शुक्रवार, 20 जून 2014

विदेश यात्रा का योग

,,,,,,,,,,,,,,, यदि तृतीय स्थान का स्वामी भाग्य में, भाग्येश व्यय में और कुंडली में विदेश यात्रा योग का फल:- कुण्डली में विदेश यात्रा के योग होने पर भी जरूरी नहीं कि आपको विदेश
जाने का अवसर मिलेगा. इस विषय में ज्योतिषीयों का मत है कि योग अगर
कमज़ोर हैं आवश्यक होता है। व्यय स्थान में यदि चर राशि हो तो विदेश में थोड़े समय का ही प्रवास होता है। व्यय स्थान में अगर स्थिर राशि हो तो कुछ सालों तक विदेश में रहा जा सकता है। यदि द्विस्वभाव राशि हो तो परदेस आना-जाना होता रहता है। इसके साथ- साथ व्यय स्थान से संबंधित कौन-से ग्रह और राशि हैं, इनका विचार करने पर किस देश में जाने का योग बनता है, यह भी जाना जा सकता है।
सर्वसाधारण तौर पर यदि शुक्र का संबंध हो तो अमेरिका जैसे नई विचार प्रणाली वाले देश को जाने का योग बनता है। उसी तरह अगर शनि का संबंध हो तो इंग्लैंड जैसे पुराने विचारों वाले देश को जाना संभव होता है। अगर राहु-केतु के साथ संबंध हो तो अरब देश की ओर संकेत किया जा सकता है। तृतीय स्थान से नजदीक का प्रवास, नवम स्थान से दूर का प्रवास और व्यय स्थान की सहायता से वहाँ निवास कितने समय के लिए होगा यह जाना जा सकता है।
कुंडली के तृतीय, सप्तम और नवम, द्वादश स्थानों से प्रवास के बारे में
जानकारी मिलती है। तृतीय स्थान से आसपास के प्रवास, सप्तम स्थान से
जीवन साथी के साथ होने वाले प्रवास, नवम से दूरदराज की यात्रा व द्वादश से विदेश यात्रा का योग देखा जाता है।कुंडली के तृतीय, सप्तम और नवम, द्वादश स्थानों से प्रवास के बारे में जानकारी मिलती है। तृतीय स्थान से आसपास के प्रवास, सप्तम स्थान से जीवन साथी के साथ होने वाले प्रवास, नवम से दूरदराज की यात्रा व द्वादश से विदेश यात्रा का योग देखा जाता है।यदि ये स्थान व इनके अधिपति बलवान हो तो जीवन में यात्रा योग आते ही रहते हैं। पंचम-नवम स्थानों के अधिपति स्थान परिवर्तन कर रहे हो तो उच्च शिक्षा हेतु यात्रा होती है। व्यय में शनि, राहु, नैपच्यून हो तो विदेश यात्रा अवश्य होती है। प्रवास स्थान में पापग्रह हो तो यात्रा से नुकसान हो सकता है। यदि लग्नेश-अष्टमेश का कुयोग हो तो यात्रा में दुर्घटना होने के योग बनते हैं। नवमेश पंचम में हो तो बच्चों के द्वारा यात्रा कराए जाने के योग होते हैं। प्रवास स्थान गुरु के प्रभाव में हो तो तीर्थयात्रा के योग बनते हैं। नवम केतु भी तीर्थ यात्रा कराता है। वायु तत्व राशि के व्यक्ति हवाई यात्रा के प्रति आकर्षित होते हैं। जल तत्व के व्यक्तियों को जलयात्रा के अवसर मिलते हैं। वहीं पृथ्वी व अग्नि तत्व के व्यक्ति सड़क यात्रा करते हैं। 
1.
नवम स्थान का स्वामी चर राशि में तथा चर नवमांश में बलवान
होना आवश्यक है। 
2.
नवम तथा व्यय स्थान में अन्योन्य योग होता है। 
3.
तृतीय स्थान, भाग्य स्थान या व्यय स्थान के ग्रह की दशा चल रही हो।
4.
तृतीय स्थान, भाग्य स्थान और व्यय स्थान का स्वामी चाहे कोई भी ग्रह हो वह यदि उपरोक्त स्थानों के स्वामियों के नक्षत्र में हो तो विदेश यात्रा होती है।
व्ययेश भाग्य
में हो, संक्षेप में कहना हो तो तृतियेश, भाग्येश और व्ययेश इनका एक-दूजे के साथ संबंध हो तो विदेश यात्रा निश्चित होती है।तो विदेश में आजीविका की संभावना कम रहती है इस स्थिति में
हो सकता है कि व्यक्ति अपने जन्म स्थान से दूर जाकर अपने ही देश में
नौकरी अथवा कोई व्यवसाय करे.विदेश यात्रा योग के लिए सबसे
महत्वपूर्ण स्थान होता है व्यय स्थान। विदेश यात्रा का निश्चित योग कब आएगा,
विदेश में कितने समय के लिए वास्तव्य होगा, यह जानने के लिए व्यय स्थान स्थित राशि का विचार करना 

