शनिवार, 31 दिसंबर 2016

types of ‘ CHuDAMaDI ‘(Hair Types?



//Can you tell me the types of ‘ CHADAMUDI ‘(Hair Types?)

1. Providing elaborate, graceful and attractive hairstyles (Kesha vinyasa or kesha-alankara), which besides enhancing the beauty of the sculpture would also bring out the status, the nature and the attribute of the subject, received a great deal of attention.

This was one area along with ornamentation (alamkara) where the shilpis could give wings to their imagination and enterprise; and exhibit originality.
Some Shipa texts carry a chapter usually titled Mauli lakshanam, but there is no comprehensive list of hair styles. Some names are not supported by illustrations; and therefore we do not know what those style-names imply.
And in some cases the names of the headgears (kirita or mukuta) have got mixed up with the names of hair styles.
The following are some of those Kesha – vinyasas, so far as I know .This is not exhaustive.
(1). Jata-mukuta: A hair-do; hair arranged in long braids and then tied around. It is raised into conical form resembling a crown. The height of the jata-mukuta would be about 1 ½ times the length of the face.(Shiva , Brahma)
(2). Jata-bhara: long strands of hair let lose flowing down on to the shoulders, around the ears. It could be either neatly combed stylishly and decoratively; or be just disheveled.(Shiva , Dakshinamurthy)
(3). Jata-mandala: Long strands of thick hair woven into three braids are wound in circular forms and held behind on the neck like a disc or a fan. Its other variation is: some braids are let flowing on to shoulder and back. (Shiva)
(4). Sarpa-mauli: Thick strands of hair are woven (pigtailed) to look like snakes; and, tied up and arranged turban-like. The hair-do would look like a turban made of snakes.(Shiva)
(5). Jata-bandha: Strands of hair made rope-like are wound into ball-shape or spindle-like and placed atop the head. (Rishis, Devas, Narada)
(6). Vikirna-Jata-bandha: Strands of hair made rope-like are spread out to flow on the back, on the shoulders. When the person dances or spins around, the hair- do spreads and whirls in the air. (Nataraja)
(7). Agni-kesha: strands of hair either loose or pigtailed spread out horizontally like the tongues of a spreading flame. (Agni, shakthi, aggressive characters)
(8). Kesha –Bandha: The strands of hair are neatly combed and arranged into various conical forms of a series of diminishing tiers and placed in position by tying up the arrangement securely.
There are varieties of decorative and stylish hair arrangements under this category. In most cases the conical hair-do is arranged to look like a mounted crown and decorated with ornaments. There are countless variations. (Devis and Queens).
(9). Shirastraka: strands of hair are neatly combed, made into number of bunches and each tied into number of small knots to look like rows of water-bubbles. The ends of each bunch are tied into small ball-like knots; and arranged on top of the head. (The Buddha)
(10). Kuntala: Long locks of hair neatly combed, parted three-ways and tied into decorative shapes or ball-like, mounted on top of head either to one side or to the middle of the head.
The ball-like arrangement when it is to one side of the head is just over the over the ear .The hair-do is well ornamented. (Andal, Sathyabhama, Balakrishna)
(11). Dhummila: collecting the hair, tying up the bunch into knots of various shapes. Bunched knot is usually placed behind. It is usually as broad as the person’s face ; and wound into three or four rounds. (Devis, Queens)
(12). Alakacuda: Specially suited for curly hair. It could be used in depictions of children, women or even men. Hair is neatly parted in the middle and made into two bunches one on the right and the other on the left.
Then the bunch on the left is brought over to the right; and similarly the bunch on the left is brought to the left. They then are together tied into ball shapes; and held behind or to the side of the head.
Tiny wisps of hair are arranged around the face, like bees around a flower. This depiction is extensively used.(women in queens quarters, and other general use)

