृद्धि के लिए जरूरी माना जाता है।
- अन्न भंडार
कक्ष में घी, तेल, मिट्टी का तेल एवं गैस सिलेन्डर आदि को
आग्नेय कोण (दक्षिण-पूर्व) में रखना चाहिए।
- अन्न के
भंडार कक्ष में ईशान कोण (उत्तर-पूर्व) में शुद्ध और पवित्र जल से भरा हुआ
मिट्टी का एक पात्र रखा जाना चाहिए। इस बात का खयाल रखें कि यह पात्र खाली न
हो।
- अन्न कक्ष
में अगर विष्णु और लक्ष्मी का चित्र या प्रतिमा हो तो उससे समृद्धि प्राप्त
होती है।
- रोज उपयोग
में आने वाले खाद्यान्न को कक्ष के उत्तर-पश्चिमी भाग में रखा जाना चाहिए।
- पूर्व दिशा
में अगर भंडार गृह हो तो घर के मुखिया को अपनी आजीविका के लिए ज्यादा यात्रा
करनी पड़ती है। वह अक्सर घर से बाहर ही रहता है।
- आग्नेय कोण
में अगर भंडार कक्ष का निर्माण किया जाए तो मुखिया की आमदनी हमेशा कम ही पड़ती
है।
- दक्षिण
दिशा में भंडार कक्ष बनाने पर घर के सदस्यों के बीच आपसी मतभेद हो सकते हैं।
इस तरह के भंडार कक्ष से घर में अशांति बनी रहती है।
- संयुक्त
भंडार कक्ष भवन के पश्चिमी अथवा उत्तर-पश्चिमी भाग में बनाया जाना चाहिए।
- संयुक्त
भंडार गृह में अन्ना वायव्य कोण (उत्तर-पश्चिम) में रखा जाना चाहिए।
- अगर
संयुक्त रूप से भंडार कक्ष का उपयोग किया जाता है तो उसमें ऐसी चीजें नहीं
रखना चाहिए जो हमारे लिए पूरी तरह अनुपयोगी हैं।
- संयुक्त
भंडार गृह में अन्य चीजों का भंडारण दक्षिणी और पश्चिमी दीवार की ओर किया
जाना चाहिए।
- संयुक्त
भंडारगृह के ईशान कोण (उत्तर-पूर्व) में जल का पात्र रखना शुभकर रहता है और
परिवार में शांति और समृद्धि में वृद्धि करता है।
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भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक का बहुत महत्व
माना गया है। कहते हैं कि देवों में सर्वप्रथम पूज्य भगवान श्रीगणेश की उपासना और
धन, वैभव व
ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी की पूजा स्वस्तिक के बिना अधूरी है।
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किसी भी देवता या देवियों की पूजा के पहले कई
प्रकार के चौक आंगन या पूजास्थल पर बनाए जाते है जिसके साथ स्वस्तिक बनाने की
परंपरा है।
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ब्रह्माण्ड का प्रतीक
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स्वस्तिक को सूर्य और विष्णु का प्रतीक माना
जाता है। सविन्त सूत्र के अनुसार इसे मनोवांछित फलदायक सम्पूर्ण जगत का कल्याण
करने वाला और देवताओं को अमरत्व प्रदान करने वाला कहा गया है।
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माना जाता है कि स्वस्तिक ब्रह्माण्ड का प्रतीक
है। इसके मध्य भाग को विष्णु की नाभि, चारों रेखाओं को ब्रह्मा जी के
चार मुख और चारों हाथों को चार वेदों के रूप माना गया है। देवताओं के चारों ओर
घूमनेवाले आभामंडल का चिन्ह ही स्वस्तिक के आकार का होने के कारण इसे शास्त्रों
में शुभ माना गया है।
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'स्वस्तिक' का अर्थ
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'स्वस्तिक' में 'स्वस्ति'
का अर्थ है - क्षेम, मंगल इत्यादि प्रकार की
शुभता एवं 'क' अर्थात कारक या करने
वाला। मान्यता है कि धर्मग्रंथ श्रुति द्वारा प्रतिपादित यह युक्तिसंगत भी है।
श्रुति, अनुभूति तथा युक्ति इन तीनों में इसका एक समान वर्णन
किया गया है यह प्रयागराज में होने वाले संगम के समान हैं।
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दिशाएं चार होती हैं, खड़ी तथा
सीधी रेखा खींचकर जो घन चिन्ह जैसा आकार बनता है यह आकार चारों दिशाओं का द्योतक
सर्वत्र है। इसलिए यह देवताओं का शुभ स्वस्तिक करने वाला है और इसके गति सिद्ध
चिन्ह को 'स्वस्तिक' कहा गया है।
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सात समुंदर पार
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स्वस्तिक को भारत में ही नहीं, विश्व के कई
देशों में विभिन्न स्वरूपों में पहचाना जाता है। यूनान, फांस,
रोम, मिस्त्र, ब्रिटेन,
अमरीका, स्कैण्डिनेविया, सिसली, स्पेन, सीरिया, तिब्बत, चीन, साइप्रस और जापान
आदि देशों में भी स्वस्तिक का प्रचलन है।
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स्वस्तिक की रेखाओं को कुछ विद्वान अग्नि
उत्पन्न करने वाली अश्वत्थ (पीपल) की दो लकड़ियां मानते हैं। प्राचीन मिस्त्र के
लोग स्वस्तिक को निर्विवाद रूप से काष्ठ दण्डों का प्रतीक मानते थे। यज्ञ में
अग्नि मंथन के कारण इसे प्रकाश का भी प्रतीक माना जाता है।
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लोगों का मानना है कि स्वस्तिक सूर्य का प्रतीक
है। जैन धर्मावलम्बी अक्षत पूजा के समय स्वस्तिक चिह्न बनाकर तीन बिन्दु बनाते
हैं। स्वस्तिक की रेखाओं को कुछ विद्वान अग्नि
उत्पन्न करने वाली अश्वत्थ तथा पीपल की दो लकड़ियां मानते हैं।
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