शनिवार, 21 दिसंबर 2013

|| श्री बजरंग बाण ||

जो व्यक्ति  या उनके सगे सम्बन्धी भूत बाधा से पीड़ित हो अथवा किसी तन्त्र -मन्त्र से पीड़ित हो , वे श्रद्धा पूर्वक २१ शनिवार या मंगलवार श्री हनुमान जी की  प्रतिमा या चित्र के सम्मुख दीपक प्रज्ज्वलित कर षोडशोपचार पूजन कर श्री बजरंग बाण का पाठ कर चमत्कारिक प्रभाव स्वयं अनुभूत करें |


                                 || बजरंग बाण ||

निश्चय प्रेम प्रतीति ते, विनय करें सनमान ।
        तेहिं के कारज सकल शुभ,सि़द्व करें हनुमान ।।

जय हनुमंत संत हितकारी । सुन लीजै प्रभु अरज हमारी ।।
जन के काज विलंब न कीजै । आतुर दौरि महा सुख दीजै ।।
जैसे कूदि सिंधु महि पारा । सुरसा बदन पैठि विस्तारा ।।
आगे जाय लंकिनी रोका । मारेहुं लात गई सुरलोका ।।
जाय विभीषण को सुख दीन्हा । सीता निरखि परम पद लीन्हा ।।
बाग उजारि सिंधु महं बोरा । अति आतुर जमकातर तोरा ।।
अक्षयकुमार को मारि संहारा । लूम लपेटि लंक को जारा ।।
लाह समान लंक जरि गई । जय जय धुनि सुरपुर नभ भई ।।
अब बिलंब केहि कारन स्वामी । कृपा करहु उर अंतरयामी ।।
जय जय लखन प्रान के दाता । आतुर ह्वबै दुख करहु निपाता ।।
जै हनुमान जयति बलसागर । सुर समूह समरथ भटनागर ।।
ॐ हनु हनु हनु हनुमंत हठीले । बैरिहि मारू बज्र के कीले ।।
ॐ ह्री ह्रीं ह्रीं हनुमंत कपीसा । ॐ हुं हुं हुं हनु अरि उर सीसा ।।
जय अंजनि कुमार बलवंता । शंकरसुवन बीर हनुमंता ।।
बदन कराल काल कुल घालक । राम सहाय सदा प्रतिपालक ।।
भूत, प्रेत, पिसाच निशाचर । अगिन बेताल काल मारी मर ।।
इन्हें मारू, तोहि सपथ राम की । राखु नाथ मरजाद नाम की ।।
सत्य होहु हरि सपथ पाई कै । राम दूत धरू मारू धाई कै ।।
जय जय जय हनुमंत अगाधा । दुख पावत जन केहि अपराधा ।।
पूजा जप तप नेम अचारा । नहि जानत कुछ दास तुम्हारा ।।
बन उपबन मग गिरि गृह माही । तुम्हरे बल हम डरपत नहीं।।
जनकसुता हरि दास कहावौ । ताकी सपथ बिलंब न लावौ ।।
जै जै जै धुनि होत अकासा । सुमिरत होत दुसह दुख नासा ।।
चरन पकरि कर जोरि मनावौं । यहि अवसर अब केहिं गोहरावौं ।।
उठु, उठु, चलु तोहि राम दुहाई । पाँय परौं, कर जोरि मनाई ।।
ॐ चं चं चं चपल चलंता । ॐ हनु हनु हनु हनु हनुमंता ।।
ॐ हं हं हाँक देत कपि चंचल । ॐ सं सं सहमि पराने खलदल ।।
अपने जन को तुरत उबारौ । सुमिरत होय आनंद हमारौ ।।
यह बजरंग बाण जेहि मारै । ताहि कहौ फिरि कौन उबारै ।।
पाठ करै बजरंग बाण की । हनुमत रक्षा करै प्रान की ।।
यह बजरंग बाण जो जापै । तासौं भूत प्रेत सब काँपै ।।
धूप देय जो जपै हमेशा । ताके तन नहि रहे कलेशा ।।

    उर प्रतीति दृढ़ सरन हवै , पाठ करै धरि ध्यान ।
     बाधा सब हर, करै सब काम सफल हनुमान ।।

|| श्री गंगा चालीसा ||

|| श्री गंगा चालीसा ||


दोहा
 जय जय जय जग पावनी, जयति देवसरि गंग ।
 जय शिव जटा निवासिनी, अनुपम तुंग तरंग ॥