जगजननी माँ कौन



, सीता माँ को साष्टांग वन्दन करके हनुमान जी ने कहा ऐसी दया तो मैंने श्री रामजी में भी देखि नहीं, श्री राम दयालु है, यह बात सत्य है, परन्तु ऐसी दया मैंने जगत में कही देखी नहीं, जगजननी! आपमें ही यह दया मैंने देखी , माँ! तुम जगन्माता हो, इसलिए तुमको सब पर दया आती है .
श्री सीता जी दया की , प्रेम की मूर्ति है, उनका वर्णन कौन कर सकता है, उनको तो सब पर दया आती है, वे जगत की माँ है
रामजी की माँ तो कौशल्या हो सकती है, परन्तु सीताजी की माँ कौन हो सकती है, श्री सीताजी की तो कोई माँ नहीं, इनका कोई पिता भी नहीं, यह सबकी माँ है, सर्वेश्वरी , सर्वश्रेष्ट है.
जगजननी की माँ कौन हो सकती है? उनकी माँ कोई हो सकती नहीं, श्री सीता जी का जनम दिव्या है, लय दिव्या है, श्री सीता माँ धरती से बाहर प्रकटी और धरती में ही लीन हो गई,  बोलिए सीता माता की जय---बोलिए मेरी माँ वैष्णो रानी की जय,,बोलिए मेरी माँ राज रानी की जय,जय माता दी,जय श्री राम.जय श्री हनुमान ,,



पूजन श्री अंजनी कुमार का !
शिवस्वरूप मारुतनंदन केसरी सुअन कलियुग कुठार का |पूजन श्री अंजनी कुमार का !
हिय में राम सीय नित राखत ,मुख सों राम नाम गुण भाखत |
सुमधुर भक्ति प्रेम रस चाखत मंगलकर मंगलाकार का ||पूजन श्री अंजनी कुमार का !
अतुलित बल,विस्मृत बल पौरुष, दहन दनुज वन,हित दावानल |
ज्ञान मुकुट मणि,सकल पूर्ण गुण ,मंजु भूमि ,शुभ सदाचार का ||पूजन श्री अंजनी कुमार का !
मन इन्द्रिय विजयी ,विशालमति,कला निधान , निपुण गायक अति |
छंद व्याकरण शास्त्र अमित गति,राम भक्त अतिशय उदार का ||पूजन श्री अंजनी कुमार का !
पावन परम सुभक्ति प्रदायक ,शरणागत को सब सुख दायक |
विजयीवानर सेना नायक ,सुगति पोत के कर्णधार का ||पूजन श्री अंजनी कुमार का !!!
जय जय हनुमान ….
दुनियां में देव हजारों है, बजरंग बली का क्या कहना,
इनकी शक्ति का क्या कहना, इनकी भक्ति का क्या कहना, जय जय हनुमान
ये सात समुन्दर लाँघ गये, ये गढ़ लंका में कूद गये, जय हनुमान ..जय जय हनुमान ….
रावण को डराना क्या कहना, लंका को जलाना क्या कहना,जय हनुमान जय जय हनुमान
जब लक्ष्मण जी बेहोश हुए, संजीवन बूंटी लाने गये,जय हनुमान जय जय हनुमान ….
पर्वत को उठाना क्या कहना, लक्ष्मण को जिलाना क्या कहना,जय हनुमान जय जय हनुमान …..

 
मन्त्रात्मकं श्रीमारुतिस्तोत्रं

ॐ नमो वायुपुत्राय भीमरूपाय धीमते |
नमस्ते रामदूताय कामरूपाय श्रीमते ||
मोहशोकविनाशाय सीताशोकविनाशिने |
भग्नाशोकवनायास्तु दग्धलङ्काय वाग्मिने ||
गतिनिर्जितवाताय लक्ष्मणप्राणदाय च |
वनौकसां वरिष्ठाय वशिने वनवासिने ||
तत्वज्ञानसुधासिन्धुनिमग्नाय महीयसे|
आञ्जनेयाय शूराय सुग्रीवसचिवाय ते ||
जन्ममृत्युभयघ्नाय सर्वक्लेशहराय च |
नेदिष्ठाय प्रेतभूतपिशाचभयहारिणे ||
यातनानाशनायास्तु नमो मर्कटरूपिणे|
यक्षराक्षसशार्दूलसर्पवृश्चिकभीहते ||
महाबलाय वीराय चिरंजीविन उद्धते |
हारिणे वज्र देहाय चोल्लन्घितमहाब्धये ॥७
बलिनामग्रगण्याय नमो नः पाहि मारुते |
लाभदोऽसि तवमेवाशु हनुमन राक्षसान्तक ॥८
यशो जयं च मे देहि शत्रून नाशय नाशय |
स्वाश्रिता नाम भयदं य एवं स्तौति मारुतिं ॥
हानिः कुतौ भवेत्तस्य सर्वत्र विजयी भवेत् ॥9
 
