रविवार, 31 दिसंबर 2017

अब अपना नववर्ष मनाएंगे ।।

हवा लगी पश्चिम की ,



सब कुप्पा होकर फूल गए ।
ईस्वी सन तो याद रहा ,
पर अपना संवत्सर भूल गए ।।

चारों तरफ नए साल का ,
ऐसा मचा है हो-हल्ला ।
बेगानी शादी में नाचे ,
जैसे कोई दीवाना अब्दुल्ला ।।

धरती ठिठुर रही सर्दी से ,
घना कुहासा छाया है ।
कैसा ये नववर्ष है ,
जिससे सूरज भी शरमाया है ।।

सूनी है पेड़ों की डालें ,
फूल नहीं हैं उपवन में ।
पर्वत ढके बर्फ से सारे ,
आतुरता से फागुन का ।
जैसे रस्ता देख रही हो ,
सजनी अपने साजन का ।।

अभी ना उल्लासित हो इतने ,
आई अभी बहार नहीं ।
हम अपना नववर्ष मनाएंगे ,
न्यू ईयर हमें स्वीकार नहीं ।।

लिए बहारें आँचल में ,
जब चैत्र प्रतिपदा आएगी ।
फूलों का श्रृंगार करके ,
धरती दुल्हन बन जाएगी ।।

मौसम बड़ा सुहाना होगा ,
दिल सबके खिल जाएँगे ।
झूमेंगी फसलें खेतों में ,
हम गीत खुशी के गाएँगे ।।

उठो खुद को पहचानो ,
यूँ कब तक सोते रहोगे तुम ।
चिन्ह गुलामी के कंधों पर ,
कब तक ढोते रहोगे तुम ।।

अपनी समृद्ध परंपराओं का ,
आओ मिलकर मान बढ़ाएंगे ।
आर्यवृत के वासी हैं हम ,

हवा लगी पश्चिम की ,
सब कुप्पा होकर फूल गए ।
ईस्वी सन तो याद रहा ,
पर अपना संवत्सर भूल गए ।।

चारों तरफ नए साल का ,
ऐसा मचा है हो-हल्ला ।
बेगानी शादी में नाचे ,
जैसे कोई दीवाना अब्दुल्ला ।।

धरती ठिठुर रही सर्दी से ,
घना कुहासा छाया है ।
कैसा ये नववर्ष है ,
जिससे सूरज भी शरमाया है ।।


सूनी है पेड़ों की डालें ,
फूल नहीं हैं उपवन में ।
पर्वत ढके बर्फ से सारे ,
रंग कहां है जीवन में ।।

बाट जोह रही सारी प्रकृति ,
आतुरता से फागुन का ।
जैसे रस्ता देख रही हो ,
सजनी अपने साजन का ।।

अभी ना उल्लासित हो इतने ,
आई अभी बहार नहीं ।
हम अपना नववर्ष मनाएंगे ,
न्यू ईयर हमें स्वीकार नहीं ।।

लिए बहारें आँचल में ,
जब चैत्र प्रतिपदा आएगी ।
फूलों का श्रृंगार करके ,
धरती दुल्हन बन जाएगी ।।

मौसम बड़ा सुहाना होगा ,
दिल सबके खिल जाएँगे ।
झूमेंगी फसलें खेतों में ,
हम गीत खुशी के गाएँगे ।।

उठो खुद को पहचानो ,
यूँ कब तक सोते रहोगे तुम ।
चिन्ह गुलामी के कंधों पर ,
कब तक ढोते रहोगे तुम ।।

अपनी समृद्ध परंपराओं का ,
आओ मिलकर मान बढ़ाएंगे ।
आर्यवृत के वासी हैं हम ,
अब अपना नववर्ष मनाएंगे ।।