जय जग जननी हरण अघखानी। आनंद करनी गंग महारानी॥
जय भागीरथी सुरसरि माता। कलिमल मूल दलिनी विख्याता॥
जब जग जननी चल्यो हहराई। शम्भु जटा महं रह्यो समाई॥
वर्ष पर्यन्त गंग महारानी। रहीं शम्भु के जटा भुलानी॥
मुनि भागीरथ शंभुहिं ध्यायो। तब इक बूंद जटा से पायो॥
ताते मातु भई त्रय धारा। मृत्युलोक, नभ, अरु पातारा॥
गई पताल प्रभावति नामा। मंदाकिनी गई गगन ललामा॥
मृत्युलोक जाह्नवी सुहावनी। कलिमल हरणि अगम जग पावनि॥
धनि मइया तब महिमा भारी। धर्म धुरी कलि कलुष कुठारी॥
मातु प्रभावति धनि मन्दाकिनी। धनि सुरसरितसकल भयनासिनी॥
पान करत निर्मल गंगा जल। पावत मन इच्छित अनन्त फल॥
पूरब जन्म पुण्य जब जागत। तबहिं ध्यान गंगा महं लागत॥
जइ पगु सुरसरि हेतु उठावहि। तइ जगि अश्वमेध फल पावहि॥
महापतित जिन काहू न तारे। तिन तारे इक नाम तिहारे॥
शत योजन हू से जो ध्यावहिं। निश्चय विष्णु लोक पद पावहिं॥
नाम भजत अगणित अघ नाशै। विमल ज्ञान बल बुद्धि प्रकाशै॥
जिमि धन मूल धर्म अरु दाना। धर्म मूल गंगाजल पाना॥
तव गुणगुणन करत दुःख भाजत। गृहगृह संपति सुमति विराजत॥
गंगहि नेम सहित नित ध्यावत। दुर्जनहूं सज्जन पद पावत॥
बुद्धिहीन विद्या बल पावै। रोगी रोग मुक्त ह्वै जावै॥
गंगा गंगा जो नर कहहीं। भूखे नंगे कबहुं न रहहीं॥
निकसत ही मुख गंगा माई। श्रवण दाबि यम चलहिं पराई॥
महा अघिन अधमन कहं तारे। भये नरक के बन्द किवारे॥
जो नर जपै गंग शत नामा। सकल सिद्ध पूरण ह्वै कामा॥
सब सुख भोग परम पद पावहिं। आवागमन रहित ह्वै जावहिं॥
धनी मइया सुरसरि सुख दैनी। धनी-धनी तीरथ राज त्रवेणी॥
ककरा ग्राम ऋषि दुर्वासा। सुन्दरदास गंगा कर दासा॥
जो यह पढ़े गंगा चालीसा। मिलै भक्ति अविरल वागीसा॥
दोहा नित नव सुख संपति लहैं धरैं गंग का ध्यान।
अन्त समय सुरपुर बसैं सादर बैठि विमान॥
सम्वत भुज नभदिशि राम जन्म दिन चैत्र।
पूरण चालीसा किया हरि भक्तन हित नैत्र॥

शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

~श्री राधा कृपा कटाक्ष~

 श्री श्री श्री राधा भक्तानुरागी सज्जनों के प्रेमामृत रसास्वादन हेतु प्रस्तुत है श्री राधा कृपा कटाक्ष स्तोत्र तो फिर सारे सांसारिक बन्धनों से मुक्त हो कर अनन्य प्रेम लक्षणा भक्ति से अभिसिंचित हो अपने जीवन को सफल बनावें | 

               ||*|| श्री राधा कृपा कटाक्ष ||*||



1.
मुनीन्द्रवृन्दवन्दिते त्रिलोकशोकहारिणी, प्रसन्नवक्त्रपंकजे निकंजभूविलासिनी !
व्रजेन्द्रभानुनंदनी व्रजेन्द्र सूनुसंगते, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम् !!

अर्थ - मुनीन्द वृंद जिनके चरणों की वं दना करते हैं तथा जो तीनों लोकों का शोक दूर करने वाली हैं मुस्कानयुक्त प्रफुलिलत मुख कमलवाली,निकुंज भवन में विलास करनेवाली,राजा वृषभानु की राजकुमारी,श्रीब्रज राजकुमार की ह्दयेश्वरी श्रीराधिके!कब मुझे अपने कृपा कटाक्ष का पात्र बनाओगी ?

2. अशोकवृक्षवल्लरी, वितानमण्डपस्थिते, प्रवालज्वालपल्लव प्रभारूणाङि्घ्कोमले !
वराभयस्फुरत्करे प्रभूतसम्पदालये, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष -भाजनम् !!

अर्थ - अशोक की वृक्ष-लताओं से बने हुए 'लता मंदिर' में विराजमान और मूँगे अग्नि नवीन लाल पल्लवों के समान अरूण कांतियुक्त कोमल चरणोंवाली,भक्तों को अभीष्ट वरदान देनेवाली तथा अभयदान देने के लिए उत्सुक रहनेवाले कर कमलों वाली अपार ऐश्वर्य की भंङार स्वामिनी श्री राधे मुझे कब अपने कृपा कटाक्ष का अधिकारी बनाओगी ?

3. अनंगरंगमंगल प्रसंगभंगुरभ्रुवां , सुविभ्रुमं ससम्भ्रुमं दृगन्तबाणपातनैं: !
निरन्तरं वशीकृत प्रतीतनन्दनन्दने , कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम् !! 