हनुमान जी द्वारा माँ सीता की स्तुति :-

जानकि त्वाम् नमस्यामि सर्वपापप्रणाशिनीम् ॥
दारिद्र्यरणसन्हर्त्री भक्तानामिष्टदायिनीम् ॥
विदेहराजतनयां राघवानन्दकारिणीम ॥
भूमेर्दुहितरं विद्यां नमामि प्रकृतिं शिवाम् ॥
पौलस्त्यैश्वर्यसन्हर्त्री भक्ताभीष्टाम् सरस्वतीम् ॥
पतिव्रताधुरीणां त्वाम् नमामि जनकात्मजां ॥
अनुग्रहपरामृद्धिमनघां हरिवल्लभाम ॥
आत्मविद्यां त्रयीरूपामुमारूपां नमाम्यहं ॥
प्रसादाभिमुखीम् लक्ष्मीं क्षीराब्धितनयां शुभां ॥
नमामि चन्द्रभगिनीम् सीताम् सर्वाङ्गसुन्दरीम् ॥
नमामि धर्मनिलयां करुणां वेदमातरं ॥
पद्मालयां पद्महस्तां विष्णु वक्षः स्थलालयां ॥
नमामि चन्द्रनिलयां सीतां चन्द्रनिभाननां ॥
आल्हादरूपिणीम् सिद्धिं शिवाम् शिवकरीं सतीम् ॥
नमामि विश्वजननीम् रामचन्द्रेष्टवल्लभां ॥
सीतां सर्वानवद्यान्गीम् भजामि सततं हृदा ॥ (स्कन्द पुराण ४६/५०-५७)
जो मनुष्य वायुपुत्र हनुमान द्वारा वर्णित श्री राम और सीताजी के इन पाप नाशक स्तोत्रों का प्रतिदिन पाठ करता है , वह सदा मनोवांछित महान एश्वर्य का उपभोग करता है |
श्री सीता माता प्रेम की मूर्ति है. दया की समुंदर है. रामायण के अरण्यकांड में जयंत का प्रसंग आता है. जयंत ने अपराध श्री सीता माँ का ही किया परन्तु माताजी को उस पर दया आई, संत एसा मानते है की जयंत का अपराध अक्षम्य है, क्षमा करने लायक नहीं.
रामजी जयंत को मारने के लिए तैयार हुए परन्तु सीताजी को दया आई, माताजी उसको क्षमा कर देती है. इतना ही नहीं रामजी से विनती करती है के इसे क्षमा करो