🚩जय माँ भारती 🚩जय माँ भारती

विषम परिस्थितियों में,,🌹



विषम परिस्थितियों में,,🌹
प्रतिभाएं बिखरती नहीं निखरकर प्रेरणा कि स्रोत बन जाया करती हैं | जिनके संस्मरणों को स्मरण कर लोगों में नयी चेतना, नयी उर्जा, सकारात्मक सोच का संचार होेने लगता है ||🌴
ऊर्जावान पवित्र लक्ष्य वाले महापुरुष, और मातायें विषमता में भी संघर्ष के जज्बे से सफलता की आकाशीय गंगा में सूर्य और चंद्रमा की भांति चमका करती हैं ||🌹
सीता सती,
अनुसुइया, सावित्री, अपाला, गार्गी, घोषा, रानी लक्ष्मीबाई, ध्रुव, प्रहलाद, हरिश्चंद्र, सूर कबीर, तुलसी, मीरा, रंतिदेव, महात्मा, गांधी, लाल बहादुर शास्त्री ,विवेकानंद, कलाम साहब🌺 जिन्होंने देश दुनिया को एक अद्भुत संदेश दिया की यदि🌿
हृदय में संघर्ष का सरोवर हो तो एक ना एक दिन प्रतिभा का सूर्य हर परिस्थितियों को दरकिनार कर, चमकने लगता है ||
महापुरुषों के अवर्णनीय संघर्ष हमारी प्रेरणा उर्जा के केंद्र होने चाहिए | सफलता जीवन का परम लक्ष्य || जन जन को सुख देना ही हर जीव की श्रेष्ठ उपासना और साधना बन जानी चाहिये ||शायद यही सच्चे जीवन की नीव है || और गीता रामायण का संघर्ष से सफलता हासिल करने का संदेश भी 


ऐसा व्यक्ति जो वेद, शास्त्र, ईश्वर, माता, पिता, गुरु, मानवता, राष्ट्र, त्याग, स्वाध्याय, सेवा व धर्म में पूर्ण निष्ठा रखता हो, तथा अत्यंत सहजता पूर्वक इन सब की अवस्थाओं का पालन व सेवा करने में सक्षम हो, वह व्यक्ति श्रेष्ठ शिष्य व साधक बन सकता हैअगर कोई व्यक्ति अपने अल्पज्ञान और स्वःअनुभव से कहता है कि ----
""जो सभी नारियों के साथ-साथ #भोग्या को भी अपने अंतर्मन से #मां मानकर सहर्ष स्वीकार करके संसार में विचरण करता है, उसे #भैरव कहते हैं ।""
उस व्यक्ति का यह विचार/ज्ञान आप ज्ञानीजन/अनुभवी महात्माओं के अनुसार सत्य के कितना करीब माना जा सकता है ??
अगर त्रुटि हो तो और किस तरह से उक्त विचार को रखना चाहेंगे आप सभी । कृपया साधारण भाषा में ही विचार रखें ।
· रश्मि की ओढनी के तले कालिमा...
नव युवा आज फिर साधना हो गयी...
प्रेम की बूँद में डूब कर जन्मों की-
वासना आज आराधना हो गयी

पुराणों में परमेश्वरी(शक्ति) से परब्रह्म को अभिन्न माना गया है। शाक्त संप्रदाय में भी यही मान्यता है। दोनों का सिद्धांत लगभग एक ही है। वास्तव में शक्ति ही समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त है--
शक्तिरूपजगत्सर्वं
यो न जानाति नारकी।
आराध्या परमाशक्तिर
यया सर्वमिदं ततम्।।
यह समस्त जगत शक्तिरूप है-इस बात को न जानने वाला मनुष्य नारकी है। जिस शक्ति से सबकुछ ही सृजित हुआ है,वह आराध्य है। जिस प्रकार शक्ति ब्रह्माण्ड में व्याप्त है, उसी प्रकार मानव शरीर के रोम रोम में व्याप्त है। इसीलिए शरीर को बहुत महत्व दिया गया है।
जैसे भूमंडल का आधार मेरु पर्वत है,उसी प्रकार मानव शरीर का आधार मेरुदंड(रीढ़ की हड्डी) है। इस मेरुदंड मे 33 अस्थिखंड हैं। इन 33 अस्थिखंडों का सम्बन्ध 33 कोटि देवताओं से है। यहाँ यह बतलाना आवश्यक है कि कोटि से आशय 'प्रकार' से है,न कि करोड़ से। अर्थात 33 प्रकार के देवता।
रीढ़ की हड्डी का यह भाग अंदर से खोखला होता है। इसके निचले सिरे के पास वाले स्थान को 'कंद' कहते हैं। इसी कंद में ब्रह्माण्ड में व्याप्त शक्ति की प्रतिमूर्ति निवास करती है।
शरीर की मुख्य 14 नाड़ियों में से केवल तीन नाड़ियों का तंत्र में बड़ा महत्व है। ये नाड़ियाँ हैं-- इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना। मेरुदंड के ऊपर दोनों ओर से इड़ा और पिंगला नाड़ी लिपट कर ऊपर को चलती हैं। सुषुम्ना नाड़ी मेरुदण्ड के भीतर रहती है। इन तीनों नाड़ियों का आरम्भ कंदभाग से होकर समाप्ति कपाल स्थित हज़ार दल वाले कमल में होती है जिसे सहस्रार कहते हैं। सुषम्ना के अंदर क्रमशः बज्रा, चित्रिणी तथा ब्रह्म नाड़ी नामक तीन और सूक्ष्म नाड़ियाँ हैं जहाँ से सुषुम्ना वापस लौटती है,वही स्थान 'ब्रह्मरंध्र' है।
कंद में जो शक्ति निवास करती है, उसे कुण्डलिनी शक्ति कहते हैं। मेरुदंड के नीचे के सिरे पर कंद और ऊपर के सिरे पर सहस्रार चक्र है। यहीं पर परम शिव का वास है। परम शिव से कुण्डलिनी शक्ति का संयोग लययोग का पूर्ण ध्येय है। विषय अति गूढ़ है। पर सारांश यह है कि नश्वर पृथ्वी,जल,अग्नि,वायु और आकाश तथा बुद्धि तत्वों को क्रमशः एक दूसरे में लीन करके अंततः अद्वैत रूप का अनुभव करना साधक का एकमात्र उद्देश्य होता है। जैसे गंध(पृथ्वी), नैवेद्य(जल), दीप(अग्नि), धूप(वायु) और पुष्प(आकाश)। इनका समर्पण पाँचौ तत्वों के लय के समान है। इसके अतिरिक्त पृथ्वी से लेकर आकाश तक सभी तत्व क्रमशः एक दूसरे से सूक्ष्मतर हैं। इनका भी स्थूल से सूक्ष्म और सूक्ष्मतर में लय निश्चित होता है।