अर्थ- प्रेम कीड़ा के रंगमंच पर मंगलमय प्रसंग में बाँकी भृकुटी करके, आश्चयर्य उत्पन्न करते हुए सहसा कटाक्ष रूपी वाणों की वर्षा से श्रीनन्दनन्दन को निरंतर बस में करनेवाली हे सरवेश्वरी! अपने कृपा कटाक्ष का पात्र मुझे कब बनाओगी ?

4. तड़ित्सुवर्णचम्पक प्रदीप्तगौरविग्रहे, मुखप्रभापरास्त-कोटिशारदेन्दुमण्ङले !
विचित्रचित्र-संचरच्चकोरशावलोचने , कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम् !!

अर्थ - बिजली,स्वर्ण तथा चम्पा के पुष्प के समान सुनहरी कांति से देदीप्यमान गोरे अंगोंवाली अपने मुखारविंद की चाँदनी से करोड़ों शरच्चंदों को जीतनेवाली, क्षण-क्षण में विचित्र चित्रों की छटा दिखानेवाले चंचल चकोर के बच्चे के सदृश विलोचनों वाली, हे जगज्जननी !क्या कभी मुझे अपने कृपाकटाक्ष का अधिकारी बनाओगी ?

5. मदोन्मदातियौवने प्रमोद मानमण्डिते, प्रियानुरागरंजिते कलाविलासपण्डिते !
अनन्यधन्यकुंजराज कामकेलिकोविदे, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम् !!

अर्थ- अपने अत्यंत रूप-यौवन के मद से मत रहनेवाली आनंद भरा मन ही जिनका सवोतम भूषण है,प्रियतम के अनुराग रंगी हुई, विलास की प्रवीण अनन्य भक्त गोपिकाओं से धन्य हुए निकुंजराज्य के प्रेम कौतुक विघा की विदुषी श्रीराधिके! मुझे अपने कृपा कटाक्ष का पात्र कब बनाओगी ?

6. अशेषहावभाव धीरहीर हार भूषिते , प्रभूतशातकुम्भकुम्भ कुम्भिकुम्भसुस्तनी !
प्रशस्तमंदहास्यचूर्णपूर्णसौख्यसागरे, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम् !! 

अर्थ- संपूर्ण हाव-भावरूपी श्रृंगारों तथा धीरता एंव हीरे की हारों से विभूषित अंगोंवाली शुद्ध स्वर्ण के कलशों के समान एंव गयनि्दनी के गंडस्थल के समान मनोहर पयोंधरोंवाली प्रशांसित मंद मुस्कान से परिपूण आंनद सिंधु के सदृश श्रीराधे !क्या मुझे कभी अपनी कृपा दृषि्ट से कृतार्थ करोगी ?

7. मृणालबालवल्लरी तरंगरंगदोर्लते , लताग्रलास्यलोलनील लोचनावलोकने
ललल्लुलन्मिलन्मनोज्ञ मुग्ध मोहनाश्रये , कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्!! 

अर्थ- जल की लहरों से हिलते हुए कमल के नवीन नाल के समान जिनकी कोमल भुजाएँ हैं पवन से जैसे लता का एक अग भाग नाचता है, ऐसे चंचल लोंचनों से नीलिमा झलकाते हुए जो अवलोकन करती हैं ललचाने वाले,लुभाकर पीछे-पीछे फिरनेवाले,मिलन में मन को हरनेवाले मुग्ध मनमोहन को आश्रय देनेवाली,हे वृषभानु किशोरी! कब अपने कृपा अवलोकन द्वारा मुझे माया जाल से छुड़ाओगी ?

8. सुवर्णमलिकांचितेत्रिरेखकुम्बेकण्ठगे,त्रिसूत्रमंगलीगुण त्रिरत्नदीप्तिदीधिति !
सलोलनीलकुन्तले प्रसुन्गुच्छगुम्फिते, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम् !!

अर्थ - स्वर्ण की मालाओ से बिभूषित और तीन रेखाओ वाले शंख की छटा सदृश सुन्दर कंठ वाली और तीन जिनकेकंठ में मंगल मय त्रिसूत्र बंधा हुआ है, जिनमे तीन रंग के रत्नों का भूषण लटक रहा है, रत्नों से देदीप्यमान किरणे निकल रही है. दिव्य पुष्पों के गुच्छों से गूँथे हुए काले घुँघराले लहराते केशोवाली हें सर्वेश्वरी! श्री राधे कब मुझे अपनी कृपा द्रष्टि से देखकर अपने चरण कमलों के दर्शन का अधिकारी बनाओगी ?
9. नितंबोंबिम्बलम्बमान पुष्पमेखलागुण, प्रशस्रत्नकिंकणी कलापमध्यमंजुले !
करीन्द्रशुण्डदण्डिका वरोहसोभगोरुके ,कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्!! 

