रविवार, 12 अगस्त 2018

ज्योतिष में गर्भाधान काल

ज्योतिष में गर्भाधान काल

पुरुष के वीर्य और स्त्री के रज से मन सहित जीव (जीवात्मा) का संयोग जिस समय होता है उसे गर्भाधान काल कहते हैं। गर्भाधान का संयोग (काल) कब आता है ? इसे ज्योतिष शास्त्र बखूबी बता रहा है। चरक संहिता के अनुसार आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी इन पंच महाभूतों और इनके गुणों से युक्त हुआ आत्मा गर्भ का रुप ग्रहण करके पहले महीने में अस्पष्ट शरीर वाला होता है। सुश्रुत ने इस अवस्था को कललकहा है। कललभौतिक रूप से रज, वीर्य व अण्डे का संयोग है।

शुक्ल पक्ष की दशमी से कृष्ण पक्ष की पंचमी तक चंद्रमा को शास्त्रकारों ने पूर्णबली माना है। शुक्ल पक्ष के चंद्रमा की कलाऐं जैसे-जैसे बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे स्त्री-पुरुषों के मन में प्रसन्नता और काम-वासना बढ़ती है। जब गोचरीय चंद्रमा का शुक्र अथवा गुरु से दृष्टि या युति संबंध होता है, तब इस फल की वृद्धि होती है।

सफल प्रेम की डेटिंग का समय
जिस समय आपकी राशि से गोचर का चंद्रमा चैथा, आठवां बारहवां न हो। रश्मियुक्त हो। शुक्र अथवा गुरु से दृष्ट या युत हो। उस समय प्रेमी या प्रेमिका से आपकी मुलाकात (डेटिंग) सफल होती है और आपकी मनोकामना पूर्ण होती है। इस मुहूर्त में आपकी पत्नी भी सहवास के लिए सहर्ष तैयार हो जाती है यह अनुभव सिद्ध है।

गर्भाधान की क्रिया का वैज्ञानिक दृष्टिकोण
यह सभी जानते हैं कि गर्भाधान करने के लिए यौन संपर्क स्थापित करना पड़ता है, किंतु पति-पत्नी के प्रत्येक यौन संपर्क के दौरान गर्भाधान संभव नहीं होता है। यौन संपर्क तो बहुत बार होता है, परंतु गर्भाधान कभी-कभी संभव हो पाता है। वैज्ञानिकों के अनुसार पुरुष के वीर्य में स्थित शुक्राणु जब स्त्री के रज में स्थित अण्डाणु में प्रवेश कर जाते हैं, तो गर्भ स्थापन्न हो जाता है। निषेचन की इस जैविक प्रक्रिया को गर्भाधान कहते हैं। यह प्रक्रिया स्त्री के गर्भाशय में होती है। निःसंतान दंपत्तियों (बांझ स्त्री/नपुंसक पुरुष) के लिए निषेचन की यह क्रिया परखनली में कराई जाती है। इससे उत्पन्न भ्रूण को टेस्ट ट्यूब बेबीकहते हैं। इसके विकास के लिए बेबी भ्रूण को किसी अन्य स्त्री के गर्भाशय में रख दिया जाता है। जिसे सेरोगेट्स या किराये की कोख कहते हैं।

आयुर्वेद की दृष्टि से गर्भोत्पत्ति का कारण
चरक संहिता के अनुसार जब स्त्री पुराने रज के निकल जाने के बाद नया रज स्थित होने पर शुद्ध होकर स्नान कर लेती है और उसकी योनि, रज तथा गर्भाशय में कोई दोष नहीं रहता, तब उसे ऋतुमती कहते हैं। ऐसी स्त्री से जब दोष रहित बीज (शुक्राणु) वाला पुरुष यौन क्रिया करता है, तब वीर्य, रज तथा जीव इन तीनों का संयोग होने पर गर्भ उत्पन्न होता है। यह जीव (जीवात्मा) गर्भाशय में प्रवेश करके वीर्य तथा रज के संयोग से स्वयं को गर्भ के रूप में उत्पन्न करता है। ज्योतिष में जीव (गुरु) को गर्भोत्पत्ति का प्रमुख कारक माना है।
वीर्य, रज, जीव और मन का संयोग ही गर्भ है:-
महर्षि आत्रेय मुनि ने कहा है- पुनर्जन्म लेने की इच्छा से जीवात्मा मन के सहित पुरुष के वीर्य में प्रवेश कर जाता है तथा क्रिया काल में वीर्य के साथ स्त्री के रज में प्रवेश कर जाता है। स्त्री के गर्भाशय में वीर्य, रज, जीव और मन के संयोग से गर्भकी उत्पत्ति होती है।
पुरुष के वीर्य और स्त्री के रज से मन सहित जीव (जीवात्मा) का संयोग जिस समय होता है उसे गर्भाधान काल कहते हैं। गर्भाधान का संयोग (काल) कब आता है ? इसे ज्योतिष शास्त्र बखूबी बता रहा है।