राम नाम का भावार्थ

राम मन्त्र का अर्थ
', '' और '', इन तीनों अक्षरों के योग से 'राम' मंत्र बनता है। यही राम
रसायन है। '' अग्निवाचक है। '' बीज मंत्र है। '' का अर्थ है ज्ञान। यह मंत्र पापों को जलाता है, किंतु पुण्य को सुरक्षित रखता है और ज्ञान प्रदान करता है। हम चाहते हैं कि पुण्य सुरक्षित रहें, सिर्फ पापों का नाश हो। '' मंत्र जोड़ देने से अग्नि केवल पाप कर्मो का दहन कर पाती है और हमारे शुभ और सात्विक कर्मो को सुरक्षित करती है। '' का उच्चारण करने से ज्ञान की उत्पत्ति होती है। हमें अपने स्वरूप का भान हो जाता है।
इसलिए हम र, अ और म को जोड़कर एक मंत्र बना लेते हैं-राम। '' अभीष्ट होने पर भी यदि हम '' और '' का उच्चारण नहीं करेंगे तो अभीष्ट की प्राप्ति नहीं होगी।
राम सिर्फ एक नाम नहीं अपितु एक मंत्र है, जिसका नित्य स्मरण करने से सभी दु:खों से मुक्ति मिल जाती है। राम शब्द का अर्थ है- मनोहर, विलक्षण, चमत्कारी, पापियों का नाश करने वाला व भवसागर से मुक्त करने वाला। रामचरित मानस के बालकांड में एक प्रसंग में लिखा है- नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू।। अर्थात कलयुग में न तो कर्म का भरोसा है, न भक्ति का और न ज्ञान का। सिर्फ राम नाम ही एकमात्र सहारा हैं। स्कंदपुराण में भी राम नाम की महिमा का गुणगान किया गया है- रामेति द्वयक्षरजप: सर्वपापापनोदक:। गच्छन्तिष्ठन् शयनो वा मनुजो रामकीर्तनात्।। इड निर्वर्तितो याति चान्ते हरिगणो भवेत्। स्कंदपुराण/नागरखंड अर्थात यह दो अक्षरों का मंत्र(राम) जपे जाने पर समस्त पापों का नाश
हो जाता है। चलते, बैठते, सोते या किसी भी अवस्था में जो मनुष्य राम नाम
का कीर्तन करता है, वह यहां कृतकार्य होकर जाता है और अंत में भगवान
विष्णु का पार्षद बनता है।
राम रामेति रामेति रमे रामे रामो रमे |
सहस्त्र नाम तत्तुल्यं राम नाम वरानने || विष्णु जी के सहस्त्र नामों को लेने का समय अगर आज के व्यस्त समय में
ना मिले तो एक राम नाम ही सहस्त्र विष्णु नाम के बराबर है .कलियुग
का एक अच्छा पक्ष है की हज़ारों यज्ञों का पुण्य सिर्फ नाम संकीर्तन से
मिल जाता है                                                                                                                                                                                