अर्थ - कटिमंडल में माणिमय किंकिणी सुशोभित है जिसमे सोने के फूल रत्नों से जड़े हुए लटक रहे है और उसकी प्रशसनीय झंकार अत्यंत मनोहर गजेन्द्र की सूंड के समान जिनकी जंघाए अत्यंत सुन्दर है ऐसी श्री राधे मुझ पर कृपा करके कब संसार सागर से पार लगाओगी ?

10. अनेकमन्त्रनादमंजु नूपुरारवस्खलत् , समाजराजहंसवंश निक्वणातिगौरवे !
विलोलहेमवल्लरी विडम्बीचारूचंक्रमे , कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम् !!

अर्थ - अनेकों वेदमंत्रो की सुमधुर झनकार करनेवाले स्वर्णमय नूपुर चरणों में ऐसे प्रतीत होते हैं! मानो मनोहर हसों की पंकि्त गूँज रही हो, चलते समय अंगों की छवि है! ऐसी लगती मानो स्वर्णलता लहरा रही हो ! हे जगदीश्वरी श्रीराधे!क्या कभी मैं आपके चरण-कमलों का दास हो सकूँगा ?

11. अनन्तकोटिविष्णुलोक - नम्रपद्ममजार्चीते , हिमाद्रिजा पुलोमजा-विरंचिजावरप्रदे !
अपारसिद्धिवृद्धिदिग्ध - सत्पदांगुलीनखे , कदा करिष्यसीह मां कृपा -कटाक्ष भाजनम् !!

अर्थ - अनंत कोटि बैकुंठो की स्वामिनी श्रीलक्ष्मी जी आपकी पूजा करती हैं तथा श्रीपार्वती जी, इन्द्राणी जी और सरस्वती जी ने भी आपकी पूजा कर वरदान पाया है ! आपके चरण-कमलों की एक उंगली के नख का भी ध्यान करने मात्र से अपार सिद्धि का समूह बढ़ने लगता है! हे करूणामयी! आप कब मुझ को वात्सल्य-रस भरी दृषि्ट से देखोगी ?
12. मखेश्वरी क्रियेश्वरी स्वधेश्वरी सुरेश्वरी , त्रिवेदभारतीयश्वरी प्रमाणशासनेश्वरी ! 
रमेश्वरी क्षमेश्वरी प्रमोदकाननेश्वरी , ब्रजेश्वरी ब्रजाधिपे श्रीराधिके नमोस्तुते !! 

अर्थ- सब प्रकार के यज्ञों की आप स्वामिनी हैं! संपूर्ण क्रियाओं की स्वामिनी,स्वधादेवी की स्वामिनी सब देवताओं की [ॠग,यजु ,साम] स्वामिनी प्रमाण शासन शास्त्र की स्वामिनी, श्रीरमा देवी की स्वामिनी , श्रीक्षमा देवी की स्वामिनी और [अयोध्या के] प्रमोद वन की स्वामिनी[श्रीसीता ] आप ही हैं हे राधिके ! कब मुझे कृपा कर अपनी शरण में स्वीकार कर पराभकि्त प्रदान करोगी? हे ब्रजेश्वरी!हे ब्रज की अधीष्ठात्री श्रीराधिके! आपको मेरा बारंबार प्रणाम है ?

13. इतीदमद्भुतस्तवं निशम्य भानुनंदनी , करोतु संततं जनं कृपाकटाक्ष -भाजनम् ! 
भवेत्तदैव संचित-त्रिरूपकर्मनाशनं , लभेत्तदाब्रजेन्द्रसूनु -मण्डलप्रवेशनम् !! 

अर्थ- हे वृषाभानुनंदिनी! मेरी इस विचित्र स्तुति को सुनकर सर्वदा के लिए मुझ दास को अपनी दयादृषि्ट का अधिकारी बना लो बस आपकी दया दृषि्ट का अधिकारी बना लो बस आपकी दया ही से तो मेरे [प्रारब्ध संचित और क्रियामाण] इन तीनों प्रकार के कर्मों का नाश हो जाएगा और उसी क्षण श्रीकृष्ण के नित्य मंडल[दिव्यधाम की लीलाओं में] सदा के लिए प्रवेश हो जाएगा ?

14. राकायां च सिताष्टम्यां दशम्यां च विशुद्धया ,एकादश्यां त्रयोदश्यां यः पठेत्साधकः सुधी ! 
यं यं कामयते कामं तं तं प्राप्नोति साधकः, राधाकृपाकटाक्षेण भक्ति : स्यात् प्रेमलक्षणा !! 

अर्थ - पूर्णिमा के दिन,शुक्लपक्ष की अष्टमी या दशमी को तथा दोनों की एकादशी और त्रयोदशी को जो शुद्ध बुद्धिवाला भक्त इस-स्त्रोत का पाठ करेगा वह जो भावना करेगा वही प्राप्त होगा, अन्यथा निष्काम भावना से पाठ करने पर श्रीराधाजी की दयादृष्टि से पराभक्ति प्राप्त होगी ?