कुण्डलिनी जागरण

मेरुदंड के चक्रों पर बीज मन्त्रों से मानसिक जाप की विधि:
सीधे बैठकर ध्यान भ्रूमध्य पर रखें।
गुदा का तनिक संकुचन कर मूलाधार पर जाप करें — “लं
तनिक ऊपर उठाकर स्वाधिष्ठान पर — “वं
मणिपुर पर रं
अनाहत पर — “यं
विशुद्धि पर — “हं
आज्ञा पर — “
सहस्त्रार पर कुछ अधिक जोर से — “
पल भर रुककर विपरीत क्रम से जाप करते हुए नीछे आइये।
पल भर रुकिए और इस प्रक्रिया को सहज रूप से जितनी बार कर सकते हैं कीजिये।
बीज मन्त्रों के जाप में कठिनाई हो तो इनके स्थान पर का जाप कर सकते हैं।
इस जाप के समय दृष्टी भ्रूमध्य पर ही रहे जाप के उपरांत शांत होकर बैठ जाइए और खूब देर तक ॐ की ध्वनि को सुनते रहें। खूब देर शांत होकर बैठें।इन बीज मन्त्रों के जाप से सूक्ष्म शक्तियों का जागरण होता है।
और राम्दोनों एक ही हैं।संस्कृत व्याकरण के अनुसार राम् और ॐ दोनों में कोई अंतर नहीं हैं। रामनाम तारक मंत्र है। हर चक्र पर राम नाम का जाप भी कर सकते हैं।
एक प्रयोग और जिससे मुझे बहुत लाभ मिलेगा वह यह है जब आपकी सांस भीतर जा रही हो उस समय मेरु दंड में सुषुम्ना नाडी में मूलाधार से ऊपर उठते हुए हर चक्र पर हनुमान जी का ध्यान करें।
ऐसा भाव करें की श्री हनुमान जी की शक्ति आपकी सुषुम्ना नाडी में आरोहण कर रही है| जब सांस बाहर जा रही हो उस समय यह भाव करें कि सुषुम्ना के बाहर पीछे की ओर से हनुमान जी की शक्ति अवरोहण कर रही है।
सांस लेते समय पुनश्चः आरोहण, और सांस छोड़ते समय अवरोहण हो रहा है।साथ साथ उपरोक्त जाप भी चलता रहे।जाप को आज्ञा चक्र या सहस्त्रार पर ही पूर्ण करें।
सहस्त्रार और आज्ञा चक्र पर जो ज्योति (ज्योतिर्मय ब्रह्म) दिखाई देती है वही श्री गुरु के चरण हैं। उसमें समर्पण ही श्री गुरु-चरणों में समर्पण है।
ह्रदय में निरंतर भगवान राम का और भ्रूमध्य में गुरु रूप में ज्योतिर्मय ब्रह्म या हनुमान जी का ध्यान करें। यह प्रयोग मैंने अजपा-जाप के साथ भी किया है और इस से बहुत लाभ मिला है। भगवान से उनके प्रेम के अतिरिक्त अन्य किसी भी तरह की कामना ना करें।
॥ ॐ॥कुण्डलिनी जागरण का अनुभव :-
कुण्डलिनी वह दिव्य शक्ति है जिससे सब जीव जीवन धारण करते हैं, समस्त कार्य करते हैं और फिर परमात्मा में लीन हो जाते हैं. अर्थात यह ईश्वर की साक्षात् शक्ति है.
यह कुण्डलिनी शक्ति सर्प की तरह साढ़े तीन फेरे लेकर शरीर के सबसे नीचे के चक्र मूलाधार चक्र में स्थित होती है. जब तक यह इस प्रकार नीचे रहती है तब तक हम सांसारिक विषयों की ओर भागते रहते हैं.
परन्तु जब यह जाग्रत होती है तो उस समय ऐसा प्रतीत होता है कि कोई सर्पिलाकार तरंग है जिसका एक छोर मूलाधार चक्र पर जुडा हुआ है और दूसरा छोर रीढ़ की हड्डी के चारों तरफ घूमता हुआ ऊपर उठ रहा है. यह बड़ा ही दिव्य अनुभव होता है. यह छोर गति करता हुआ किसी भी चक्र पर रुक सकता है.
जब कुण्डलिनी जाग्रत होने लगती है तो पहले मूलाधार चक्र में स्पंदन का अनुभव होने लगता है. यह स्पंदन लगभग वैसा ही होता है जैसे हमारा कोई अंग फड़कता है.
फिर वह कुण्डलिनी तेजी से ऊपर उठती है और किसी एक चक्र पर जाकर रुक जाती है. जिस चक्र पर जाकर वह रूकती है उसको व उससे नीचे के चक्रों को वह स्वच्छ कर देती है, यानि उनमें स्थित नकारात्मक उर्जा को नष्ट कर देती है.
इस प्रकार कुण्डलिनी जाग्रत होने पर हम सांसारिक विषय भोगों से विरक्त हो जाते हैं और ईश्वर प्राप्ति की ओर हमारा मन लग जाता है. इसके अतिरिक्त हमारी कार्यक्षमता कई गुना बढ जाती है. कठिन कार्य भी हम शीघ्रता से कर लेते हैं.
३. कुण्डलिनी जागरण के लक्षण :
कुण्डलिनी जागरण के सामान्य लक्षण हैं : ध्यान में ईष्ट देव का दिखाई देना या हूं हूं या गर्जना के शब्द करना, गेंद की तरह एक ही स्थान पर फुदकना, गर्दन का भाग ऊंचा उठ जाना, सर में चोटी रखने की जगह यानि सहस्रार चक्र पर चींटियाँ चलने जैसा लगना, कपाल ऊपर की तरफ तेजी से खिंच रहा है ऐसा लगना, मुंह का पूरा खुलना और चेहरे की मांसपेशियों का ऊपर खींचना और ऐसा लगना कि कुछ है जो ऊपर जाने की कोशिश कर रहा है.
४. एक से अधिक शरीरों का अनुभव होना :
कई बार साधकों को एक से अधिक शरीरों का अनुभव होने लगता है. यानि एक तो यह स्थूल शरीर है और उस शरीर से निकलते हुए २ अन्य शरीर. तब साधक कई बार घबरा जाता है. वह सोचता है कि ये ना जाने क्या है और साधना छोड़ भी देता है. परन्तु घबराने जैसी कोई बात नहीं होती है.