 

क्योंकि मन को साध लिया तो प्रथम बाधा पार कर लिया समझो।
फिर स्व का भान होते ही आगे का मार्ग स्वयं ही परिलक्षित होने लगता है, परन्तु चलना बहुत सम्भाल कर होता है।
क्यूंकि बाकी तो माई महामाई की इच्छा ही निर्धारित करती है कि आगे आपको कहाँ तक जाना है और किस मार्ग से जाना है।
वो मार्ग कंटकाकीर्ण भी हो सकता है और पुष्पाच्छादित भी।

भक्ति, प्रेम एवं तंत्र का सामंजस्य।



भक्ति, प्रेम एवं तंत्र का सामंजस्य।





मेरा परम निजी एवं व्यक्तिगत आत्मविश्लेषण।
भक्ति,प्रेम एवं तंत्र के सामंजस्य के बिना उस परमतत्त्व परम्बा के परापरम स्वरूप, अति दिव्यातिदिव्य स्वरूप, अद्वैत स्वरूप को जानना समझना शायद मुश्किल ही नहीं असम्भव भी है।
उस परम्बा के परापरम स्वरूप को मात्र और मात्र भक्ति एवं प्रेम के द्वारा स्वयं के अन्तरात्मा में दिव्यभाव को प्रतिस्थापित कर जागृत कर ही जाना जा सकता है समझा जा सकता है और कोई विकल्प है ही नहीं।
जब तक प्रेम एवं भक्ति से उसकी दिव्यता को जान समझ नहीं लेंगे हम तब तक उसके स्वरूपों के मायाजाल को वास्तविक स्वरूप में समझना नामुमकिन है। तब तक हम मात्र यत्र तत्र सर्वत्र उसके नाना स्वरूपों के पीछे ही भागते रहेंगे, जो कि अनंत अथाह हैं। वो तो जैसा भाव वैसा स्वरूप धारण करने में सिद्धहस्त हैं, तो किन किन स्वरूपों को माना जाये समझा जाये पूजा जाये, सर्वप्रथम तो मानव यहीं भूलभुलैया में उलझ जाता है भटक जाता है, और भूलवश लगा ही रहता है, कई जीनव बिताने के बाद भी कुछ हासिल नहीं हो पाता। क्योंकि मूल जड़ स्वरूप तक पहुंच ही नहीं पाते हम।
पता है क्यूँ, क्योंकि हम पेड़ के अथाह पत्तों को गिनने एवं उन्हें ही सवांरने सहेजने में इतने मस्त मसगुल हो जाते हैं कि मूल तना एवं जड़ की तरफ हमारा कभी ध्यान जा ही नहीं पाता।
इसका एकमात्र सर्वश्रेष्ठ विकल्प यही है कि भक्ति एवं प्रेम के सामंजस्य से दिव्यता रूपी भाव को जागृत कर उस दिव्य कुल्हाड़ी से हमें उस महावृक्ष के सभी टहनियों को काटना होगा, मात्र एक को छोड़ कर।
फिर स्वयं ही हमारा ध्यान उस पेड़ के मूल तना एवं जड़ की तरफ आकर्षित हो जाएगा। हम मात्र उसी की सेवा में लग जाएंगे, ताकि वो पेड़ सूखे नहीं।
फिर प्रेम भक्ति एवं निरंतर सेवा से नाना उपचार से हम मात्र उस जड़ एवं तना की सेवारत देखते हैं कि पुनः कई शाखाएं स्वयं प्रस्फुटित होती जाती हैं।
परंतु कहाँ से, एवं कैसे ?????????
उस मूल स्वरूप, आधार स्वरूप उस जड़ एवं तने से ही !!!
तो सभी भटकाव त्याग कर सर्वप्रथम तो स्वयं को उस जड़ एवं मूल तना स्वरूप परमतत्त्व एवं परम्बा के अद्वैत स्वरूप को जान समझ कर प्रेम एवं भक्ति के मजबूत डोर से कस कर पकड़ना ही होगा, या यूँ कहें कि स्वयं को उसी के साथ बांधना होगा।