                     "जय जय श्री राधे"

|| श्री रुद्राष्टकम ||


|| श्री रुद्राष्टकम ||
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं। विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपं।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं। चिदाकाशमाकाशवासं भजे5हं॥1
निराकारमोंकारमूलं तुरीयं। गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं।
करालं महाकाल कालं कृपालं। गुणागार संसारपारं नतो5हं॥2
तुषाराद्रि संकाश गौरं गम्भीरं। मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरं।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा। लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजंगा॥3
चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं। प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालं।
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं। प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि॥4
प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं। अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशम्।
त्रय: शूल निर्मूलनं शूलपाणिं। भजे5हं भवानीपतिं भावगम्यं॥5
कलातीत कल्याण कल्पांतकारी। सदासज्जनानन्ददाता पुरारी।
चिदानन्द संदोह मोहापहारी। प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी॥6
न यावद् उमानाथ पादारविंदं। भजंतीह लोके परे वा नराणां।
न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं। प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं॥7
न जानामि योगं जपं नैव पूजां। नतो5हं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यं।
जराजन्म दु:खौघ तातप्यमानं। प्रभो पाहि आपन्न्मामीश शंभो।
रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये।
ये पठन्ति नरा भक्तया तेषां शम्भु: प्रसीदति॥

अर्थ :- हे मोक्षस्वरूप, विभु, व्यापक, ब्रह्म और वेदस्वरूप, ईशान दिशा के ईश्वर तथा सबके स्वामी श्रीशिवजी! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। निजस्वरूप में स्थित (अर्थात मायादिरहित), [मायिक] गुणों से रहित, भेदरहित, इच्छारहित, चेतन आकाशरूप एवं आकाश को ही वस्त्ररूप में धारण करने वाले दिगम्बर [अथवा आकाश को भी आच्छादित करने वाले] आपको मैं भजता हूँ॥1॥ निराकार, ओङ्कार के मूल, तुरीय (तीनों गणों से अतीत), वाणी, ज्ञान और इन्द्रियों से परे, कैलासपति, विकराल, महाकाल के भी काल, कृपालु, गुणों के धाम, संसार से परे आप परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ॥2॥ जो हिमाचल के समान गौरवर्ण तथा गम्भीर हैं, जिनके शरीर में करोडों कामदेवों की ज्योति एवं शोभा है, जिनके सिर पर सुन्दर नदी गङ्गाजी विराजमान हैं, जिनके ललाटपर बाल चन्द्रमा (द्वितीया का चन्द्रमा) और गले में सर्प सुशोभित हैं॥3॥ जिनके कानों में कुण्डल हिल रहे हैं, सुन्दर भ्रुकुटी और विशाल नेत्र हैं; जो प्रसन्नमुख, नीलकण्ठ और दयालु हैं; सिंहचर्म का वस्त्र धारण किये और मुण्डमाला पहने हैं; उन सबके प्यारे और सबके नाथ [कल्याण करने वाले] श्रीशङ्करजी को मैं भजता हूँ॥4॥ प्रचण्ड (रुद्ररूप), श्रेष्ठ, तेजस्वी, परमेश्वर, अखण्ड, अजन्मा, करोडों सूर्यो के समान प्रकाश वाले, तीनों प्रकार के शूलों (दु:खों) को निर्मूल करने वाले, हाथ में त्रिशूल धारण किये, भाव (प्रेम) के द्वारा प्राप्त होने वाले भवानी के पति श्रीशङ्करजी को मैं भजता हूँ॥5॥ कलाओं से परे, कल्याणस्वरूप, कल्पका अन्त (प्रलय) करने वाले, सज्जनों को सदा आनन्द देने वाले, त्रिपुर के शत्रु सच्चिदानन्दघन, मोह को हरने वाले, मन को मथ डालने वाले कामदेव के शत्रु, हे प्रभो! प्रसन्न होइये, प्रसन्न होइये॥6॥ जबतक, पार्वती के पति आपके चरणकमलों को मनुष्य नहीं भजते, तबतक उन्हें न तो इहलोक और परलोक में सुख-शान्ति मिलती है और न उनके तापों का नाश होता है। अत: हे समस्त जीवों के अंदर (हृदय में) निवास करने वाले प्रभो! प्रसन्न होइये॥7॥ मैं न तो योग जानता हूँ, न जप और न पूजा ही। हे शम्भो! मैं तो सदा-सर्वदा आपको ही नमस्कार करता हूँ। हे प्रभो! बुढापा तथा जन्म (मृत्यु) के दु:खसमूहों से जलते हुए मुझ दुखी की दु:ख से रक्षा कीजिये। हे ईश्वर! हे शम्भो! मैं आपको नमस्कार करता हूँ॥8॥ भगवान रुद्र की स्तुति का यह अष्टक उन शङ्करजी की तुष्टि (प्रसन्नता) के लिए ब्राह्मण द्वारा कहा गया। जो मनुष्य इसे भक्तिपूर्वक पढते हैं, उन पर भगवान् शम्भु प्रसन्न होते हैं॥9