एक तो यह हमारा स्थूल शरीर है. दूसरा शरीर सूक्ष्म शरीर (मनोमय शरीर) कहलाता है तीसरा शरीर कारण शारीर कहलाता है. सूक्ष्म शरीर या मनोमय शरीर भी हमारे स्थूल शरीर की तरह ही है यानि यह भी सब कुछ देख सकता है, सूंघ सकता है, खा सकता है, चल सकता है, बोल सकता है आदि.
परन्तु इसके लिए कोई दीवार नहीं है यह सब जगह आ जा सकता है क्योंकि मन का संकल्प ही इसका स्वरुप है. तीसरा शरीर कारण शरीर है इसमें शरीर की वासना के बीज विद्यमान होते हैं.
मृत्यु के बाद यही कारण शरीर एक स्थान से दुसरे स्थान पर जाता है और इसी के प्रकाश से पुनः मनोमय व स्थूल शरीर की प्राप्ति होती है अर्थात नया जन्म होता है. इसी कारण शरीर से कई सिद्ध योगी परकाय प्रवेश में समर्थ हो जाते हैं.
//ध्यान की विधियाँ:-
ध्यान की विधियाँ कौन-कौन सी हैं? ध्यान की अनेकानेक एवं अनंत विधियाँ संसार में प्रचलित हैं. साधकों की सुविधा के लिए विभिन्न शास्त्रों व ग्रंथों से प्रमाण लेकर ध्यान की विधियाँ बताते हैं जिनका अभ्यास करके साधक शीघ्रातिशीघ्र ईश्वर साक्षात्कार को प्राप्त कर सकता है.
ध्यान की विधियाँ :-
१. श्री कृष्ण अर्जुन संवाद :भगवन श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा: शुद्ध एवं एकांत स्थान पर कुशा आदि का आसन बिछाकर सुखासन में बैठें. अपने मन को एकाग्र करें. मन व इन्द्रियों की क्रियाओं को अपने वश में करें, जिससे अंतःकरण शुद्ध हो. इसके लिए शारीर, सर व गर्दन को सीधा रखें और हिलाएं-दुलायें नहीं. आँखें बंद रखें व साथ ही जीभ को भी न हिलाएं. अब अपनी आँख की पुतलियों को भी इधर-उधर नहीं हिलने दें और उन्हें एकदम सामने देखता हुआ रखें. एकमात्र ईश्वर का स्मरण करते रहें. ऐसा करने से कुछ ही देर में मन शांत हो जाता है और ध्यान आज्ञा चक्र पर स्थित हो जाता है और परम ज्योति स्वरुप परमात्मा के दर्शन होते हैं.
विशेष :- ध्यान दें जब तक मन में विचार चलते हैं तभी तक आँख की पुतलियाँ इधर-उधर चलती रहती हैं. और जब तक आँख की पुतलियाँ इधर-उधर चलती हैं तब तक हमारे मन में विचार उत्पन्न होते रहते हैं. जैसे ही हम मन में चल रहे समस्त विचारों को रोक लेते हैं तो आँख की पुतलियाँ रुक जाती हैं. इसी प्रकार यदि आँख की पुतलियों को रोक लें तो मन के विचार पूरी तरह रुक जाते हैं. और मन व आँख की पुतलियों के रुकते ही आत्मा का प्रभाव ज्योति के रूप में दीख पड़ता है.
गीतोपदेश अ. ६ श्लोक १२ से 15
२. शिव-पार्वती संवाद :-
भगवन शिव ने पार्वतीजी से कहा :- एकांत स्थान पर सुखासन में बैठ जाएँ. मन में ईश्वर का स्मरण करते रहें. अब तेजी से सांस अन्दर खींचकर फिर तेजी से पूरी सांस बाहर छोड़कर रोक लें. श्वास इतनी जोर से बाहर छोड़ें कि इसकी आवाज पास बैठे व्यक्ति को भी सुनाई दे.
इस प्रकार सांस बाहर छोड़ने से वह बहुत देर तक बाहर रुकी रहती है. उस समय श्वास रुकने से मन भी रुक जाता है और आँखों की पुतलियाँ भी रुक जाती हैं. साथ ही आज्ञा चक्र पर दबाव पड़ता है और वह खुल जाता है.
श्वास व मन के रुकने से अपने आप ही ध्यान होने लगता है और आत्मा का प्रकाश दिखाई देने लगता है. यह विधि शीघ्र ही आज्ञा चक्र को जाग्रत कर देती है.
नेत्र तंत्र
३. शिवजी ने पार्वतीजी से कहा :-
रात्रि में एकांत में बैठ जाएँ. आंखें बंद करें. हाथों की अँगुलियों से आँखों की पुतलियों को दबाएँ. इस प्रकार दबाने से तारे-सितारे दिखाई देंगे. कुछ देर दबाये रखें फिर धीरे-धीरे अँगुलियों का दबाव कम करते हुए छोड़ दें तो आपको सूर्य के सामान तेजस्वी गोला दिखाई देगा. इसे तैजस ब्रह्म कहते हैं.
इसे देखते रहने का अभ्यास करें. कुछ समय के अभ्यास के बाद आप इसे खुली आँखों से भी आकाश में देख सकते हैं. इसके अभ्यास से समस्त विकार नष्ट होते हैं, मन शांत होता है और परमात्मा का बोध होता है.
शिव पुराण, उमा संहिता
४.शिवजी ने पार्वतीजी से कहा :-
रात्रि में ध्वनिरहित, अंधकारयुक्त, एकांत स्थान पर बैठें. तर्जनी अंगुली से दोनों कानों को बंद करें. आँखें बंद रखें. कुछ ही समय के अभ्यास से अग्नि प्रेरित शब्द सुनाई देगा. इसे शब्द-ब्रह्म कहते हैं.
यह शब्द या ध्वनि नौ प्रकार की होती है. इसको सुनने का अभ्यास करना शब्द-ब्रह्म का ध्यान करना है. इससे संध्या के बाद खाया हुआ अन्न क्षण भर में ही पाच जाता है और संपूर्ण रोगों तथा ज्वर आदि बहुत से उपद्रवों का शीघ्र ही नाश करता है.
यह शब्द ब्रह्म न ॐकार है, न मंत्र है, न बीज है, न अक्षर है. यह अनाहत नाद है (अनाहत अर्थात बिना आघात के या बिना बजाये उत्पन्न होने वाला शब्द). इसका उच्चारण किये बिना ही चिंतन होता है.
यह नौ प्रकार का होता है :-