वृक्ष की उपयोगिता

ज्योतिष शास्त्र में प्रत्येक दिन का संबंध ग्रहों की सत्ता पर आधारित है। बुधवार का दिन बुध देव को समर्पित है। बुध देव बुद्धि व चतुराई के दाता हैं। जीवन में सफलता पाने के लिए बुद्धि और चतुराई का समावेश होना अत्यंत अवश्यक है।
बुधवार का दिन बुध ग्रह से संबंधित है, जिसके अधिपति स्वयं लक्ष्मी नारायण विष्णु हैं। लक्ष्मी तभी प्रसन्न होंगी जब नारायण प्रसन्न रहेंगे। अत:बुधवार को किया गया धन संग्रह अधिक संमय तक स्थायी रहता है इसलिए धन की वृद्धि से जुड़े सभी कार्यों के लिए बुधवार सर्वश्रेष्ठ वार है ।
यदि बुधवार के दिन किसी शुभ कार्य के लिए जा रहे हैं तो गणेश जी को मोदक प्रसाद के रूप में चढ़ाएं और फिर प्रसाद ग्रहण करके लक्ष्य की ओर निकलें। ऐसा करने पर आपके सभी कार्य समय पर पूर्ण होंगे और सफलता प्राप्त होगी।
इसके लिए धन प्रबंध बहुत आवश्यक है। बुधवार के दिन कोई भी व्यापार प्रारंभ किया जाए तो उसमें सफलता की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। वणिक वर्ग के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे बुधवार के दिन किसी को भी धन नहीं दें। बुधवार का दिन धन संग्रह के लिए है ना कि धन देने के लिए।
इस दिन किए जाने योग्य कार्य, बैंक में जमा खाता खुलवाना, बीमा करवाना, धन का आदान प्रदान करना, रूपए पैसों का लेन देन करना, इन्वेस्टमेन्ट करना, गोदाम में माल भरना इत्यादि कार्य करने शुभ रहते हैं।
हम जिस घर में रहते हैं उसकी बनावट, दिशाएं और घर में पचंतत्वों के उचित समावेश का हमारे जीवन पर काफी प्रभाव पड़ता है। इसके साथ ही हमारे आस-पास भवन के आस-पास के वातावरण में उगने वाले पेड़ पौधों का शुभ प्रभाव पड़ता है।
इसलिए घर के सामने लॉन में पेड़ पौधे लगाना चाहिए। इस संबंध में वास्तुशास्त्र के विद्वानों का अलग-अलग मत है। घर के बाहर पेड़ लगाते समय ध्यान रखना चाहिए कि पेड़ भवन से इतनी दूर लगाए जाएं कि सुबह 9 बजे से लेकर तीसरे प्रहर यानी तीन बजे तक पेड़ की छाया मकान पर न पड़े। इसके साथ ही कुछ ऐसे ही वास्तु टिप्स...

  • विशाल वृक्षों में कैथ वृक्ष घर के उत्तर में वट वृक्ष, पूर्व में गूलर दक्षिण में तथा पीपल पश्चिम लगाना शुभ होता है।
  • घर के पूर्व में ऊंची इमारतें या विशाल वृक्ष नहीं होने चाहिए। इसके साथ ही देवालय, मठ, मकान सूर्य की जीवनदायिनी किरणें और वायु से वंचित रहे वह शुभफलदायी नहीं होता।
  • पाकड़, गूलर, आम, नीम, सुही, बहेड़ा, कांटे वाला बरगद, पीपल, कैथ, इमली की लकड़ियों को निर्माण कार्य में नहीं लगाना चाहिए।
  • ऐसे पौधे जिनके लिए केवल जल ही पर्याप्त है जैसे मनीप्लांट को किसी भी कक्ष में पूर्व दिशा, उत्तर दिशा या ईशान कोण में भी रखा जा सकता है।
  • आजकल बोनजाई का प्रचलन है। किसी भी कक्ष में यदि बोनजाई रखना हो तो इसके लिए पश्चिम की ओर या दक्षिण की ओर रखना चाहिए।
  • घर के पास कांटे वाले पौधे जैसे बेर की झाड़ी, अकोआ, महुआ आदि नहीं लगाना चाहिए। अगर पहले से हैं तो इन्हें कटवा दें। यदि इन्हें कटवाना चाहते हैं तो इनके बीच शुभदायक पौधे जैसे अशोक, शाल, कटहल लगा देना चाहिए।
  • घर के सामने आंगन में गुलाब, गेंदा, रात की रानी, बेला आदि सुगंध वाले पौधे गमलों में या ऐसे ही लगाएं कि दूर से नजर आएं। अशोक के पेड़ घर के सामने नहीं लगाना चाहिए। यह शुभ होते हैं। यह घर को शुद्ध रखते हैं।
                           निम्नलिखित वृक्षों के  लगाने से उचित उत्कर्ष प्राप्त होता है !
    ०अशोक का वृक्ष लगाने से शोक नष्ट होता है ! वेल से पुत्र /दीर्घायु ,कदम्ब से लक्ष्मी ,अवला से स्वर्ग ,अनार और पाकर से स्त्री प्राप्ति ,अश्वत्थ पीपल से सद्गति व  शमी छोकर से रोग की निवृति होती है !
    ०फाल्गुन में वृक्ष लगाने से कल्याण ,चैत्र में आनन्द ,भौतिक सुख ,कार्तिक में सर्व सुख वृद्धि व अगहनमें वृक्ष लगाने से अतुल सौभाग्य की प्राप्ति होती है
    !