॥दारिद्र्य दहन शिवस्तोत्रं॥


॥दारिद्र्य दहन शिवस्तोत्रं॥


विश्वेश्वराय नरकार्णव तारणाय कणामृताय शशिशेखरधारणाय।
कर्पूरकान्तिधवलाय जटाधराय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय॥१॥

गौरीप्रियाय रजनीशकलाधराय कालान्तकाय भुजगाधिपकङ्कणाय।
गंगाधराय गजराजविमर्दनाय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय॥२॥

भक्तिप्रियाय भवरोगभयापहाय उग्राय दुर्गभवसागरतारणाय।
ज्योतिर्मयाय गुणनामसुनृत्यकाय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय॥३॥

चर्मम्बराय शवभस्मविलेपनाय भालेक्षणाय मणिकुण्डलमण्डिताय।
मंझीरपादयुगलाय जटाधराय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय॥४॥

पञ्चाननाय फणिराजविभूषणाय हेमांशुकाय भुवनत्रयमण्डिताय।
आनन्दभूमिवरदाय तमोमयाय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय॥५॥

भानुप्रियाय भवसागरतारणाय कालान्तकाय कमलासनपूजिताय।
नेत्रत्रयाय शुभलक्षण लक्षिताय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय॥६॥

रामप्रियाय रघुनाथवरप्रदाय नागप्रियाय नरकार्णवतारणाय।
पुण्येषु पुण्यभरिताय सुरार्चिताय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय॥७॥

मुक्तेश्वराय फलदाय गणेश्वराय गीतप्रियाय वृषभेश्वरवाहनाय।
मातङ्गचर्मवसनाय महेश्वराय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय॥८॥

वसिष्ठेन कृतं स्तोत्रं सर्वरोगनिवारणं। सर्वसंपत्करं शीघ्रं पुत्रपौत्रादिवर्धनम्।
त्रिसंध्यं यः पठेन्नित्यं स हि स्वर्गमवाप्नुयात्॥९॥


॥इति वसिष्ठ विरचितं दारिद्र्यदहनशिवस्तोत्रं सम्पूर्णम्॥

फल: एसा शास्रोक्त वचन हैं जो व्यक्ति श्रद्धा भाव से तीनोकाल सुबह, संध्या एवं रात्री के समय दारिद्र्य दहन शिवस्तोत्रं का पाठ करते उनके दुख एवं सर्व रोग का निवारण होकर उसे, संपत्ति एवं संतान लाभ प्राप्त होता हैं।

बुधवार, 18 दिसंबर 2013

|| श्री द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग स्तोत्रम् ||

|| श्री द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग स्तोत्रम् ||

सौराष्ट्रदेशे विशदेऽतिरम्ये ज्योतिर्मयं चन्द्रकलावतंसम् । भक्तिप्रदानाय कृपावतीर्णं तं सोमनाथं शरणं प्रपद्ये ।। १।।
श्रीशैलशृङ्गे विबुधातिसङ्गे तुलाद्रितुङ्गेऽपि मुदा वसन्तम् । तमर्जुनं मल्लिकपूर्वमेकं नमामि संसारसमुद्रसेतुम् ।। २।।
अवन्तिकायां विहितावतारं मुक्तिप्रदानाय च सज्जनानाम् । अकालमृत्योः परिरक्षणार्थं वन्दे महाकालमहासुरेशम् ।। ३।।
कावेरिकानर्मदयोः पवित्रे समागमे सज्जनतारणाय । सदैवमान्धातृपुरे वसन्तमोङ्कारमीशं शिवमेकमीडे ।। ४।।
पूर्वोत्तरे प्रज्वलिकानिधाने सदा वसन्तं गिरिजासमेतम् । सुरासुराराधितपादपद्मं श्रीवैद्यनाथं तमहं नमामि ।। ५।।
याम्ये सदङ्गे नगरेऽतिरम्ये विभूषिताङ्गं विविधैश्च भोगैः । सद्भक्तिमुक्तिप्रदमीशमेकं श्रीनागनाथं शरणं प्रपद्ये ।। ६।।
महाद्रिपार्श्वे च तटे रमन्तं सम्पूज्यमानं सततं मुनीन्द्रैः । सुरासुरैर्यक्ष महोरगाढ्यैः केदारमीशं शिवमेकमीडे ।। ७।।
सह्याद्रिशीर्षे विमले वसन्तं गोदावरितीरपवित्रदेशे । यद्धर्शनात्पातकमाशु नाशं प्रयाति तं त्र्यम्बकमीशमीडे ।। ८।।
सुताम्रपर्णीजलराशियोगे निबध्य सेतुं विशिखैरसंख्यैः । श्रीरामचन्द्रेण समर्पितं तं रामेश्वराख्यं नियतं नमामि ।। ९।।
यं डाकिनिशाकिनिकासमाजे निषेव्यमाणं पिशिताशनैश्च । सदैव भीमादिपदप्रसिद्दं तं शङ्करं भक्तहितं नमामि ।। १०।।
सानन्दमानन्दवने वसन्तमानन्दकन्दं हतपापवृन्दम् । वाराणसीनाथमनाथनाथं श्रीविश्वनाथं शरणं प्रपद्ये ।। ११।।
इलापुरे रम्यविशालकेऽस्मिन् समुल्लसन्तं च जगद्वरेण्यम् । वन्दे महोदारतरस्वभावं घृष्णेश्वराख्यं शरणम् प्रपद्ये ।। १२।।
ज्योतिर्मयद्वादशलिङ्गकानां शिवात्मनां प्रोक्तमिदं क्रमेण । स्तोत्रं पठित्वा मनुजोऽतिभक्त्या फलं तदालोक्य निजं भजेच्च ।।
।। इति द्वादश ज्योतिर्लिङ्गस्तोत्रं संपूर्णम् ।।