१. घोष नाद :- यह आत्मशुद्धि करता है, सब रोगों का नाश करता है व मन को वशीभूत करके अपनी और खींचता है.
२. कांस्य नाद :- यह प्राणियों की गति को स्तंभित कर देता है. यह विष, भूत, ग्रह आदि सबको बांधता है.
३. श्रृंग नाद :- यह अभिचार से सम्बन्ध रखने वाला है.
४. घंट नाद :- इसका उच्चारण साक्षात् शिव करते हैं. यह संपूर्ण देवताओं को आकर्षित कर लेता है, महासिद्धियाँ देता है और कामनाएं पूर्ण करता है.
५. वीणा नाद :- इससे दूर दर्शन की शक्ति प्राप्त होती है.
६. वंशी नाद :- इसके ध्यान से सम्पूर्ण तत्त्व प्राप्त हो जाते हैं.
७. दुन्दुभी नाद :- इसके ध्यान से साधक जरा व मृत्यु के कष्ट से छूट जाता है.
८. शंख नाद :- इसके ध्यान व अभ्यास से इच्छानुसार रूप धारण करने की शक्ति प्राप्त होती है.
९. मेघनाद :- इसके चिंतन से कभी विपत्तियों का सामना नहीं करना पड़ता.
इन सबको छोड़कर जो अन्य शब्द सुनाई देता है वह तुंकार कहलाता है.
तुंकार का ध्यान करने से साक्षात् शिवत्व की प्राप्ति होती है.शिव पुराण, उमा संहिता
५. भगवान श्री कृष्ण ने उद्धवजी से कहा :-
शुद्ध व एकांत में बैठकर अनन्य प्रेम से ईश्वर का स्मरण करें और प्रार्थना करें कि हे प्रभु! प्रसन्न होइए! मेरे शरीर में प्रवेश करके मुझे बंधनमुक्त करें.
इस प्रकार प्रेम और भक्तिपूर्वक ईश्वर का भजन करने से वे भगवान भक्त के हृदय में आकर बैठ जाते हैं. भक्त को भगवान् का वह स्वरुप अपने हृदय में कुछ-कुछ दिखाई देने लगता है. इस स्वरुप को सदा हृदय में देखने का अभ्यास करना चाहिए.
इस प्रकार सगुण स्वरुप के ध्यान से भगवान हृदय में विराजमान होते ही हृदय की सारी वासनाएं संस्कारों के साथ नष्ट हो जाती है और जब उस भक्त को परमात्मा का साक्षात्कार होता है तो उसके हृदय कि गांठ टूट जाती है और उसके सरे संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं और कर्म-वासनाएं सर्वथा क्षीण हो जाती हैं.