गुरुवार, 19 जून 2014

नैरत्य दिशा की विशेषता

भवन निर्माण में भंडार गृह या भंडारण कक्ष (स्टोर रूम) मुख्य योजना का एक अहम हिस्सा रहता है। भंडार गृह बनाने के पीछे दो प्रमुख उद्देश्य हैं कि वर्षभर के लिए अन्न का भंडारण किया जा सके और जरूरी वस्तुओं का संचय भी हो सके।
यदि आपके पास पर्याप्त जगह है तो अन्न के भंडारण और अन्य वस्तुओं के संचय के लिए अलग-अलग कक्ष बनाए जाने चाहिए लेकिन अगर जगह का अभाव है तो एक ही कक्ष से दोनों उपयोग लिए जा सकते हैं। यहां भंडार गृह संबंधी प्रमुख वास्तु सुझाव दिए जा रहे हैं जो पारिवारिक समृद्धता को संभव बनाते हैं।
भंडार गृह में न रखें अनुपयोगी चीजें
  • अन्नादि के भंडार कक्ष का द्वार नैर्ऋत्य कोण (दक्षिण-पश्चिम) में होना चाहिए।
  • अगर वायव्य कोण (उत्तर-पश्चिम) में अन्ना कक्ष या अन्न भंडार गृह बनाया जाता है तो अन्न की कभी कमी नहीं होती है। घर में धन-धान्य बना रहता है।
  • अन्न का वार्षिक संग्रहण दक्षिणी अथवा पश्चिमी दीवार के समीप किया जाना चाहिए।
  • अन्न कक्ष या अन्ना भंडार गृह में डिब्बे या कनस्तर को खाली नहीं रहने दें। अगर कोई डिब्बा पूरी तरह खाली हो रहा हो तो भी उसमें कुछ मात्रा में अन्न बचा देना चाहिए। यह समृद्धि के लिए जरूरी माना जाता है।
  • अन्न भंडार कक्ष में घी, तेल, मिट्टी का तेल एवं गैस सिलेन्डर आदि को आग्नेय कोण (दक्षिण-पूर्व) में रखना चाहिए।
  • अन्न के भंडार कक्ष में ईशान कोण (उत्तर-पूर्व) में शुद्ध और पवित्र जल से भरा हुआ मिट्टी का एक पात्र रखा जाना चाहिए। इस बात का खयाल रखें कि यह पात्र खाली न हो।
  • अन्न कक्ष में अगर विष्णु और लक्ष्मी का चित्र या प्रतिमा हो तो उससे समृद्धि प्राप्त होती है।
  • रोज उपयोग में आने वाले खाद्यान्न को कक्ष के उत्तर-पश्चिमी भाग में रखा जाना चाहिए।
  • पूर्व दिशा में अगर भंडार गृह हो तो घर के मुखिया को अपनी आजीविका के लिए ज्यादा यात्रा करनी पड़ती है। वह अक्सर घर से बाहर ही रहता है।
  • आग्नेय कोण में अगर भंडार कक्ष का निर्माण किया जाए तो मुखिया की आमदनी हमेशा कम ही पड़ती है।
  • दक्षिण दिशा में भंडार कक्ष बनाने पर घर के सदस्यों के बीच आपसी मतभेद हो सकते हैं। इस तरह के भंडार कक्ष से घर में अशांति बनी रहती है।
  • संयुक्त भंडार कक्ष भवन के पश्चिमी अथवा उत्तर-पश्चिमी भाग में बनाया जाना चाहिए।
  • संयुक्त भंडार गृह में अन्ना वायव्य कोण (उत्तर-पश्चिम) में रखा जाना चाहिए।
  • अगर संयुक्त रूप से भंडार कक्ष का उपयोग किया जाता है तो उसमें ऐसी चीजें नहीं रखना चाहिए जो हमारे लिए पूरी तरह अनुपयोगी हैं।
  • संयुक्त भंडार गृह में अन्य चीजों का भंडारण दक्षिणी और पश्चिमी दीवार की ओर किया जाना चाहिए।
  • संयुक्त भंडारगृह के ईशान कोण (उत्तर-पूर्व) में जल का पात्र रखना शुभकर रहता है और परिवार में शांति और समृद्धि में वृद्धि करता है।
·         भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक का बहुत महत्व माना गया है। कहते हैं कि देवों में सर्वप्रथम पूज्य भगवान श्रीगणेश की उपासना और धन, वैभव व ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी की पूजा स्वस्तिक के बिना अधूरी है।