|| श्री गजेन्द्र मोक्ष ||

विशेष कष्टों से मुक्ति हेतु श्री गजेन्द्र मोक्ष का पाठ करें |
 || श्री गजेन्द्र मोक्ष ||

श्री शुक उवाच
एवं व्यवसितो बुद्धया समाधाय मनो हृदि ।
जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम् ॥1
गजेन्द्र उवाच -
ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम् ।
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि ॥2
यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयम्|
योऽस्मात्परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम्।।३।।
यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं क्वचिद्विभातं क्व च तत्तिरोहितम्।
अविद्धदृक् साक्ष्युभयं तदीक्षते स आत्ममूलोऽवतु मां परात्परः।।४।।
कालेन पञ्चत्वमितेषु कृत्स्नशो लोकेषु पालेषु च सर्वहेतुषु।
तमस्तदाऽऽसीद् गहनं गभीरं यस्तस्य पारेऽभिविराजते विभुः।।५।।
न यस्य देवा ऋषयः पदं विदुर्जन्तुः पुनः कोऽर्हति गन्तुमीरितुम्।
यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो दुरत्ययानुक्रमणः स मावतु।।६।।
दिदृक्षवो यस्य पदं सुमंगलं विमुक्तसंगा मुनयः सुसाधवः।
चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने भूतात्मभूताः सुहृदः स मे गतिः।।७।।
न विद्यते यस्य च जन्म कर्म वा न नामरुपे गुणदोष एव वा।
तथापि लोकाप्ययसम्भवाय यः स्वमायया यः तान्यनुकालमृच्छति।।८।।
तस्मै नमः परेशाय ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये।
अरुपायोरुरुपाय नम आश्चर्यकर्मणे।।९।।
नम आत्मप्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने।
नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि।।१०।।
सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्विचता
नमः कैवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे।।११।।
नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुणधर्मिणे।
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च।।१२।।
क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे।
पुरुषायात्ममूलाय मूलप्रकृतये नमः।।१३।।
सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे।
असताच्छाययोक्ताय सदाभासाय ते नमः।।१४।।
नमो नमस्तेऽखिलकारणाय निष्कारणायाद्भुतकारणाय।
सर्वागमाम्नायमहार्णवाय नमोऽपवर्गाय परायणाय।।१५।।
गुणारणिच्छन्नचिदुष्मपाय तत्क्षोभविस्फूर्जितमानसाय।
नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागमस्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि।।१६।।
मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोऽलयाय।
स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीतप्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते।।१७।।
आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तैर्दुष्प्रापणाय गुणसंगविवर्जिताय।
मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभाविताय ज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय।।१८।।
यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति।
किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययं करोतु मेऽदभ्रदयो विमोक्षणम्।।१९।।
एकान्तिनो यस्य न कञ्चनार्थं वाञ्छन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः।
अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलं गायन्त आनन्दसमुद्रमग्नाः।।२०।।
तमक्षरं ब्रह्म परं परेशमव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम्।
अतीन्द्रियं सूक्ष्ममिवातिदूरमनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे।।२१।।
यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः।
नामरुपविभेदेन फलव्या च कलया कृताः।।२२।।
यथार्चिषोऽग्नेः सवितुर्गभस्तयो निर्यान्ति संयान्त्यसकृत् स्वरोचिषः।
तथा यतोऽयं गुणसम्प्रवाहो बुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः।।२३।।
स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यङ् न स्त्री न षण्ढो न पुमान् न जन्तुः।
नायं गुणः कर्म न सन्न चासन् निषेधशेषो जयतादशेषः।।२४।।
जिजीविषे नाहमिहामुया किमन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या।
इच्छामि कालेन न यस्य विप्लवस्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम्।।२५।।
सोऽहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम्।
विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोऽस्मि परं पदम्।।२६।।
योगरन्धितकर्माणो हृदि योगविभाविते।
योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोऽस्म्यहम्।।२७।।
नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेगशक्तित्रयायाखिलधीगुणाय।
प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तये कदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने।।२८।।
नायं वेद स्वमात्मानं यच्छक्त्याहंधिया हतम्।
तं दुरत्ययामाहात्म्यं भगवन्तमितोऽस्म्यहम्।।२९।।
श्री शुक उवाच
एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषं ब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमानाः।
नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वात् तत्राखिलामरमयो हरिराविरासीत्।।३०।।
तं तद्वदार्त्तमुपलभ्य जगन्निवासः स्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भिः।
छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमानश्चक्रायुधोऽभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः।।३१।।
सोऽन्तस्सरस्युरुबलेन गृहीत आर्त्तो दृष्ट्वा गरुत्मति हरिं ख उपात्तचक्रम्।
उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छ्रान्नारायणाखिलगुरो भगवन् नमस्ते।।३२।।
तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्य सग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार।
ग्राहाद् विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रं सम्पश्यतां हरिमूमुचदुस्त्रियाणाम्।।३३।।