श्रीमदभगवत महापुराण, एकादश स्कंध, अ. २०, श्लोक २७-३०
ध्यान में होने वाले अनुभव:-
साधकों को ध्यान के दौरान कुछ एक जैसे एवं कुछ अलग प्रकार के अनुभव होते हैं. अनेक साधकों के ध्यान में होने वाले अनुभव एकत्रित कर यहाँ वर्णन कर रहे हैं ताकि नए साधक अपनी साधना में अपनी साधना में यदि उन अनुभवों को अनुभव करते हों तो वे अपनी साधना की प्रगति, स्थिति व बाधाओं को ठीक प्रकार से जान सकें और स्थिति व परिस्थिति के अनुरूप निर्णय ले सकें.
१. भौहों के बीच आज्ञा चक्र में ध्यान लगने पर पहले काला और फिर नीला रंग दिखाई देता है. फिर पीले रंग की परिधि वाले नीला रंग भरे हुए गोले एक के अन्दर एक विलीन होते हुए दिखाई देते हैं.
एक पीली परिधि वाला नीला गोला घूमता हुआ धीरे-धीरे छोटा होता हुआ अदृश्य हो जाता है और उसकी जगह वैसा ही दूसरा बड़ा गोला दिखाई देने लगता है. इस प्रकार यह क्रम बहुत देर तक चलता रहता है.
साधक यह सोचता है यह क्या है, इसका अर्थ क्या है ? इस प्रकार दिखने वाला नीला रंग आज्ञा चक्र का एवं जीवात्मा का रंग है. नीले रंग के रूप में जीवात्मा ही दिखाई पड़ती है. पीला रंग आत्मा का प्रकाश है जो जीवात्मा के आत्मा के भीतर होने का संकेत है.
इस प्रकार के गोले दिखना आज्ञा चक्र के जाग्रत होने का लक्षण है. इससे भूत-भविष्य-वर्तमान तीनों प्रत्यक्ष दिखने लगते है और भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं के पूर्वाभास भी होने लगते हैं. साथ ही हमारे मन में पूर्ण आत्मविश्वास जाग्रत होता है जिससे हम असाधारण कार्य भी शीघ्रता से संपन्न कर लेते हैं.