तत्पश्चात उसमें तंत्र स्वरूपी खाद पानी के साथ साथ सिंचित कर उसे निरंतर जागृत करना ही होगा।
ठीक इसी प्रकार हमें अपने मन के भटकाव को काट छाँट कर मात्र उस मूल स्वरूप में या यूँ कहें कि उस मूल स्वरूप को स्वयं में स्वयं के कण कण में प्रतिष्ठित करना ही सर्वश्रेष्ठ है। अब हमें तंत्र के सामंजस्य से अपने प्रत्येक कण में प्रस्फुटित प्रेम भाव को संकलित कर पूर्णतया कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं पर केंद्रित होते हुए उस मूल महाबिन्दु तक पहुंचना होगा।वो महाबिन्दु जो हमारी सिमा का अंत एवं उस अनंत की सीमा का प्रवेशद्वार है।
तंत्र का वास्तविक प्रतिपादन मात्र ऐसे ही सर्वश्रेष्ठ है जब वो प्रेम एवं भक्ति सामंजस्य कर आगे बढ़ता है तभी ईस्ट की प्राप्ति संभव हो पाती है। तंत्र का वास्तविक मूल उद्देश्य एवं समस्त प्रक्रिया भी यही परिलक्षित करती हुई प्रतीत होती है।
अन्यथा प्रेम भक्ति वाले भी प्रायः सम्पूर्ण जीवन भटकते ही रह जाते हैं। तथा तंत्रमार्गी भी करोड़ों मंत्रों को सिद्ध करते एवं क्षुद्र सिद्धियों के मकड़जाल में ही उलझ कर मात्र भटकते रहते हैं। प्राप्ति प्रायः शून्य ही रहता है।
परमतत्त्व एवं परम्बा के अद्वैत स्वरूप तक पहुँचना तो दूर जानना समझना तो फिर बहुत ही दुर्लभ बहुत दूर की कौड़ी मात्र ही होती है।
तंत्र मार्ग में न्यास, ध्यान एवं भाव का मूलमंत्र मूल उद्देश्य यही है। जब तक ईस्ट को स्वयं में प्रतुष्ठित नहीं कर लेते, ध्यान एवं भावों से स्वयं को उसमें विलीन नहीं कर लेते, स्वयं को ही इष्ट स्वरूप में देखने जानने नहीं लगते तब तक कोई भी मंत्र पूर्णतया जागृत नहीं हो सकता स्वयं के भीतर। और जब तक मंत्र जागृत नहीं होगा वो पूर्णतया अपना कार्य सम्पादित नहीं कर सकता।
और इन सब के लिए भाव को पूर्णतया जागृत कर प्रेमभाव, भक्तिभाव को सामंजस्य करते हुए, मंत्रों को समुचित प्रयोग करते हुए मात्र ही इष्ट तक पहुंच सकते हैं।
और अगर हमने अपने भावों को पूर्णतया परिष्कृतिकरण कर लिया है तो हमारे वही ईस्ट उस एकमात्र बचे तने की तरह हमे स्वयं ही अपने मूल तने एवं जड़ तक पहुंचने का विकल्प बन हमें उस परमतत्त्व परम्बा के अद्वैत स्वरूप के अद्वैतानन्द का रसपान कराने हेतु सक्षम एवं सदैव तत्पर होंगे।
ये लेख पूर्णतया मेरा व्यक्तिगत अनुभव मात्र एवं मेरा मत है। किसी और का इससे कोई सम्बन्ध नहीं। अतः सहमति अथवा असहमति स्वाभाविक है, जो कि हृदय से स्वागत योग्य होगा, बस मात्र अन्यथा तर्क कुतर्क से कोई लाभ नहीं।