गर्भ उत्पत्ति की संभावना का योग
जब स्त्री की जन्म राशि से अनुपचय (1, 2, 4, 5, 7, 8, 9, 12) स्थान में गोचरीय चंद्रमा मंगल द्वारा दृष्ट हो, उस समय स्त्री की रज प्रवृत्ति हो तो ऐसा रजो दर्शन गर्भाधान का कारण बन सकता है अर्थात गर्भाधान संभव होता है। क्योंकि यह ओब्यूटरी एम.सी.होती है। इस प्रकार के मासिक चक्र में स्त्री के अण्डाशय में अण्डा बनता है तथा 12वें से 16वें दिन के बीच स्त्री के गर्भाशय में आ जाता है। यह वैज्ञानिकों की मान्यता है, हमारी मान्यता के अनुसार माहवारी शुरु होने के 6वें दिन से लेकर 16वें दिन तक कभी भी अण्डोत्सर्ग हो सकता है। यदि छठवें दिन गर्भाधान हो जाता है तो वह श्रेष्ठ कहलाता है। यह ब्रह्माजी का कथन है।
मासिक धर्म प्रारंभ होने से 16 दिनों तक स्त्रियों का स्वाभाविक ऋतुकाल होता है। जिनमें प्रारंभ के 4 दिन निषिद्ध (वर्जित) हैं। इसके पश्चात शेष रात्रियों में गर्भाधान (निषेक) करना चाहिए।
 
पुरुष की राशि से गर्भाधान के योग
गर्भ धारण की इच्छुक स्त्री की योग्यता और उसके अनुकूल समय से काम नहीं बनता है। गर्भाधान हेतु पुरुष की योग्यता व उसके अनुकूल समय का होना भी आवश्यक है।
शीतज्योतिषि योषितोऽनुपचयस्थाने कुजेनेक्षिते,
जातं गर्भफलप्रदं खलु रजः स्यादन्यथा निष्फलम्।
दृष्टेऽस्मिन् गुरुणा निजोपचयगे कुर्यान्निषेक पुमान,
अत्याज्ये च समूलभे शुभगुणे पर्वादिकालोज्झिते।।

जातक पारिजात में आचार्य वैद्यनाथ ने लिखा है स्त्री की जन्मराशि से अनुपचय स्थानों में चंद्रमा हो तथा मंगल से दृष्ट या संबद्ध हो तब गर्भाधान संभव है, अन्यथा निष्फल होता है। पुरुष की जन्म राशि से उपचय (3, 6,10,11) स्थानों में चंद्र गोचर हो और उसे संतान कारक गुरु देखे तो पुरुष को गर्भाधान में प्रवृत्त होना चाहिए।

पुरुष की जन्म राशि से 2, 5, 9वें स्थान में जब गुरु गोचर करता है तब वह गर्भाधान करने में सफल होता है। क्योंकि 2रे स्थान का गुरु 6 और 10वें चंद्रमा को तथा 5वें स्थान से 11वें चंद्रमा को और 9वां गुरु 3रे चंद्रमा को देखेगा। द्वि, पंच, नवम गुरु से गर्भाधान की संभावना का स्थूल आकलन किया जाता है। पुरुष की जन्म राशि से 3, 6, 10, 11वें स्थान में सूर्य का गोचर हो तो गर्भाधान की संभावना रहती है।