·         किसी भी देवता या देवियों की पूजा के पहले कई प्रकार के चौक आंगन या पूजास्थल पर बनाए जाते है जिसके साथ स्वस्तिक बनाने की परंपरा है।
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·         ब्रह्माण्ड का प्रतीक
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·         स्वस्तिक को सूर्य और विष्णु का प्रतीक माना जाता है। सविन्त सूत्र के अनुसार इसे मनोवांछित फलदायक सम्पूर्ण जगत का कल्याण करने वाला और देवताओं को अमरत्व प्रदान करने वाला कहा गया है।
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·         माना जाता है कि स्वस्तिक ब्रह्माण्ड का प्रतीक है। इसके मध्य भाग को विष्णु की नाभि, चारों रेखाओं को ब्रह्मा जी के चार मुख और चारों हाथों को चार वेदों के रूप माना गया है। देवताओं के चारों ओर घूमनेवाले आभामंडल का चिन्ह ही स्वस्तिक के आकार का होने के कारण इसे शास्त्रों में शुभ माना गया है।
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·         'स्वस्तिक' का अर्थ
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·         'स्वस्तिक' में 'स्वस्ति' का अर्थ है - क्षेम, मंगल इत्यादि प्रकार की शुभता एवं '' अर्थात कारक या करने वाला। मान्यता है कि धर्मग्रंथ श्रुति द्वारा प्रतिपादित यह युक्तिसंगत भी है। श्रुति, अनुभूति तथा युक्ति इन तीनों में इसका एक समान वर्णन किया गया है यह प्रयागराज में होने वाले संगम के समान हैं।
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·         दिशाएं चार होती हैं, खड़ी तथा सीधी रेखा खींचकर जो घन चिन्ह जैसा आकार बनता है यह आकार चारों दिशाओं का द्योतक सर्वत्र है। इसलिए यह देवताओं का शुभ स्वस्तिक करने वाला है और इसके गति सिद्ध चिन्ह को 'स्वस्तिक' कहा गया है।
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·         सात समुंदर पार
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·         स्वस्तिक को भारत में ही नहीं, विश्व के कई देशों में विभिन्न स्वरूपों में पहचाना जाता है। यूनान, फांस, रोम, मिस्त्र, ब्रिटेन, अमरीका, स्कैण्डिनेविया, सिसली, स्पेन, सीरिया, तिब्बत, चीन, साइप्रस और जापान आदि देशों में भी स्वस्तिक का प्रचलन है।
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·         स्वस्तिक की रेखाओं को कुछ विद्वान अग्नि उत्पन्न करने वाली अश्वत्थ (पीपल) की दो लकड़ियां मानते हैं। प्राचीन मिस्त्र के लोग स्वस्तिक को निर्विवाद रूप से काष्ठ दण्डों का प्रतीक मानते थे। यज्ञ में अग्नि मंथन के कारण इसे प्रकाश का भी प्रतीक माना जाता है।
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·         लोगों का मानना है कि स्वस्तिक सूर्य का प्रतीक है। जैन धर्मावलम्बी अक्षत पूजा के समय स्वस्तिक चिह्न बनाकर तीन बिन्दु बनाते हैं। स्वस्तिक की रेखाओं को कुछ विद्वान अग्नि उत्पन्न करने वाली अश्वत्थ तथा पीपल की दो लकड़ियां मानते हैं।