भक्ति, प्रेम एवं तंत्र का सामंजस्य।
मेरा परम निजी एवं व्यक्तिगत
आत्मविश्लेषण।
भक्ति,प्रेम एवं तंत्र के सामंजस्य के बिना उस परमतत्त्व परम्बा के परापरम
स्वरूप, अति दिव्यातिदिव्य
स्वरूप, अद्वैत स्वरूप को
जानना समझना शायद मुश्किल ही नहीं असम्भव भी है।
उस परम्बा के परापरम स्वरूप को मात्र और
मात्र भक्ति एवं प्रेम के द्वारा स्वयं के अन्तरात्मा में दिव्यभाव को
प्रतिस्थापित कर जागृत कर ही जाना जा सकता है समझा जा सकता है और कोई विकल्प है ही
नहीं।
जब तक प्रेम एवं भक्ति से उसकी दिव्यता को
जान समझ नहीं लेंगे हम तब तक उसके स्वरूपों के मायाजाल को वास्तविक स्वरूप में
समझना नामुमकिन है। तब तक हम मात्र यत्र तत्र सर्वत्र उसके नाना स्वरूपों के पीछे
ही भागते रहेंगे, जो कि अनंत अथाह
हैं। वो तो जैसा भाव वैसा स्वरूप धारण करने में सिद्धहस्त हैं, तो किन किन स्वरूपों को माना जाये समझा जाये पूजा
जाये, सर्वप्रथम तो मानव
यहीं भूलभुलैया में उलझ जाता है भटक जाता है, और भूलवश लगा ही रहता है, कई जीनव बिताने के बाद भी कुछ हासिल नहीं हो पाता। क्योंकि मूल जड़ स्वरूप
तक पहुंच ही नहीं पाते हम।
पता है क्यूँ, क्योंकि हम पेड़ के अथाह पत्तों को गिनने एवं
उन्हें ही सवांरने सहेजने में इतने मस्त मसगुल हो जाते हैं कि मूल तना एवं जड़ की
तरफ हमारा कभी ध्यान जा ही नहीं पाता।
इसका एकमात्र सर्वश्रेष्ठ विकल्प यही है
कि भक्ति एवं प्रेम के सामंजस्य से दिव्यता रूपी भाव को जागृत कर उस दिव्य
कुल्हाड़ी से हमें उस महावृक्ष के सभी टहनियों को काटना होगा, मात्र एक को छोड़ कर।
फिर स्वयं ही हमारा ध्यान उस पेड़ के मूल
तना एवं जड़ की तरफ आकर्षित हो जाएगा। हम मात्र उसी की सेवा में लग जाएंगे, ताकि वो पेड़ सूखे नहीं।
फिर प्रेम भक्ति एवं निरंतर सेवा से नाना
उपचार से हम मात्र उस जड़ एवं तना की सेवारत देखते हैं कि पुनः कई शाखाएं स्वयं
प्रस्फुटित होती जाती हैं।
उस मूल स्वरूप, आधार स्वरूप उस जड़ एवं तने से ही !!!
तो सभी भटकाव त्याग कर सर्वप्रथम तो स्वयं
को उस जड़ एवं मूल तना स्वरूप परमतत्त्व एवं परम्बा के अद्वैत स्वरूप को जान समझ कर
प्रेम एवं भक्ति के मजबूत डोर से कस कर पकड़ना ही होगा, या यूँ कहें कि स्वयं को उसी के साथ बांधना होगा।
तत्पश्चात उसमें तंत्र स्वरूपी खाद पानी
के साथ साथ सिंचित कर उसे निरंतर जागृत करना ही होगा।
ठीक इसी प्रकार हमें अपने मन के भटकाव को
काट छाँट कर मात्र उस मूल स्वरूप में या यूँ कहें कि उस मूल स्वरूप को स्वयं में
स्वयं के कण कण में प्रतिष्ठित करना ही सर्वश्रेष्ठ है। अब हमें तंत्र के सामंजस्य
से अपने प्रत्येक कण में प्रस्फुटित प्रेम भाव को संकलित कर पूर्णतया कुछ
महत्वपूर्ण बिंदुओं पर केंद्रित होते हुए उस मूल महाबिन्दु तक पहुंचना होगा।वो
महाबिन्दु जो हमारी सिमा का अंत एवं उस अनंत की सीमा का प्रवेशद्वार है।
तंत्र का वास्तविक प्रतिपादन मात्र ऐसे ही
सर्वश्रेष्ठ है जब वो प्रेम एवं भक्ति सामंजस्य कर आगे बढ़ता है तभी ईस्ट की
प्राप्ति संभव हो पाती है। तंत्र का वास्तविक मूल उद्देश्य एवं समस्त प्रक्रिया भी
यही परिलक्षित करती हुई प्रतीत होती है।
अन्यथा प्रेम भक्ति वाले भी प्रायः
सम्पूर्ण जीवन भटकते ही रह जाते हैं। तथा तंत्रमार्गी भी करोड़ों मंत्रों को सिद्ध
करते एवं क्षुद्र सिद्धियों के मकड़जाल में ही उलझ कर मात्र भटकते रहते हैं।
प्राप्ति प्रायः शून्य ही रहता है।
परमतत्त्व एवं परम्बा के अद्वैत स्वरूप तक
पहुँचना तो दूर जानना समझना तो फिर बहुत ही दुर्लभ बहुत दूर की कौड़ी मात्र ही होती
है।
तंत्र मार्ग में न्यास, ध्यान एवं भाव का मूलमंत्र मूल उद्देश्य यही है।
जब तक ईस्ट को स्वयं में प्रतुष्ठित नहीं कर लेते, ध्यान एवं भावों से स्वयं को उसमें विलीन नहीं कर लेते, स्वयं को ही इष्ट स्वरूप में देखने जानने नहीं
लगते तब तक कोई भी मंत्र पूर्णतया जागृत नहीं हो सकता स्वयं के भीतर। और जब तक
मंत्र जागृत नहीं होगा वो पूर्णतया अपना कार्य सम्पादित नहीं कर सकता।
और इन सब के लिए भाव को पूर्णतया जागृत कर
प्रेमभाव, भक्तिभाव को
सामंजस्य करते हुए, मंत्रों को समुचित
प्रयोग करते हुए मात्र ही इष्ट तक पहुंच सकते हैं।
और अगर हमने अपने भावों को पूर्णतया
परिष्कृतिकरण कर लिया है तो हमारे वही ईस्ट उस एकमात्र बचे तने की तरह हमे स्वयं
ही अपने मूल तने एवं जड़ तक पहुंचने का विकल्प बन हमें उस परमतत्त्व परम्बा के
अद्वैत स्वरूप के अद्वैतानन्द का रसपान कराने हेतु सक्षम एवं सदैव तत्पर होंगे।
ये लेख पूर्णतया मेरा व्यक्तिगत अनुभव
मात्र एवं मेरा मत है। किसी और का इससे कोई सम्बन्ध नहीं। अतः सहमति अथवा असहमति
स्वाभाविक है, जो कि हृदय से
स्वागत योग्य होगा, बस मात्र अन्यथा
तर्क कुतर्क से कोई लाभ नहीं।
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