~सरल वास्तु दोष नाशक उपाय अपनायें और जीवन खुशहाल बनायें ~


* ईशान कोण (उत्तर-पूर्व) को हमेशा साफ-सुथरा रखें ताकि सूर्य की जीवनदायिनी किरणें घर में प्रवेश कर सकें।

* घर में तुलसी का पौधा अवश्य लगाएं। इससे परिवार में प्रेम बढ़ता है। तुलसी के पत्तों के नियमित सेवन से कई रोगों से मुक्ति मिलती है।
* भोजन बनाते समय गृहिणी का हमेशा मुख पूर्व की ओर होना चाहिए। इससे भोजन सुपाच्य और स्वादिष्ट बनता है। साथ ही पूर्व की ओर मुख करके भोजन करने से व्यक्ति की पाचन शक्ति में वृद्धि होती है।
* जो बच्चे में पढ़ने में कमजोर हैं, उन्हें पूर्व की ओर मुख करके अध्ययन करना चाहिए। इससे उन्हें लाभ होगा।
*जिन कन्याओं के विवाह में विलम्ब हो रहा है, उन्हें वायव्य कोण (उत्तर-पश्चिम) के कमरे में रहना चाहिए। इससे उनका विवाह अच्छे और समृद्ध परिवार में होगा।
* रात को सोते वक्त व्यक्ति का सिर हमेशा दक्षिण दिशा में होना चाहिए। कभी भी उत्तर दिशा की ओर सिर करके नहीं सोना चाहिए। इससे अनिद्रा रोग होने की संभावना होती है साथ ही व्यक्ति की पाचन शक्ति पर विपरीत असर पड़ता है।
* घर में कभी-कभी नमक के पानी से पोंछा लगाना चाहिए। इससे नकारात्मक ऊर्जा नष्ट होती है।
*घर से निकलते समय माता-पिता को विधिवत (झुककर) प्रणाम करना चाहिए। इससे बृहस्पति और बुध ठीक होते हैं। इससे व्यक्ति के जटिल से जटिल काम बन जाते हैं।
* घर का प्रवेश द्वार एकदम स्वच्छ होना चाहिए। प्रवेश द्वार जितना स्वच्छ होगा घर में लक्ष्मी आने की संभावना उतनी ही बढ़ जाती है।
* प्रवेश द्वार के आगे स्वस्तिक, , शुभ-लाभ जैसे मांगलिक चिह्नों को उपयोग अवश्य करें।
* प्रवेश द्वार पर कभी ‍भी बिना सोचे-समझे गणेशजी न लगाएं। दक्षिण या उत्तरमुखी घर के द्वार पर ही गणेशजी लगाएं।
* विवाह पत्रिका कभी भूलकर भी न फाड़े क्योंकि इससे व्यक्ति को गुरु और मंगल का दोष लग जाता है।
* घर में देवी-देवताओं की ज्यादा तस्वीरें न रखें और शयन कक्ष में तो बिलकुल भी नहीं।
* शयन कक्ष में टेलीविजन कदापि न रखें क्योंकि इससे शारीरिक क्षमताओं पर विपरीत असर पड़ता है।
* दफ्तर में काम करते समय उत्तर-पूर्व की ओर मुख करके बैठें तो शुभ रहेगा, जबकि बॉस (कार्यालय प्रमुख) का केबिन नैऋत्य कोण में होना चाहिए।
* घर के भीतर शंख अवश्य रखें। इससे बजाने से 500 मीटर के दायरे में रोगाणु नष्ट होते हैं।
* पक्षियों को दाना खिलाने और गाय को रोटी और चारा खिलाने से गृह दोष का निवारण होता है