गर्भाधान का शुभ मुहूर्त एवं लग्न शुद्धि
वैद्यनाथ द्वारा कथित उपरोक्त योग गर्भ उत्पत्ति की संभावना के योग हैं। गर्भाधान संस्कार हेतु शुभ या अशुभ मुहूर्त से इसका कोई संबंध नहीं है। गर्भ उत्पत्ति संभावित होने पर ही किसी अच्छे ज्योतिषी से गर्भाधान का मुहूर्त निकलवाना चाहिए। यही हमारी संस्कृति का प्राचीन नियम है।
शुभ मुहूर्त में गर्भाधान संस्कार करने से सुंदर, स्वस्थ, तेजस्वी, गुणवान, बुद्धिमान, प्रतिभाशाली और दीर्घायु संतान का जन्म होता है। इसलिए इस प्रथम संस्कार का महत्व सर्वाधिक है।
गर्भाधान संस्कार हेतु स्त्री (पत्नी) की जन्म राशि से चंद्र बल शुद्धि आवश्यक है। जन्म राशि से 4, 8, 12 वां गोचरीय चंद्रमा त्याज्य है। आधान लग्न में भी 4, 8, 12वें चंद्रमा को ग्रहण नहीं करना चाहिए। आधात लग्न में या आधान काल में नीच या शत्रु राशि का चंद्रमा भी त्याज्य है। जन्म लग्न से अष्टम राशि का लग्न त्याज्य है।

आघात लग्न का सप्तम स्थान शुभ ग्रहों से युक्त या दृष्ट होना चाहिए। ऐसा होने से कामसूत्र में वात्स्यायन द्वारा बताये गये सुंदर आसनों का प्रयोग करते हुए प्रेमपूर्वक यौन संपर्क होता है और गर्भाधान सफल होता है।
आघात लग्न में गुरु, शुक्र, सूर्य, बुध में से कोई शुभ ग्रह स्थित हो अथवा इनकी लग्न पर दृष्टि हो तो गर्भाधान सफल होता है एवं गर्भ समुचित वृद्धि को प्राप्त होता है तथा होने वाली संतान गुणवान, बुद्धिमान, विद्यावान, भाग्यवान और दीर्घायु होती है। यदि उक्त ग्रह बलवान हो तो उपरोक्त फल पूर्ण रूप से मिलते हैं। गर्भाधान में सूर्य को शुभ ग्रह माना गया है और विषम राशि व विषम नवांश के बुध को ग्रहण नहीं करना चाहिए।
आघात लग्न के 3, 5, 9 भाव में यदि सूर्य हो तो गर्भ पुत्र के रूप में विकसित होता है।

गर्भाधान के समय लग्न, सूर्य, चंद्र व गुरु बलवान होकर विषम राशि व विषम नवांश में हो तो पुत्र जन्म होता है। यदि ये सब या इनमें से अधिकांश ग्रह सम राशि व सम नवांश में हो तो पुत्री का जन्म होता है।
आधान काल में यदि लग्न व चंद्रमा दोनों शुभ युक्त हों या लग्न व चंद्र से 2, 4, 5, 7, 9, 10 में शुभ ग्रह हों, तथा पाप ग्रह 3, 6, 11 में हो और लग्न या चंद्रमा सूर्य से दृष्ट हो तो गर्भ सकुशल रहता है।

गर्भाधान संस्कार हेतु अश्विनी, रोहिणी, मृगशिरा, हस्त, स्वाती, अनुराधा, तीन उत्तरा, धनिष्ठा, रेवती नक्षत्र प्रशस्त है।
पुरुष का जन्म नक्षत्र, निधन तारा (जन्म नक्षत्र से 7, 16, 25वां नक्षत्र) वैधृति, व्यतिपात, मृत्यु योग, कृष्ण पक्ष की अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या, पूर्णिमा व सूर्य संक्रांति काल गर्भाधान हेतु वर्जित है। स्त्री के रजोदर्शन से ग्यारहवीं व तेरहवीं रात्रि में भी गर्भाधान का निषेध है। शेष छठवीं रात्रि से 16वीं रात्रि तक लग्न शुद्धि मिलने पर गर्भाधान करें।

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